कार्तिक मास के महत्वपूर्ण नियम - ३
स्कन्द पुराण में जब राजा रोहिताश्व ने मार्कण्डेय जी से प्रार्थना की तब उन्होने जो संवाद राजा आनर्तनरेश और भर्तृयज्ञ के बीच हुआ उसका वर्णन यहा पर है।
भर्तृयज्ञ बोले - अगर पितरों को पितृपक्ष में श्राद्धान्न नहीं मिलता है तो वे जब तक कन्या राशि में सूर्य स्थित रहता है, तब तक अपनी संतानों द्वारा किये गये श्राद्ध की प्रतीक्षा करते रहते हैं। उसके भी बीत जाने पर कुछ पितर तुला राशि के सूर्य तक पूरे कार्तिक मास में अपने वंशजों द्वारा किये जाने वाले श्राद्ध की राह देखते हैं। जब सूर्यदेव वृश्चिक राशि पर चले जाते हैं, तब वे पितर दीन और निराश होकर अपने स्थान पर लौट जाते हैं। राजन ! इस प्रकार पूरे दो मास तक भूख-प्यास से व्याकुल पितर वायुरूप में आकर घर के दरवाजे पर खडे रहते हैं। अतः पितृपक्ष में श्राद्ध अवश्य करना चाहिये। विशेषतः तिल और जल की अंजलि देनी चहिये। जिन तिथियों में श्रद्धापूर्ण हृदय से स्नान करके पितरों के लिये दिया हुआ तिलमिश्रित जल भी उनके लिए अक्षय तृप्ति का साधन होता है, वे तिथियाँ हैं अश्विन शुक्ल नवमी, कार्तिक की द्वादशी, माघ तथा भादों के तृतीया, फाल्गुन की अमावस्या, पौष की एकादशी, आषाढ की दशमी, माघ की सप्तमी, श्रावण कृष्णपक्ष की अष्टमी, आषाढ - कार्तिक - फाल्गुन - चैत्र तथा ज्येष्ठ मास की पूर्णिमाएँ - ये मन्वंतर की आदि तिथियाँ कही गयी हैं। इन तिथियों स्नान करके जो मनुष्य पितरों के उद्देश्य से तिल और कुशमिश्रित जल भी देता है, वह परम गति को प्राप्त होता है। कार्तिक शुक्ल नवमी, वैशाख शुक्ल तृतीया, माघ मास की अमावस्या और श्रावण की तृतीया ये क्रमशः सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग की आदि तिथियाँ हैं। ये स्नान, दान, जप, होम और पितृतर्पण आदि कारने पर अक्षय पुण्य उत्पन्न करने वाली और महान फल देने वाली होती है। जब सूर्य मेष अथवा तुला राशि पर जाते हैं, उस समय अक्षय पुण्यदायक ‘विषुव’ नामक काल होता है। जिस समय सूर्य मकर और कर्क राशि पर जाते हैं, उस समय ‘अयन’ नामक काल होता है। सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि पर जाना ‘संक्रान्ति’ कहलाता है। ये सब स्नान, दान, जप और होम आदि का महान फल देनेवाले हैं। इनमें दी हुई वस्तु का अक्षय फल होता है।
स्रोतः- ऋषि प्रसाद, अंक ११७, सितम्बर २००२
स्कन्द पुराण में जब राजा रोहिताश्व ने मार्कण्डेय जी से प्रार्थना की तब उन्होने जो संवाद राजा आनर्तनरेश और भर्तृयज्ञ के बीच हुआ उसका वर्णन यहा पर है।
भर्तृयज्ञ बोले - अगर पितरों को पितृपक्ष में श्राद्धान्न नहीं मिलता है तो वे जब तक कन्या राशि में सूर्य स्थित रहता है, तब तक अपनी संतानों द्वारा किये गये श्राद्ध की प्रतीक्षा करते रहते हैं। उसके भी बीत जाने पर कुछ पितर तुला राशि के सूर्य तक पूरे कार्तिक मास में अपने वंशजों द्वारा किये जाने वाले श्राद्ध की राह देखते हैं। जब सूर्यदेव वृश्चिक राशि पर चले जाते हैं, तब वे पितर दीन और निराश होकर अपने स्थान पर लौट जाते हैं। राजन ! इस प्रकार पूरे दो मास तक भूख-प्यास से व्याकुल पितर वायुरूप में आकर घर के दरवाजे पर खडे रहते हैं। अतः पितृपक्ष में श्राद्ध अवश्य करना चाहिये। विशेषतः तिल और जल की अंजलि देनी चहिये। जिन तिथियों में श्रद्धापूर्ण हृदय से स्नान करके पितरों के लिये दिया हुआ तिलमिश्रित जल भी उनके लिए अक्षय तृप्ति का साधन होता है, वे तिथियाँ हैं अश्विन शुक्ल नवमी, कार्तिक की द्वादशी, माघ तथा भादों के तृतीया, फाल्गुन की अमावस्या, पौष की एकादशी, आषाढ की दशमी, माघ की सप्तमी, श्रावण कृष्णपक्ष की अष्टमी, आषाढ - कार्तिक - फाल्गुन - चैत्र तथा ज्येष्ठ मास की पूर्णिमाएँ - ये मन्वंतर की आदि तिथियाँ कही गयी हैं। इन तिथियों स्नान करके जो मनुष्य पितरों के उद्देश्य से तिल और कुशमिश्रित जल भी देता है, वह परम गति को प्राप्त होता है। कार्तिक शुक्ल नवमी, वैशाख शुक्ल तृतीया, माघ मास की अमावस्या और श्रावण की तृतीया ये क्रमशः सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग की आदि तिथियाँ हैं। ये स्नान, दान, जप, होम और पितृतर्पण आदि कारने पर अक्षय पुण्य उत्पन्न करने वाली और महान फल देने वाली होती है। जब सूर्य मेष अथवा तुला राशि पर जाते हैं, उस समय अक्षय पुण्यदायक ‘विषुव’ नामक काल होता है। जिस समय सूर्य मकर और कर्क राशि पर जाते हैं, उस समय ‘अयन’ नामक काल होता है। सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि पर जाना ‘संक्रान्ति’ कहलाता है। ये सब स्नान, दान, जप और होम आदि का महान फल देनेवाले हैं। इनमें दी हुई वस्तु का अक्षय फल होता है।
स्रोतः- ऋषि प्रसाद, अंक ११७, सितम्बर २००२
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें