मेरे मित्र संत थे मस्तराम बाबा। वे साक्षात्कारी पुरुष थे। कुछ साधक उनसे मिलने गये। उन्होंने देखा तो समय गये कि ये किसके साधक हैं।
मस्तराम बाबा ने उन साधकों से पूछाः "भगवान कैसे मिलते हैं, अपने-आप ? प्रभु का दर्शन कैसे होता है ?"
साधकों ने कहाः "स्वामी जी ! आप ही बताओ।"
बाबा ने कहाः "यह भी बताने का ही तरीका है।"
साधकों ने पूछा कि ''साक्षात्कार कैसे होता है ?" तो बोलेः "भगवान की भक्ति से और सेवा से होता है।" साधकों ने पूछा कि "कौन-से भगवान की भक्ति करें ताकि जल्दी साक्षात्कार हो ?" बोलेः "कृष्ण की, राम की, देवी की अथवा और भी जिसका जो भगवान है उसकी भक्ति करे।" तब साधकों ने पूछा कि "किसी को साक्षात्कार किये हुए महापुरुष मिल जायें तो उसको किसकी भक्ति करनी चाहिए ?"
मस्तराम बोलेः "जिसको साक्षात्कार हो गया है, वह तो शुद्ध चैतन्य हो गया। उसमें कृष्ण की भावना करो तो कृष्ण के दीदार हो सकते हैं, राम की भावना करो तो राम दिख सकते हैं, बुद्ध की भावना करो तो बुद्ध दिख सकते हैं, चोर की भावना करो तो चोर दिख सकते हैं और उसमें ब्रह्मा, विष्णु, महेश एक ही साथ दिख सकते हैं क्योंकि ब्रह्मा, विष्णु, महेश का जो आधार है, वही आत्मा है। आत्मा की सत्ता के बिना, चैतन्य की सत्ता के बिना ब्रह्मा, विष्णु नहीं टिक सकते हैं। तो जो चैतन्यस्वरूप में स्थिर हो गये हैं, उनका सान्निध्य मिल गया तो फिर किसकी भक्ति करें ? फिर भक्ति क्या करनी है, जैसा ज्ञानी गुरू आदेश देते हैं उसके अनुसार चलना है बस ! फिर हो गयी भक्ति।" उच्चकोटि के साधकों के लिए तो –
ईश ते अधिक गुरु में प्रीति।
विचार सागर
ऐसी निष्ठा से ज्ञानी महापुरुषों में ईश्वरबुद्धि करके उनकी भक्ति, सेवा पूजा करने से, उनका सान्निध्य लाभ लेने से अंतःकरण शुद्ध होता है और अंतःकरण का अज्ञान भी मिटता है।
श्रीमद भागवत, में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं- केवल जलमय तीर्थ ही तीर्थ नहीं कहलाते और केवल मिट्टी या पत्थर की प्रतिमाएँ ही देवता हैं क्योंकि उनका (तीर्थ, देवता का) बहुत समय तक सेवन किया जाये तब वे पवित्र करते हैं, परंतु संतपुरुष तो दर्शनमात्र से ही कृतार्थ कर देते हैं। (वे महापुरुष घड़ी, आधी घड़ी, चौथाई घड़ी के दर्शन-सत्संग से भी पवित्र कर देते हैं-
एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध।
तुलसी संगत साध की, हरे कोटि अपराध।।)
जो मनुष्य वात, पित्त और कफ – इन तीन धातुओं से बने हुए शवतुल्य शरीर को ही आत्मा – अपना मैं, स्त्री पुत्रादि को ही अपना और मिट्टी, पत्थर, काष्ठ आदि पार्थिव विकारों को ही इष्टदेव मानता है तथा जो केवल जल को ही तीर्थ समझता है ज्ञानी महापुरुषों को नहीं, वह मनुष्य होने पर भी पशुओं में भी नीच गधा ही है।
श्रीमद भागवतः 10.84.11.13
भक्ति से भी यदि आगे जाना है तो ज्ञानवानों के सान्निध्य की जरूरत है। भक्ति तो हमने बहुत की, बचपन में भगवान के लिए ऐसे-ऐसे नाचते थे पागल होकर कि देखने वाले अच्छे-अच्छे संत भी भाव-विभोर हो जाते थे। भक्ति तो की, उपासना भी की। भक्ति और उपासना सबका फल यही है कि ज्ञानी का दर्शन हो गया। हमारे सारे पुण्यों का फल यही है कि हमको भगवत्पाद लीलाशाह बापू मिल गये। हमारी जन्म-जन्म की भक्ति का फल यही है कि हमको सदगुरू मिल गये, सत्य का जिन्होंने अनुभव किया है, जो सत्यस्वरूप हो गये। कबीर जी कहते हैं-क
यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान।
सिर दीजै सदगुरू मिले, तो भी सस्ता जान।।
जैसा तैसा आदमी तो यह बात स्वीकार भी नहीं कर सकता, सुनने का भाग्य नहीं होता। जिसका पुण्य नहीं उसको साक्षात्कार की बात सुनना तो दूर है, तत्त्ववेत्ताओं का दर्शन भी नहीं हो सकता। जो पापी हैं न, घोर पापी हैं उनको ज्ञानी का दर्शन भी नहीं हो सकता है। किसी को दर्शन होता भी है तो केवल ऊपर-ऊपर से उनके शरीर का। और जिनके बहुत पुण्य होते हैं, जितने-जितने पुण्य बढ़ते हैं, भक्ति बढ़ती है, योग्यता बढ़ती है, उतना-उतना तुम ज्ञानी को पहचान सकते हो। श्री कृष्ण ज्ञानी-शिरोमणि थे, अर्जुन साथ में था तो भी पहचान नहीं सका। ज्यों-ज्यों अर्जुन का सान्निध्य और योग्यता बढ़ती गयी त्यों-त्यों अर्जुन पहचानते गये। मेरे गुरुदेव (भगवत्पाद साँई श्री लीलाशाह जी महाराज) के सान्निध्य में भी बहुत लोग थे। जिनकी जितनी-जितनी योग्यता थी, उतना-उतना उन्होंने पहचाना, पाया।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 14,15 अंक 216
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