एक बार चैतन्य महाप्रभु (गौरांग) अपने प्रांगण में शिष्यों के साथ श्रीकृष्ण-चर्चा कर रहे थे और चर्चा करते-करते भाव-विभोर हो रहे थे। पास में एक बड़ा वटवृक्ष था.... घटादार छाया.... मनमोहक वातावरण.. इतने में एक डोली उस वटवृक्ष के नीचे उतरी। उसमें से एक दूल्हा बाहर निकला और विश्राम के लिए वहीं बैठ गया। डोली के साथ बाराती भी थे, वे भी वहीं विश्राम करने लगे। दूल्हे का सुन्दर रूप, उसकी विशाल एवं सुडौल काया, बड़ी-बड़ी आँखें एवं आजानुबाहू.... देखते ही गौरांग बोल उठेः "अरे, यह कितना सुंदर है ! कितना बढ़िया लगता है !लेकिन यह शादी करके आया है। अब यह संसार की चक्की में पिसेगा, भोग विलास से इसका शरीर क्षीण होगा, दुर्बलकाय बनेगा, विषय-विकारों में खपेगा। संसार की चिन्ताओं में अपना जीवन बिताने की इसकी शुरुआत हो रही है। हे कृष्ण ! यह तेरा भक्त हो जाय तो कितना अच्छा हो !" वह दूल्हा कोई साधारण आदमी नहीं था वरन् वे बड़े विद्वान एवं कवि थे। वे कविराज रामचंद्र पण्डित स्वयं थे। उन्होंने गौरांग के ये वचन सुने तो उनके हृदय में तीर की तरह चुभ गये किः 'बात तो सच है।'
वे घर गये। दो दिन घर में रहे तो उन्हें लगा किः 'यह तो सचमुच अपने को खपाने-सताने जैसा है।' तीसरे ही दिन वे गौरांग के पास आये एवं उनके चरणों में गिरकर बोलेः 'हे संतप्रवर ! मुझे बचाइये। ऐसी सुडौल काया है, कुशाग्र बुद्धि है फिर भी यह जीवन विषय विलास में ही खपकर बरबाद हो रहा है। अब मेरी जीवन-गाड़ी की बागडोर आप ही सँभालिये।"
गौरांग का हृदय पिघल गया। उन्होंने कविराज रामचंद्र पंडित को गले से लगा लिया। उन्हें गुरुमंत्र की दीक्षा देकर प्राणायाम-ध्यान की विधि बता दी। थोड़े दिन तक वे गौरांग के साथ रहे एवं उनके अंतरंग शिष्य बन गये। ऐसे अंतरंग शिष्य बने कि गौरांग के मन के भाव जानकर अपने-आप ही तत्परता से उनकी सेवा कर लेते थे। गौरांग को इशारा भी नहीं करना पड़ता था। मानों, वे गौरांग की छायारूप हो गये।
एक बार गौरांग कीर्तन करते-करते ऐसी समधि में चले गये कि एक-दो दिन तो क्या, पूरे सात दिन हो गये, फिर भी उनकी समाधि न टूटी। सब शिष्य एवं विष्णुप्रिया देवी भी चिंतित हो उठी। आखिर इस सत्शिष्य रामचंद्र से कहा गयाः "अब आप ही कुछ करिये।"
उस वक्त गौरांग भाव-भाव में कृष्णलीला में चले गये थे। विहार करते-करते राधाजी का कुंडल यमुना के किनारे गहरे जल में कहीं खो गया था और गौरांग उसे खोजने गये थे। कविराज रामचन्द्र गुरु जी का त्राटक करते हुए उनके ध्यान में तल्लीन हो गये। ध्यान में वे वहीं पहुँच गये जहाँ गौरांग का अंतवाहक शरीर था। अब दोनों मिलकर खोजने लगे। कविराज ने देखा कि राधा जी का कर्णकुंडल किसी लता में फँस गया था। रामचन्द्र पंडित ने खोजा एवं दोनों ने राधाजी को अर्पण किया। राधाजी ने अपना चबाया हुआ तांबूल उनको प्रसाद में दिया वह प्रसाद चबाते ही उनकी आँखें खुली तो उसकी सुगंध चिंता में बैठे हुए समस्त भक्तों तक पहुँच गयी।
भक्त दंग रह गये कि जो आनंद एवं सुगन्ध देवताओं के लिए भी दुर्लभ है, वह राधाजी के प्रसाद की सुवास में है ! यह कितनी सुखदायी, शांतिदायी है !
संत-सान्निध्य एवं संयम में बड़ी शक्ति होती है। रामचन्द्र जा तो रहे थे भोग की खाई में किन्तु गौरांग के वचन सुनकर उनके सान्निध्य में आ गये तो ऐसे महान हो गये कि राधाजी के कर्णकुण्डल खोजने में अंतवाहक शरीर (सूक्ष्म शरीर) से गौरांग के भी सहायक हो गये ! यौवन, धन एवं सौन्दर्य आदि भोग के सभी साधन एकत्रित थे फिर भी गौरांग की कृपादृष्टि को अपना लिया तो भोग छोड़कर योग के रास्ते चल पड़े रामचन्द्र।
वे घर गये। दो दिन घर में रहे तो उन्हें लगा किः 'यह तो सचमुच अपने को खपाने-सताने जैसा है।' तीसरे ही दिन वे गौरांग के पास आये एवं उनके चरणों में गिरकर बोलेः 'हे संतप्रवर ! मुझे बचाइये। ऐसी सुडौल काया है, कुशाग्र बुद्धि है फिर भी यह जीवन विषय विलास में ही खपकर बरबाद हो रहा है। अब मेरी जीवन-गाड़ी की बागडोर आप ही सँभालिये।"
गौरांग का हृदय पिघल गया। उन्होंने कविराज रामचंद्र पंडित को गले से लगा लिया। उन्हें गुरुमंत्र की दीक्षा देकर प्राणायाम-ध्यान की विधि बता दी। थोड़े दिन तक वे गौरांग के साथ रहे एवं उनके अंतरंग शिष्य बन गये। ऐसे अंतरंग शिष्य बने कि गौरांग के मन के भाव जानकर अपने-आप ही तत्परता से उनकी सेवा कर लेते थे। गौरांग को इशारा भी नहीं करना पड़ता था। मानों, वे गौरांग की छायारूप हो गये।
एक बार गौरांग कीर्तन करते-करते ऐसी समधि में चले गये कि एक-दो दिन तो क्या, पूरे सात दिन हो गये, फिर भी उनकी समाधि न टूटी। सब शिष्य एवं विष्णुप्रिया देवी भी चिंतित हो उठी। आखिर इस सत्शिष्य रामचंद्र से कहा गयाः "अब आप ही कुछ करिये।"
उस वक्त गौरांग भाव-भाव में कृष्णलीला में चले गये थे। विहार करते-करते राधाजी का कुंडल यमुना के किनारे गहरे जल में कहीं खो गया था और गौरांग उसे खोजने गये थे। कविराज रामचन्द्र गुरु जी का त्राटक करते हुए उनके ध्यान में तल्लीन हो गये। ध्यान में वे वहीं पहुँच गये जहाँ गौरांग का अंतवाहक शरीर था। अब दोनों मिलकर खोजने लगे। कविराज ने देखा कि राधा जी का कर्णकुंडल किसी लता में फँस गया था। रामचन्द्र पंडित ने खोजा एवं दोनों ने राधाजी को अर्पण किया। राधाजी ने अपना चबाया हुआ तांबूल उनको प्रसाद में दिया वह प्रसाद चबाते ही उनकी आँखें खुली तो उसकी सुगंध चिंता में बैठे हुए समस्त भक्तों तक पहुँच गयी।
भक्त दंग रह गये कि जो आनंद एवं सुगन्ध देवताओं के लिए भी दुर्लभ है, वह राधाजी के प्रसाद की सुवास में है ! यह कितनी सुखदायी, शांतिदायी है !
संत-सान्निध्य एवं संयम में बड़ी शक्ति होती है। रामचन्द्र जा तो रहे थे भोग की खाई में किन्तु गौरांग के वचन सुनकर उनके सान्निध्य में आ गये तो ऐसे महान हो गये कि राधाजी के कर्णकुण्डल खोजने में अंतवाहक शरीर (सूक्ष्म शरीर) से गौरांग के भी सहायक हो गये ! यौवन, धन एवं सौन्दर्य आदि भोग के सभी साधन एकत्रित थे फिर भी गौरांग की कृपादृष्टि को अपना लिया तो भोग छोड़कर योग के रास्ते चल पड़े रामचन्द्र।
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