कहते हैं कि सतयुग में वर्षों के पुण्यों से परमात्म प्राप्ति होती थी। द्वापर में यज्ञ से होती थी, ध्यान से होती थी। कलियुग के लिए कहा गया हैः
दानं केवलं कलियुगे।
अथवा
कलिजुग केवल हरि गुन गाहा।
गावत नर पावहिं भव थाहा।।
परंतु शास्त्र का कोई एक हिस्सा लेकर निर्णय नहीं लेना चाहिए। शास्त्र के तत्मत से वाकिफ होना चाहिए। यह भी शास्त्र ही कहता है कि
राम भगत जग चारि प्रकारा।
सुकृति चारिउ अनघ उदारा।।
चहू चतुर कहुँ नाम अधारा।
गयानी प्रभुहि बिसेषि पिआरा।।
(श्री राम चरित. बा. कां. 21.3 व 4)
राम के, परमात्मा के भक्त चार प्रकार के हैं। चारों भगवन्नाम का आधार लेते हैं, श्रेष्ठ हैं परंतु ज्ञानी तो प्रभु को विशेष प्यारा है।
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।
'इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निःसंदेह कुछ भी नहीं है।'
(गीताः 4.38)
दूसरे युगों में जप से, यज्ञ से परमात्म प्राप्ति होती थी तो श्रीकृष्ण ने अर्जुन को तत्त्वज्ञान का उपदेश क्यों दिया ? उद्धव को तत्त्वज्ञान क्यों दिया ?
जनसाधारण के लिए जप अपनी जगह पर ठीक है, हवन अपनी जगह पर ठीक है किंतु जिनके पास समझ है, बुद्धि है, वे अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार साधन करके पार हो जाते हैं। जनक अष्टावक्र से तत्त्वज्ञान सुनकर पार हो गये।
वह भी जमाना था कि लोग 12-12 वर्ष, 25-25 वर्ष जप तप करते थे, तब कहीं उनको सिद्धी मिलती थी पर कलियुग में सिद्धि जल्दी हो जाती है।
एक आदमी को पेट में कुछ दर्द हुआ। वह बड़ा सेठ था। वह वैद्य के पास दवा लेने गया। वैद्य ने देखा कि यह अमीर आदमी है, इसको सस्ती दवा काम में नहीं आयेगी।
वैद्य ने कहाः "ठहरो जरा ! दवा घोंटनी है, सुवर्णभस्म डालना है, बंगभस्म डालना है, थोड़ा समय लगेगा। बढ़िया दवा बना देता हूँ।"
काफी समय उसको रोका, बाद में दवा दी। उसने खायी और वह ठीक हो गया।
वैद्य ने पूछाः "अब कैसा है ?"
"अच्छा है... आराम हो गया। कितने पैसे ?"
"केवल ग्यारह सौ रूपये।"
सेठ ने दे दिये। वैसे का वैसा रोग एक गरीब को हुआ और वह भी उसी वैद्य के पास आया।
बोलाः "पेट दुःखता है।"
वैद्य ने नाड़ी देखकर कहाः "कोई चिंता की बात नहीं, यह लो पुड़िया। एक दोपहर को खाना, एक शाम को खाना, ठीक हो जायेगा।"
"कितने पैसे ?"
"पचास पैसे दे दो।"
उसने दे दिये। दो पुड़िया खाकर वह ठीक हो गया। मर्ज वही का वही, वैद्य भी वही का वही, लेकिन एक से ग्यारह सौ रूपये लिये और समय भी ज्यादा लगाया तो दूसरे से पचास पैसे लिए और तुरंत दवा दे दी। ऐसे ही वैद्यों का वैद्य परमात्मा वही का वही है। हमारे अज्ञान का मर्ज भी वही का वही है। पहले के जमाने में लोगों के पास इतना समय था, इतना शुद्ध घी, दूध था, इतनी शक्ति थी तो लम्बे-लम्बे उपचार करने के बाद उनका दर्द मिटता था। अभी वह दयालु भगवान कहता है कि आ जाओ भाई ! ले जाओ जल्दी जल्दी।
अष्टावक्र महाराज बोलते हैं कि 'श्रवण मात्रेण।' सुनते सुनते भी आत्मज्ञान हो सकता है। पहले कितना तप करने के बाद बुद्धि शुद्ध, स्थिर होती थी, वह अब तत्त्वज्ञान सुनते सुनते हो सकती है। ऐसा नहीं है कि केवल उस समय सतयुग था, अभी नहीं है। सत्त्वगुण में तुम्हारी वृत्ति है तो सतयुग है। रजोमिश्रित सत्त्वगुण में वृत्ति है तो त्रेतायुग है। तमोमिश्रित रजोगुण में वृत्ति है तो द्वापर है और तमोगुण में वृत्ति है तो कलियुग है।
सतयुग में भी कलियुग के आदमी थे। श्रीराम थे तब रावण भी था। श्रीकृष्ण थे तब कंस भी था। अच्छे युगों में सब अच्छे आदमी ही थे, ऐसी बात नहीं है। बुरे युग में सब बुरे आदमी हैं, ऐसी बात भी नहीं। अतः दैवी संपदा के जो सदगुण हैं- निर्भयता, अंतःकरण की सम्यक् शुद्धि, ज्ञान में स्थिति, स्वाध्याय, शुद्धि, सरलता, क्षमा आदि छब्बीस सदगुण अपने जीवन में लायें और आत्मवेत्ता महापुरुषों का संग करें तो कलियुग में शीघ्र परमात्म प्राप्ति हो जायेगी। दैवी सम्पदा के सदगुण अपने जीवन में लाने वाला आदमी धन ऐश्वर्य में आगे बढ़ाना चाहे तो बढ़ सकता है, यश-सामर्थ्य में चमकना चाहे तो भी चमक सकता है और भगवत्प्राप्ति करना चाहे तो भी कर सकता है।
स्रोतः लोक कल्याण सेतु, अक्तूबर 2010, पृष्ठ संख्या 3,4 अंक 160
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