पन्द्रहवाँ
सर्ग
वैराग्यकल्पवृक्ष
की छाया के समान सुखकर शीतल तीसरे द्वारपाल सन्तोष का वर्णन।
क्रम प्राप्त
तीसरे द्वारपाल सन्तोष का वर्णन करते हैं।
श्रीवसिष्ठजी ने
कहाः हे शत्रुतापन श्रीरामजी, सन्तोष परम श्रेय (मोक्षसुख) कहा जाता है और सन्तोष
स्वर्गसुख भी कहा जाता है, क्योंकि सन्तोषयुक्त पुरुष असीम विश्रान्तिसुख को
प्राप्त होता है अर्थात् उसका विक्षेपदुःख सर्वथा निवृत्त हो जाता है। सन्तोषरूपी
ऐश्वर्य से सुखी तथा चिरकाल से विश्रान्तिपूर्ण चित्तवाले शान्त पुरुषों को विशाल
साम्राज्य भी पुराने तिनके का टुकड़ा-सा प्रतीत होता है, तुच्छ लगता है। हे
श्रीरामचन्द्रजी, सन्तोषशालिनी बुद्धि दारिद्रता, वियोग आदि से संकटपूर्ण सांसारिक
जीवन में भी उद्वेगयुक्त न होकर कभी भी सुख से विरहित नहीं होती। जो शान्त पुरुष
सन्तोषरूपी अमृत के पान से तृप्त हुए हैं, उनको यह अतुल विषयभोगसम्पत्ति प्रतिकूल
विष सी लगती है। प्रचुर आनन्ददायक आस्वाद से युक्त तथा आशा, दीनता आदि दोषों का
विनाशक सन्तोष जैसा सुख देता है, वैसा सुख ये अमृत रस की लहरें नहीं देती। हे
राघव, अप्राप्त वस्तु की आकांक्षा का त्याग करने वाला, वस्तु के प्राप्त होने पर
भी उसके मिथ्या होने के कारण पूर्ववस्था के (अप्राप्त अवस्था के) तुल्य अवस्था को
प्राप्त अथवा उसकी प्राप्ति से होने वाले हर्ष आदि के अभाव के कारण समता को
प्राप्त और जिसमें कभी खेद और हर्ष नहीं देखे गये ऐसा पुरूष इस लोक में सन्तुष्ट
कहा जाता है। जब तक मन स्वतः ही (किसी अन्य निमित्त से नही) आत्मा में ही (अन्य
विषयों में नहीं) नहीं जाता तब तक मनरूपी बिल से लता की भाँति विविध आपत्तियाँ
उत्पन्न होती हैं अर्थात् जैसे गर्त से लताएँ पैदा होती हैं, वैसे ही मन से
आपत्तियाँ उत्पन्न होती है। जैसे जल में स्थित कमल सूर्य की किरणों से अत्यन्त
विकासको प्राप्त होता है, वैसे ही सन्तोष से शीतल चित्त शुद्ध विज्ञानदृष्टि से
अत्यन्त विकास को प्राप्त होता है। जैसे म्लान (जल, धूलि और भाप से मलिन) दर्पण
में मुख प्रतिबिम्बित नहीं होता। जिस मनुष्य रूपी कमल के विकास के लिए पूर्वोक्त
सन्तोषरूपी सूर्य नित्य उदित है, वह मनुष्यरूपी कमल अज्ञानरूपी घनान्धकारयुक्त
रात्रि से संकोच को प्राप्त नहीं होता। जिसका आधि और व्याधि से (दैहिक क्लेश और
मानसिक क्लेश से) विमुक्त मन सन्तुष्ट है, वह प्राणी दरिद्र होता हुआ भी साम्राज्य
सुख का भोग करता है।।1-11।।
सन्तोष के
पूर्वोक्त लक्षण का अनुवाद कर अन्य लक्षण कहते हैं।
जो पुरुष
अप्राप्त विषय की अभिलाषा नहीं करता, क्रमशः प्राप्त सुख और दुःख का भोग करता है
जगत को आनन्द देने वाले सदाचार से युक्त वह पुरुष सन्तुष्ट कहा जाता है।।12।।
मुखकान्ति की
विशिष्टता भी उसका लक्षण है, ऐसा कहते हैं-
सन्तोष से
अत्यन्त तृप्त पूर्णचित्तवाले और क्षीरसागर के समान शुद्ध महापुरुष के मुखपर
लक्ष्मी सदा विराजमान रहती है। अपनी आत्मा में आत्मा से ही निरतिशयानन्दरूप
पूर्णता का अवलम्बन कर पौरूष प्रयत्न से सम्पूर्ण विषयों की तृष्णा का त्याग कर
देना चाहिए। क्रोध और सन्ताप के हेतु के न रहने के कारण शान्त और शीतल बुद्धि से
चन्द्रमा के समान सन्तोषरूप अमृत से पूर्ण मनुष्य का मन सदा स्वयं स्थिरता को
प्राप्त होता है। बड़ी-बड़ी सम्पत्तियाँ, मृत्यु की तरह सन्तोष से जिसका मन
परिपुष्ट है, ऐसे पुरुष के पास स्वयं प्राप्त होती हैं। यानी उसकी सेविकाएँ बन
जाती हैं। जैसे वर्षाऋतु में धूलिकण स्वयं शीघ्र शान्त हो जाते हैं, वैसे ही अपनी
आत्मा से आत्मा में सन्तुष्ट स्वस्थ पुरुष में सम्पूर्ण मानसिक व्यथाएँ शान्त हो
जाती हैं।।13-17।।
ऐसा होने पर भी
आवरणरूप दुःखबीज से जो दुःख होता है, वह तो होगा ही। इस पर कहते हैं।
हे श्रीरामजी,
पुरुष नित्य शीतल और कलंक से शून्य शुद्ध वृत्तिरूपी पूर्णता से चन्द्रमा के समान
शोभित होता है। अर्थात् जैसे अमावस्या के दिन क्षीण चन्द्रमा कलंक से भिन्न नहीं
दिखाई देता, अतः कलंक में मग्न-सा हो जाता है और सूर्य के समीप में उसकी शीतल
वृत्ति नहीं रहती, वही चन्द्रमा पौर्णमासी के दिन सोलहों कलाओं से पूर्ण होने से
कलंक का भी भासक होने के कारण कलंक से पृथक हुई शुद्ध वृत्ति से शोभित होता है,
वैसे ही पुरुष भी असन्तोषावस्था में अज्ञानरूपी कलंक में मग्न की नाईं आध्यात्मिक
आदि तीनों तापों से जलाया जाता है और सन्तोषामृतरूपी कलाओं से पूर्ण होने पर
अज्ञानरूपी कलंक का साक्षी होने के कारण उससे अस्पृष्ट आत्मसुख से शीतल वृत्ति से
शोभित होता है। जैसे पुरुष समता से सुन्दर पुरुष के मुख को देखकर सन्तोष को
प्राप्त होता है, वैसे धन के संचय से सन्तोष को प्राप्त नहीं होता। हे रघुनन्दन,
जो पुरुषश्रेष्ठ इस लोक में गुणशाली पुरुषों द्वारा प्रशंसित समता से अलंकृत है,
उसको आकाशचारी देवता और महामुनि भी बड़े भक्तिभाव से प्रणाम करते हैं।।18-20।।
पन्द्रहवाँ सर्ग
समाप्त
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