मासिक साधना उपयोगी तिथियाँ

व्रत त्योहार और महत्वपूर्ण तिथियाँ

25 फरवरी - माघी पूर्णिमा
03 मार्च - रविवारी सप्तमी (शाम 06:19 से 04 मार्च सूर्योदय तक )
06 मार्च -
व्यतिपात योग (दोपहर 14:58 से 07 मार्च दिन 12:02 मिनट तक)
08 मार्च - विजया एकादशी (यह त्रि स्पृशा एकादशी है )
09 मार्च - शनि प्रदोष व्रत
10 मार्च - महा शिवरात्री (निशीथ काल मध्यरात्री 12:24 से 01:13 तक )
11 मार्च - सोमवती अमावस्या (
सूर्योदय से रात्री 1:23 तक )
11 मार्च - द्वापर युगादी तिथि
14 मार्च - षडशीति संक्रांति (पुण्यकाल शाम 4:58 से
सूर्योदय तक)
19 मार्च - होलाष्टक प्रारम्भ
20 मार्च - बुधवारी अष्टमी (
सूर्योदय से दोपहर 12:12 तक)
23 मार्च - आमलकी एकादशी
24 मार्च - प्रदोष व्रत
26 मार्च - होलिका दहन
27 मार्च - धुलेंडी , चैतन्य महाप्रभु जयंती
29 मार्च - संत तुकाराम द्वितीय
30 मार्च - छत्रपति शिवाजी जयन्ती

रविवार, 5 सितंबर 2010

अपने को तोलें - " परमपूज्य संत श्री आसारामजी बापू "

सहज जीवन तो महापुरुषों का होता है, जिनके मन और बुद्धि अपने अधिकार में होते हैं, जिनको अब संसार में अपने लिये पाने को कुछ भी शेष नहीं बचा है, जिन्हें मान-अपमान की चिन्ता नहीं होती है | वे उस आत्मतत्त्व में स्थित हो जाते हैं जहाँ न पतन है न उत्थान | उनको सदैव मिलते रहने वाले आनन्द में अब संसार के विषय न तो वृद्धि कर सकते हैं न अभाव | विषय-भोग उन महान् पुरुषों को आकर्षित करके अब बहका या भटका नहीं सकते | इसलिए अब उनके सम्मुख भले ही विषय-सामग्रियों का ढ़ेर लग जाये किन्तु उनकी चेतना इतनी जागृत होती है कि वे चाहें तो उनका उपयोग करें और चाहें तो ठुकरा दें, बाहरी विषयों की बात छोड़ो, अपने शरीर से भी उनका ममत्व टूट चुका होता है | शरीर रहे अथवा न रहे- इसमें भी उनका आग्रह नहीं रहता | ऐसे आनन्दस्वरूप में वे अपने-आपको हर समय अनुभव करते रहते हैं | ऐसी अवस्थावालों के लिये कबीर जी ने कहा है :

साधो, सहज समाधि भली |

हम यदि ऐसी अवस्था में हैं तब तो ठीक है | अन्यथा ध्यान रहे, ऐसे तर्क की आड़ में हम अपने को धोखा देकर अपना ही पतन कर डालेंगे | जरा, अपनी अवस्था की तुलना उनकी अवस्था से करें | हम तो, कोई हमारा अपमान कर दे तो क्रोधित हो उठते हैं, बदला तक लेने को तैयार हो जाते हैं | हम लाभ-हानि में सम नहीं रहते हैं | राग-द्वेष हमारा जीवन है | ‘मेरा-तेरा’ भी वैसा ही बना हुआ है | ‘मेरा धन … मेरा मकान … मेरी पत्नी … मेरा पैसा … मेरा मित्र … मेरा बेटा … मेरी इज्जत … मेरा पद …’ ये सब सत्य भासते हैं कि नहीं ? यही तो देहभाव है, जीवभाव है | हम इससे ऊपर उठ कर व्यवहार कर सकते हैं क्या ? यह जरा सोचें |

कई साधु लोग भी इस देहभाव से छुटकारा नहीं पा सके, सामान्य जन की तो बात ही क्या ? कई साधु भी ‘मैं स्त्रियों की तरफ देखता ही नहीं हूँ … मैं पैसे को छूता ही नहीं हूँ …’ इस प्रकार की अपनी-अपनी मन और बुद्धि की पकड़ों में उलझे हुए हैं | वे भी अपना जीवन अभी सहज नहीं कर पाए हैं और हम … ?

हम अपने साधारण जीवन को ही सहज जीवन का नाम देकर विषयों में पड़े रहना चाहते हैं | कहीं मिठाई देखी तो मुँह में पानी भर आया | अपने संबंधी और रिश्तेदारों को कोई दुःख हुआ तो भीतर से हम भी दुःखी होने लग गये | व्यापार में घाटा हुआ तो मुँह छोटा हो गया | कहीं अपने घर से ज्यादा दिन दूर रहे तो बार-बार अपने घरवालों की, पत्नी और पुत्रों की याद सताने लगी | ये कोई सहज जीवन के लक्षण हैं, जिसकी ओर ज्ञानी महापुरुषों का संकेत है ? नहीं |

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