कई लोग भगवान के रास्ते चलते हैं। गलती यह करते हैं कि 'चलो, सबमें भगवान हैं।' ऐसा करके अपने व्यवहार का विस्तार करते रहते हैं। तत्त्वज्ञान के रास्ते चलने वाले साधक सोचते हैं कि सब माया में हो रहा है। ऐसा करके साधन-भजन में शिथिलता करते हैं और व्यवहार बढ़ाये चले जाते हैं।
अरे, माया में हो रहा है लेकिन माया से पार होने की अवस्था में भी तो जाओ साधन भजन करके ! साधन भजन छोड़ क्यों रहे हो ? 'जब तक जीना तब तक सीना।' जब तक जीवन है तब तक साधन-भजन की गुदड़ी को सीते रहो।
थोड़ा वेदान्त इधर-उधर सुन लिया। आ गये निर्णय पर 'सब प्रकृति में हो रहा है।' फिर दे धमाधम व्यवहार में। साधन भजन की फुरसत ही नहीं।
जो साधन-भजन छोड़ देते हैं वे शाब्दिक ज्ञानी बनकर रह जाते हैं। 'मैं भगवान का हूँ' यह मान लेते हैं और संसार की गाड़ी खींचने में लगे रहते हैं। अपने को भगवान का मान लेना अच्छा है। साधन-भजन का त्याग करना अच्छा नहीं। भगवान स्वयं प्रातःकाल में समाधिस्थ रहते हैं। शिवजी स्वयं समाधि करते हैं। रामजी स्वयं गुरू के द्वार पर जाते हैं, आप्तकाम पुरूषों का संग करते हैं। श्रीकृष्ण दुर्वासा ऋषि को गाड़ी में बिठाकर, घोड़ों को हटाकर स्वयं गाड़ी खींचते हैं। उनको ऐसा करने की क्या जरूरत थी ?
हम लोगों को थोड़े रूपये-पैसे, कुछ सुख-सुविधाएँ मिल जाती हैं तो बोलते हैं- 'अब भगवान की दया है। जब मर जायेंगे तब भगवान हमें पकड़कर स्वर्ग में ले जायेंगे।'
अरे भाई ! तू अपनी साधना की गुदड़ी सीना चालू तो रख ! बन्द क्यों करता है ? साधन-भजन छोड़कर बैठेगा तो संसार और धन्धा-रोजगार के संस्कार चित्त में घुस जायेंगे। 'जब तक जीना तब तक सीना।'जीवन का मंत्र बना लो इसे।
चार पैसे की खेतीवाला सारी जिन्दगी काम चालू रखता है, चार पैसे की दुकानवाला सारी जिन्दगी काम चालू रखता है, चार पैसे का व्यवहार सम्भालने के लिए आदमी सदा लगा ही रहता है। मर जाने वाले शरीर को भी कभी छुट्टी की ? श्वास लेने से कभी छुट्टी ली ? पानी पीने से छुट्टी की ? भोजन करने से छुट्टी की ? नहीं। तो भजन से छुट्टी क्यों ?
'जब तक जीना तब तक सीना.... जब तक जीना तब तक सीना।' यह मंत्र होना चाहिए जीवन का।
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