मासिक साधना उपयोगी तिथियाँ

व्रत त्योहार और महत्वपूर्ण तिथियाँ

25 फरवरी - माघी पूर्णिमा
03 मार्च - रविवारी सप्तमी (शाम 06:19 से 04 मार्च सूर्योदय तक )
06 मार्च -
व्यतिपात योग (दोपहर 14:58 से 07 मार्च दिन 12:02 मिनट तक)
08 मार्च - विजया एकादशी (यह त्रि स्पृशा एकादशी है )
09 मार्च - शनि प्रदोष व्रत
10 मार्च - महा शिवरात्री (निशीथ काल मध्यरात्री 12:24 से 01:13 तक )
11 मार्च - सोमवती अमावस्या (
सूर्योदय से रात्री 1:23 तक )
11 मार्च - द्वापर युगादी तिथि
14 मार्च - षडशीति संक्रांति (पुण्यकाल शाम 4:58 से
सूर्योदय तक)
19 मार्च - होलाष्टक प्रारम्भ
20 मार्च - बुधवारी अष्टमी (
सूर्योदय से दोपहर 12:12 तक)
23 मार्च - आमलकी एकादशी
24 मार्च - प्रदोष व्रत
26 मार्च - होलिका दहन
27 मार्च - धुलेंडी , चैतन्य महाप्रभु जयंती
29 मार्च - संत तुकाराम द्वितीय
30 मार्च - छत्रपति शिवाजी जयन्ती

गुरुवार, 15 सितंबर 2011

उनको मैं बुद्धियोग देता हूँ......


आदमी जितना-जितना परमात्मा-रस का अनुभव करता है उतना-उतना निर्मल होता है, बलवान होता है। संसार का ऐसा कोई भोग नहीं जो भोगने के बाद आदमी थके नहीं, भोगने के बाद आदमी मलिनता का अनुभव करे नहीं। भोजन में भी अगर मलिनता न होती तो भोजन के बाद हाथ-मुँह क्यों धोते ? ऐसा कोई भोग नहीं जिसमें मलिनता का मिश्रण न हो। योग ऐसा कि सारी मलिनताओं को हटा देता है।
हरिबाबा हो गये वृन्दावन में। वे प्रतिदिन तीन लाख भगवन्नाम जप करते थे। मंत्र जप पूरे होते, बाद में भिक्षा लेने जाते। कभी दोपहर के तीन बजे जाते, कभी चार बजे जाते, साढ़े चार बजे जाते। भिक्षा में जो कुछ बचा हुआ रूखा-सूखा मिल जाता, ठाकुर जी को भोग लगाकर पा लेते।
एक दिन उनको लगा कि ठाकुर जी कह रहे हैं-
"तुम एकदम रूखा-सूखा बेस्वाद भोग लगाते हो। कम से कम सबरस (नमक) तो उसमें डाला करो।"
बाबाजी ठाकुरजी पर नाराज हो गये कि आज आपको नमक खाने की इच्छा हुई ? तुम्हारे लिए नमक माँगू ? फिर कल बोलोगे कि सब्जी चाहिए.... परसों बोलोगे खीर चाहिए। ऐसे ठाकुरजी मुझे नहीं रखने हैं। उठाया ठाकुरजी को और दूसरे किसी बाबाजी के वहाँ दे आये। फिर आये अपनी कुटिया में। भजन करने बैठे। संयोगवशात् सामने बहती हुई यमुना नदी में एक नाव जा रही थी नमक भरके। अभी तो नहरें निकाली हैं इसलिए यमुना दुबली-पतली हो गयी है। उस वक्त बहुत पानी रहता था। नावें चलतीं थी उसमें। किसी कारणवशात् नाव डूबने लगी। नाववालों ने मनौती मानी की अगर हम लोग बच जायें, नाव डूबे नहीं, किनारे सुरक्षित पहुँच जायें तो नाव का माल-सामान दान कर देंगे। दैवयोग से नाव बच गई। उन्होंने सारे नमक का ढेर लगा दिया हरिबाबाजी की कुटिया के पास। बाबाजी बाहर निकले तो देखा सब तमाशा। ठाकुर जी को उलाहना देने लगे कि नमक खाने की इतनी इच्छा हुई कि किसी को प्रेरणा करके नमक का ढेर लगवा दिया ? ऐसे सबरस के प्यासे भगवान का भजन हम नहीं करते। अपनी झोंपड़ी छोड़कर बाबाजी चले गये एकान्त में गहरी साधना करने के लिए।
भगवान के सच्चे भक्तों को संसार का सुख लेने की तनिक भ्राँति भी बाँध नहीं सकती। मन ही ठाकुरजी का बहाना बनाकर बोलता है कि नमक लाओ, आज बाल-भोग लगाओ, आज मोहनथाल लाओ। वास्तव में ठाकुरजी मोहनथाल खाना नहीं चाहते, अपना मन ही ठाकुर जी के नाम से धोखा करता है। पुजारी बोलता है कि आज ठाकुरजी को खीर-पूरी अर्पण करना है, आज ठाकुरजी को घड़ी पहनना है, ठाकुरजी को पान-बीड़ा खाना है। सचमुच ठाकुरजी की भोग की इच्छा नहीं। हमारा अनियंत्रित मन युक्ति करके ठाकुर जी के नाम से भोग चाहता है। ऐसे ही भोग की इच्छा तृप्त करे इसके बजाय ठाकुरजी को भोग लगाकर करे यह भी चलो ठीक है। पान-बीड़ा खाना है तो ठाकुरजी को भोग लगाकर खाओ।

भगवान वेदव्यास ने तामसी और आसुरी स्वभाव के लोगों के लिए भी शास्त्रों की रचना की है। जिन लोगों को मांस-मदिरा के बिना नहीं चलता था ऐसे लोगों को थोड़ी छूट-छाट दी। अगर मांस खाना है तो पहले यज्ञ करो, देवी को बलि चढ़ाओ, बाद में खाओ। एकदम जो काट-काटकर खाते थे उसके बदले यज्ञ करेंगे, बलि देंगे फिर बाँटकर खाएँगे। उस खाने में विलम्ब होगा। जहाँ दस बकरे स्वाहा हो सकते थे उतने समय में एक ही बकरे तक पहुँचेंगे, नौ की हिंसा कम होगी।

जैसे बच्चा पाँच घण्टे बेकार भटकता है उसे बाप कहता हैः "बेटा देख ! तू हर रोज एक घण्टा सुबह और दो घण्टे शाम को घूमा कर। हर रोज तीन घण्टे। जो हर रोज पच्चीस रूपये बिगाड़ता है उसको कहाः "दो रूपये सुबह, तीन रूपये शाम को खर्च कर। हर रोज पाँच रूपये तेरी खर्ची बाँध देता हूँ।" बाप ऐसे बच्चे को भटकने के लिए प्रेरित नहीं करता है लेकिन उसकी भटकान को नियंत्रित करने से लिए प्रेरित करता है। ऐसे ही शास्त्रों में जो आदेश दिया है वह हमारे अनियंत्रित बेलगाम मन को युक्ति से नियंत्रण में लाने के लिए दिया है।

शास्त्रों ने बताया कि शादी-विवाह करना चाहिए। जीव में जन्मों-जन्मों से कामरस का आकर्षण है। इसी आकर्षण में ही जीवन बरबाद न हो जाय इसलिए काम को नियंत्रित करने के लिए एक ही व्यक्ति से शादी का आदेश दिया। जब तक शादी हो जाय तब तक चुप रहो। फिर एक पत्नी व्रत। पत्नी मायके चली जाय तब संयम से रहे। पत्नी का पैर भारी हो जाय तब संयम से रहे। पत्नी का स्वभाव गड़बड़ रहे तब तक संयम से रहे। इस प्रकार इन्द्रिय भोग से बचने के लिए शास्त्रों ने शादी-विवाह का आयोजन किया। 'भगवानों ने भी शादी की थी..... श्रीकृष्ण को भी राधा थी। शिवजी को भी पार्वती थी..... चलो हम भी अपनी पार्वती लायें। ऐसा तर्क देकर भोगी 'पार्वती' लाते हैं और पिक्चर में धक्का खाते हैं। भोग में डूबने के लिए शास्त्रों ने आज्ञा नहीं दी लेकिन भोग में डूबने की आदतवालों को भोग से थोड़ा-थोड़ा बचाकर योग के तरफ मोड़ने का प्रयास किया है। इसी सिद्धान्त पर वेदव्यासजी ने आसुरी, तामसी लोगों के लिए बनाये गये शास्त्रों में मांस-मदिरा आदि की थोड़ी छूट-छाट दी। नीति नियम बनाये।
नारदजी पहुँचे वेदव्यास के पास और बोलेः "भगवन् ! आपने शास्त्रों की रचना तो की, यज्ञ-होम-हवन के साथ अन्य चीजों की छूट-छाट तो दी लेकिन आपका संयम का हिस्सा वे लोग नहीं पढ़ेंगे, छूट-छाटवाला हिस्सा जल्दी से ले लेंगे। अपने मन के अनुकूल जो होगा वह झट से अमल में लायेंगे। शास्त्रों में कहा है कि बलि चढ़ाकर मांस खाओ।' खाने लगेंगे। शराब पीने लगेंगे।"

लोगों ने शिवजी को भाँग पीने वाले बना दिये हैं। 'शिवरात्री आयी। पियो भाँग। शिवजी की बूटी है।' अरे ! शिवजी के लिए तो कहा गया हैः भुवन भंग व्यसनम्। यानी 'भगवान शिव को भुवनों का भंग करने का व्यसन है।' लोगों ने अर्थ लगाया कि शिवजी को भाँग पीने का व्यसन है। 'शिवजी की बूटी' कहकर लोग भाँग पीने लग गये।

नारद जी ने वेदव्यास जी से कहाः "महाराज ! आपने अति तामस प्रकृति के लोगों को मोड़ने के लिए थोड़ी छूट-छाट दी है। वे मुड़ेंगे तब मुड़ेंगे लेकिन और लोग इसका गैर फायदा उठाकर गिर सकते हैं। इसलिए आप भागवत जैसे ग्रन्थ की रचना करो, जिसमें भीतर का रस मिलता जाय। उसमें भगवान की कथा-वार्ता-चर्चा हो, भगवन्नाम की महिमा हो, भगवान के गुणगान हों। इससे भगवान में प्रीति जगेगी। भगवान में प्रीति जगेगी तब विषयों की प्रीति हटेगी।"

कायदे-कानून में विषयों की प्रीति नहीं हटती। कायदे से अगर आदमी ईमानदार बन जाता तो आज नेताओं के नौकर और स्वयं नेता भी ईमानदार हो जाते। कायदे तो ठीक हैं, उद्दण्ड और उच्छ्रंखल लोगों के लिए कायदों की आवश्यकता है लेकिन आदमी भीतर से ही अच्छा हो तो ईमानदार बन सकता है कायदे से नहीं। किसी आदमी पर चार चौकीदार रख दो निगरानी रखने के लिए कि वह अच्छी तरह व्यवहार करे, अच्छा जिये। फिर भी वह आदमी अच्छा ही है इस बात में सन्देह होगा। क्योंकि वे चार लोग कैसी निगरानी रखते हैं यह भी देखना पड़ेगा। उनके ऊपर भी और कोई रखना पड़ेगा। वस्तुओं का शोधन, परिमार्जन, परिवर्धन करना यह विज्ञान है। अन्तःकरण का शोधन, परिमार्जन और परिवर्धन करना यह धर्म हैं। धर्म से वासनाएँ निवृत्त होती हैं। योग से मन एकाग्र होता है। ज्ञान से अज्ञान दूर होता है और भगवान अपनी कृपा से प्राप्त की प्राप्ति का अनुभव करा देते हैं। जो भगवान को प्रीति पूर्वक भजते हैं, भगवन्नाम का जप करते-करते ध्यानस्थ होते हैं उनकी बुद्धि में भगवान योग मिला देते हैं जिससे वह भक्त भगवान को प्राप्त कर लेता है।
ददामी बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते।
भगवान जीव पर प्रसन्न हो जाते हैं कि वह मुझे खोजता है। दया करके उसको बुद्धियोग दे देते हैं, जीव भगवान को पहचान लेता है। विषयों की खोज मिटाने के लिए धर्म की आवश्यकता है। फिर, विषयों के सुख के आकर्षण को मिटाने के लिए भक्तिरस की, योगरस की आवश्यकता है। भक्ति करेंगे, योग करेंगे तो भीतर का रस आयगा। भक्ति और योग छूट गये तो मन इधर-उधर चला जायेगा। इसलिये भगवान कहते हैं-
तेषां सततंयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्। ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते।।
'जो सतत प्रीतिपूर्वक मेरा भजन करते हैं उनको मैं बुद्धियोग देता हूँ....'

स्रोत:- आश्रम से प्रकाशित पुस्तक "मुक्ति का सहज मार्ग" से
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