श्रद्धावान ही शास्त्र और गुरू की बात सुनने को तत्पर होता है। श्रद्धावान ही नेत्र, कर्ण, वाचा, रसना आदि इन्द्रियों को संयम में रखता है, वश में रखता है। इसलिए श्रद्धावान ही ज्ञान को उपलब्ध होता है। उस ज्ञान के द्वारा ही उसके भय, शोक, चिन्ता, अशांति, दुःख सदा के लिए नष्ट होते हैं। श्रद्धा ऐसी चीज है जिससे सब अवगुण ढक जाते हैं। कुतर्क और वितण्डावाद ऐसा अवगुण है कि अन्य सब योग्यताओं को ढक देता है। विनम्र और श्रद्धायुक्त लोगों पर सन्त की करूणा कुछ देने को जल्दी उमड़ पड़ती है।
भक्ति करे कोई सूरमा जाति वरण कुल खोय..... इसीलिए भक्तों के जीवन कष्ट से भरपूर बन जाते हैं। एक भक्त का जीवन ही स्वयं भक्ति शास्त्र बन जाता है। ईश्वर के प्रादुर्भाव के लिए भक्त अपना अहं हटा लेता है, मान्यताओँ का डेरा-तम्बू उठा लेता है।
आज हम लोग भक्तों की जय जयकार करते हैं लेकिन उनके जीवन के क्षण क्षण कैसे बीत गये यह हम नहीं जानते, चुभे हुए कण्टकों को मधुरता से कैसे झेले यह हम नहीं जानते।
संसार के भोग वैभव छोड़कर यदि प्रभु के प्रति जाने की वृत्ति होने लगे तो समझना कि वह तुम्हारे पूर्वकाल के शुभ संस्कारों का फल है। ईमानदारी से किया हुआ व्यवहार भक्ति बन जाता है और बेईमानी से की हुई भक्ति भी व्यवहार बन जाती है।
भगवान का सच्चा भक्त मिलना कठिन है। एक हाथ कान पर रखकर दूसरा हाथ लम्बा करके अपने साढ़े तीन इंच का मुँह खोलकर 'आ....आ....' आलाप करने वाले तो बहुत मिल जाते हैं, लेकिन सच्चे भक्त नहीं मिलते। परमात्मा से मिलने की प्रबल हृदय में होनी चाहिए। ढोलक हारमोनियम की आवाज वहाँ नहीं पहुँच सकती है लेकिन पवित्र हृदय की प्रबल इच्छा की आवाज वहाँ तुरन्त पहुँच जाती है।
ऐसी अक्ल किस काम की जो ईश्वर से दूर ले जाये ? ऐसा धन किस काम का जो लुटते हुए आत्मधन को न बचा सके ? ऐसी प्रतिष्ठा किस काम की जो अपनी ईश्वरीय महिमा में प्रतिष्ठित न होने दे ? परन्तु तथाकथित सयाने लोग उन नश्वर खिलौनों को इकट्ठे करने में अपनी चतुराई लगाते हैं। उनके लिए ईश्वर का बलिदान दे देते हैं पर भक्त ईश्वर के लिए नश्वर खिलौनों का बलिदान दे देता है।
आत्मशान्ति की प्राप्ति के लिए समय अल्प है, मार्ग अटपटा है। खुद को समझदार माननेवाले बड़े बड़े तीसमारखाँ भी इस मार्ग की भूलभूलैया से बाहर नहीं निकल पाये। वे जिज्ञासु धन्य हैं जिन्होंने सच्चे तत्त्ववेत्ताओं की छत्रछाया में पहुँच कर साहसपूर्वक आत्मशांति को पाने के लिए कमर कसी है।
दुःख से आत्यान्तिक मुक्ति पानी हो तो संत का सान्निध्य प्राप्त कर आत्मदेव को जानो। महापुरुषों के चरणों में निष्काम भाव से रहकर उनके द्वारा निर्दिष्ट साधना में लग जाने से लक्ष्यसिद्धि दूर नहीं रहती।
भक्ति करे कोई सूरमा जाति वरण कुल खोय..... इसीलिए भक्तों के जीवन कष्ट से भरपूर बन जाते हैं। एक भक्त का जीवन ही स्वयं भक्ति शास्त्र बन जाता है। ईश्वर के प्रादुर्भाव के लिए भक्त अपना अहं हटा लेता है, मान्यताओँ का डेरा-तम्बू उठा लेता है।
आज हम लोग भक्तों की जय जयकार करते हैं लेकिन उनके जीवन के क्षण क्षण कैसे बीत गये यह हम नहीं जानते, चुभे हुए कण्टकों को मधुरता से कैसे झेले यह हम नहीं जानते।
संसार के भोग वैभव छोड़कर यदि प्रभु के प्रति जाने की वृत्ति होने लगे तो समझना कि वह तुम्हारे पूर्वकाल के शुभ संस्कारों का फल है। ईमानदारी से किया हुआ व्यवहार भक्ति बन जाता है और बेईमानी से की हुई भक्ति भी व्यवहार बन जाती है।
भगवान का सच्चा भक्त मिलना कठिन है। एक हाथ कान पर रखकर दूसरा हाथ लम्बा करके अपने साढ़े तीन इंच का मुँह खोलकर 'आ....आ....' आलाप करने वाले तो बहुत मिल जाते हैं, लेकिन सच्चे भक्त नहीं मिलते। परमात्मा से मिलने की प्रबल हृदय में होनी चाहिए। ढोलक हारमोनियम की आवाज वहाँ नहीं पहुँच सकती है लेकिन पवित्र हृदय की प्रबल इच्छा की आवाज वहाँ तुरन्त पहुँच जाती है।
ऐसी अक्ल किस काम की जो ईश्वर से दूर ले जाये ? ऐसा धन किस काम का जो लुटते हुए आत्मधन को न बचा सके ? ऐसी प्रतिष्ठा किस काम की जो अपनी ईश्वरीय महिमा में प्रतिष्ठित न होने दे ? परन्तु तथाकथित सयाने लोग उन नश्वर खिलौनों को इकट्ठे करने में अपनी चतुराई लगाते हैं। उनके लिए ईश्वर का बलिदान दे देते हैं पर भक्त ईश्वर के लिए नश्वर खिलौनों का बलिदान दे देता है।
आत्मशान्ति की प्राप्ति के लिए समय अल्प है, मार्ग अटपटा है। खुद को समझदार माननेवाले बड़े बड़े तीसमारखाँ भी इस मार्ग की भूलभूलैया से बाहर नहीं निकल पाये। वे जिज्ञासु धन्य हैं जिन्होंने सच्चे तत्त्ववेत्ताओं की छत्रछाया में पहुँच कर साहसपूर्वक आत्मशांति को पाने के लिए कमर कसी है।
दुःख से आत्यान्तिक मुक्ति पानी हो तो संत का सान्निध्य प्राप्त कर आत्मदेव को जानो। महापुरुषों के चरणों में निष्काम भाव से रहकर उनके द्वारा निर्दिष्ट साधना में लग जाने से लक्ष्यसिद्धि दूर नहीं रहती।
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