मुस्कुराकर गम का जहर जिनको पीना आ गया।
यह हकीकत है कि जहाँ में उनको जीना आ गया।।
सुख और दुःख हमारे जीवन के विकास के लिए नितान्त आवश्यक है। चलने के लिए दायाँ और बायाँ पैर जरूरी है, काम करने के लिए दायाँ और बायाँ हाथ जरूरी है, चबाने के लिए ऊपर का और नीचे का जबड़ा जरूरी है वैसे ही जीवन की उड़ान के लिए सुख व दुःखरूपी दो पंख जरूरी हैं। सुख-दुःख का उपयोग हम नहीं कर पाते, सुख-दुःख से प्रभावित हो जाते हैं तो जीवन पर आत्मविमुख होकर स्थूल-सूक्ष्म-कारण शरीर से बँधे ही रह जाते हैं। अपने मुक्त स्वभाव का पता नहीं चलता। इसलिए रोटी की जितनी जरूरत है, कपड़ों की जितनी जरूरत है, मकान की जितनी जरूरत है उससे हजार गुनी ज्यादा जरूरत है सच्ची समझ की। सच्ची समझ के बिना हमारा जीवन सुख का और दुःखों का शिकार हुआ जा रहा है। लोग बोलते हैं-
'बापू ! बेटा नहीं है इसलिए दुःख हो रहा है। रोना आता है....!'
किसी का बेटा नहीं है तो दुःख हो रहा है, किसी को पति नहीं है, पत्नी नहीं है, मकान नहीं है तो दुःख हो रहा है लेकिन जिनके आगे हजारों बेटों की, हजारों पतियों की, हजारों पत्नियों की, हजारों मकानों की, हजारों दुकानों की कोई कीमत नहीं है ऐसे परमात्मा हमारे साथ हैं, भीतर हैं फिर भी आज तक उनकी पहचान नहीं हुई इस बात का दुःख नहीं होता। आनंदस्वरूप अन्तर्यामी परमात्मा का अनुभव नहीं होता इसके लिए रोना नहीं आता।
जो आदमी जितना सुख चाहता है, जितनी तीव्रता से चाहता है उतना दुःखी होता है। दुःख का सदुपयोग करने की कला नहीं आयी तो कमजोर होता है। फिर देवी देवताओं को मनाता है, मंदिरों में दौड़ता है, मस्जिदों में दौड़ता है, गिरजाघरों में गिड़गिड़ाता है। मंदिर मस्जिद में जाने का फल यही है कि कोई आपके दिल का मन्दिर खोल दे, आपके हृदय का द्वार खटखटा दे, आपके भीतर छुपी हुई अथाह शक्ति का दीदार आपको करा दे। फिर बारहों मेघ गर्जें, प्रलयकाल के सूर्य तपें, आपका बाल बाँका नहीं होगा। आप ऐसी चीज हैं आपको पता नहीं। पूरी सृष्टि का प्रलय हो जाय तब भी आपका कुछ नहीं बिगड़ता। सारी दुनिया के लोग आपके विरोध में खड़े हो जाएँ, सारे देवी देवता कोपायमान हो जायें फिर भी आपका कुछ नहीं बिगड़ सकता ऐसी महान् विभूति आप हैं, लेकिन...? आपको पता नहीं।
वेदान्त की बात आपके अनुभव में आने से सारे दुःख ओस की बूँद की तरह लुप्त हो जायेंगे। मैं नितान्त सत्य कह रहा हूँ। यह बात समझने से ही परम कल्याण होगा।
अपनी समझ जब तक इन्सान को आती नहीं।
दिल की परेशानी तब तक जाती नहीं।।
......तो कृपानाथ ! अपने ऊपर कृपा करो। सुख का भी सदुपयोग और दुःख का भी सदुपयोग। सुख-दुःख आपके दास हो जायें। आप उनके स्वामी हो जाओ। फिर, आप कौन हो यह जानने की जिज्ञासा जागृत होगी। जीवन की जिज्ञासा में जीवन के कल्याण के बीज निहित हैं। कल्याण भी ऐसा किः
रिद्धिसिद्धि जाँ के आगे हाथ जोड़ खड़ी है।
सुन्दर कहत ताँ के सब ही गुलाम हैं।।
मनुष्य के पास क्या नहीं है? उसके पास क्या क्या है यह प्रश्न नहीं है। अपितु उसके पास क्या नहीं है यह प्रश्न है। आपको लगेगा कि अपने पास बँगला नहीं है, गाड़ी नहीं है, फ्रिज नहीं है। अरे खाक! अभी आपने अपना आपा देखा ही कहा हैं? अपने मन से जरा ऊपर उठो, अपने आत्म-सिंहासन पर जा बैठो तो पता चले असलियत का।
....और जिनके पास बँगला है, गाड़ी है, फ्रिज है उनको पूछोः 'क्या हाल है? सुखी हो?' रोज के चालीस-पचास हजार रूपये कमाने वाले लोगों को मैं जानता हूँ और रोज के तीस रूपये लाने वाले लोगों को भी मैं जानता हूँ। दोनों रोटी खाते हैं। दोनों को मरते देखा है और दोनों की राख एक जैसी। फर्क क्या पड़ा?
मेरा कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि तीस रूपये कमाने वाला अच्छा है और पचास हजार रूपये कमाने वाला बुरा है। मैं यह कहना चाहता हूँ कि दोनों ने अपने आपसे अन्याय कर लिया। एक दुःख में फँसा तो दूसरा सुख में बँधा। दोनों बन्धन बनाकर चले गये, बन्धन काटे नहीं। जीवन की जिज्ञासा खुली नहीं, अपनी महानता के द्वार पर पहुँचे नहीं। दिव्यता का ताला खुला नहीं।
अज्ञानी के रूप में जन्म लेना कोई पाप नहीं, मूर्ख के रूप में पैदा होना कोई पाप नहीं लेकिन मूर्ख बने रहकर सुख-दुःख की थप्पड़े खाना और जीर्ण-शीर्ण होकर मर जाना महा पाप है।
जो चीज मिलती है उसका सदुपयोग नहीं होता तो दुबारा वह चीज नहीं मिलती। मानव देह मिली, बुद्धि मिली और उसका सदुपयोग नहीं किया, सुख-दुःख की लपटों में स्वाहा हो गये तो दुबारा मानव देह नहीं मिलेगी। इसीलिए तुलसीदास जी कहते हैं-
जौ न तरै भवसागर नर समाज अस पाई।
सो कृत निन्दक मन्दमति आतमहन अधोगति जाई।
मानव तन पाकर जो भवसागर नहीं तरता वह क्या कुत्ता होकर तरेगा? बिल्ला होकर तरेगा? गधा होकर तरेगा कि घोड़ा होकर तरेगा? इन योनियों में तो डण्डे ही खाने हैं। घोड़ा बन गये। दिन भर गाड़ी खींची। रात को गाड़ीवान् ने पौवा (दारू) पी लिया, नशा कर लिया। चारा-पानी देना भूल गया। नशे में चूर होकर पड़ा रहा। आप सारी रात तड़पते रहे बिना चारा-पानी के। कई रातें ऐसी गुजरती हैं। तब किसको शिकायत करेंगे? कौन हमें सुनेगा? किसको डाँटेगे? मूक होकर सहन करना ही पड़ेगा। रात को भूखामरी हुई, जन्तु काटे, दिन को कौओं की चोंचें खाओ, गाड़ीवान् के चाबुक खाओ और गाड़ी खींचो। ऐसी एक नहीं 84 लाख योनियाँ हैं। कभी पौधे बन गये। माली ने पानी नहीं दिया तो सूख रहे हैं। बरसाती पौधे बने। वर्षा ऋतु गई तो मुरझा रहे हैं तब क्या करेंगे?
इसलिए सावधान हो जाओ। अपने ऊपर कृपा करो। भोजन मिले न मिले, पानी मिले न मिले, कपड़े मिले न मिले लेकिन जीवन में अच्छी समझ अवश्य मिलनी चाहिये। अच्छी समझ का उपयोग करने का उत्साह अवश्य होना चाहिए। अगर वह उत्साह आपमें नहीं होगा तो भगवान आपका कितना भी मंगल चाहें, सत्पुरुष आपका कितना भी कल्याण चाहें लेकिन आपके उत्साह के बिना वे लाचार हो जाते हैं आपको ऊपर उठाने में। बरसात कितनी भी हो, सूर्य के किरण कितने भी पड़ें लेकिन खेती करने की तड़प आप में नहीं है तो क्या होगा? धूप व पानी व्यर्थ चले जायेंगे। ऐसे ही शास्त्रकृपा करके अपनी जीवन की खेती में साधना की बुआई नहीं करोगे तो क्या होगा?
स्रोत्र: - आश्रम से प्रकाशित पुस्तक "अलख की ओर" से
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यह हकीकत है कि जहाँ में उनको जीना आ गया।।
सुख और दुःख हमारे जीवन के विकास के लिए नितान्त आवश्यक है। चलने के लिए दायाँ और बायाँ पैर जरूरी है, काम करने के लिए दायाँ और बायाँ हाथ जरूरी है, चबाने के लिए ऊपर का और नीचे का जबड़ा जरूरी है वैसे ही जीवन की उड़ान के लिए सुख व दुःखरूपी दो पंख जरूरी हैं। सुख-दुःख का उपयोग हम नहीं कर पाते, सुख-दुःख से प्रभावित हो जाते हैं तो जीवन पर आत्मविमुख होकर स्थूल-सूक्ष्म-कारण शरीर से बँधे ही रह जाते हैं। अपने मुक्त स्वभाव का पता नहीं चलता। इसलिए रोटी की जितनी जरूरत है, कपड़ों की जितनी जरूरत है, मकान की जितनी जरूरत है उससे हजार गुनी ज्यादा जरूरत है सच्ची समझ की। सच्ची समझ के बिना हमारा जीवन सुख का और दुःखों का शिकार हुआ जा रहा है। लोग बोलते हैं-
'बापू ! बेटा नहीं है इसलिए दुःख हो रहा है। रोना आता है....!'
किसी का बेटा नहीं है तो दुःख हो रहा है, किसी को पति नहीं है, पत्नी नहीं है, मकान नहीं है तो दुःख हो रहा है लेकिन जिनके आगे हजारों बेटों की, हजारों पतियों की, हजारों पत्नियों की, हजारों मकानों की, हजारों दुकानों की कोई कीमत नहीं है ऐसे परमात्मा हमारे साथ हैं, भीतर हैं फिर भी आज तक उनकी पहचान नहीं हुई इस बात का दुःख नहीं होता। आनंदस्वरूप अन्तर्यामी परमात्मा का अनुभव नहीं होता इसके लिए रोना नहीं आता।
जो आदमी जितना सुख चाहता है, जितनी तीव्रता से चाहता है उतना दुःखी होता है। दुःख का सदुपयोग करने की कला नहीं आयी तो कमजोर होता है। फिर देवी देवताओं को मनाता है, मंदिरों में दौड़ता है, मस्जिदों में दौड़ता है, गिरजाघरों में गिड़गिड़ाता है। मंदिर मस्जिद में जाने का फल यही है कि कोई आपके दिल का मन्दिर खोल दे, आपके हृदय का द्वार खटखटा दे, आपके भीतर छुपी हुई अथाह शक्ति का दीदार आपको करा दे। फिर बारहों मेघ गर्जें, प्रलयकाल के सूर्य तपें, आपका बाल बाँका नहीं होगा। आप ऐसी चीज हैं आपको पता नहीं। पूरी सृष्टि का प्रलय हो जाय तब भी आपका कुछ नहीं बिगड़ता। सारी दुनिया के लोग आपके विरोध में खड़े हो जाएँ, सारे देवी देवता कोपायमान हो जायें फिर भी आपका कुछ नहीं बिगड़ सकता ऐसी महान् विभूति आप हैं, लेकिन...? आपको पता नहीं।
वेदान्त की बात आपके अनुभव में आने से सारे दुःख ओस की बूँद की तरह लुप्त हो जायेंगे। मैं नितान्त सत्य कह रहा हूँ। यह बात समझने से ही परम कल्याण होगा।
अपनी समझ जब तक इन्सान को आती नहीं।
दिल की परेशानी तब तक जाती नहीं।।
......तो कृपानाथ ! अपने ऊपर कृपा करो। सुख का भी सदुपयोग और दुःख का भी सदुपयोग। सुख-दुःख आपके दास हो जायें। आप उनके स्वामी हो जाओ। फिर, आप कौन हो यह जानने की जिज्ञासा जागृत होगी। जीवन की जिज्ञासा में जीवन के कल्याण के बीज निहित हैं। कल्याण भी ऐसा किः
रिद्धिसिद्धि जाँ के आगे हाथ जोड़ खड़ी है।
सुन्दर कहत ताँ के सब ही गुलाम हैं।।
मनुष्य के पास क्या नहीं है? उसके पास क्या क्या है यह प्रश्न नहीं है। अपितु उसके पास क्या नहीं है यह प्रश्न है। आपको लगेगा कि अपने पास बँगला नहीं है, गाड़ी नहीं है, फ्रिज नहीं है। अरे खाक! अभी आपने अपना आपा देखा ही कहा हैं? अपने मन से जरा ऊपर उठो, अपने आत्म-सिंहासन पर जा बैठो तो पता चले असलियत का।
....और जिनके पास बँगला है, गाड़ी है, फ्रिज है उनको पूछोः 'क्या हाल है? सुखी हो?' रोज के चालीस-पचास हजार रूपये कमाने वाले लोगों को मैं जानता हूँ और रोज के तीस रूपये लाने वाले लोगों को भी मैं जानता हूँ। दोनों रोटी खाते हैं। दोनों को मरते देखा है और दोनों की राख एक जैसी। फर्क क्या पड़ा?
मेरा कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि तीस रूपये कमाने वाला अच्छा है और पचास हजार रूपये कमाने वाला बुरा है। मैं यह कहना चाहता हूँ कि दोनों ने अपने आपसे अन्याय कर लिया। एक दुःख में फँसा तो दूसरा सुख में बँधा। दोनों बन्धन बनाकर चले गये, बन्धन काटे नहीं। जीवन की जिज्ञासा खुली नहीं, अपनी महानता के द्वार पर पहुँचे नहीं। दिव्यता का ताला खुला नहीं।
अज्ञानी के रूप में जन्म लेना कोई पाप नहीं, मूर्ख के रूप में पैदा होना कोई पाप नहीं लेकिन मूर्ख बने रहकर सुख-दुःख की थप्पड़े खाना और जीर्ण-शीर्ण होकर मर जाना महा पाप है।
जो चीज मिलती है उसका सदुपयोग नहीं होता तो दुबारा वह चीज नहीं मिलती। मानव देह मिली, बुद्धि मिली और उसका सदुपयोग नहीं किया, सुख-दुःख की लपटों में स्वाहा हो गये तो दुबारा मानव देह नहीं मिलेगी। इसीलिए तुलसीदास जी कहते हैं-
जौ न तरै भवसागर नर समाज अस पाई।
सो कृत निन्दक मन्दमति आतमहन अधोगति जाई।
मानव तन पाकर जो भवसागर नहीं तरता वह क्या कुत्ता होकर तरेगा? बिल्ला होकर तरेगा? गधा होकर तरेगा कि घोड़ा होकर तरेगा? इन योनियों में तो डण्डे ही खाने हैं। घोड़ा बन गये। दिन भर गाड़ी खींची। रात को गाड़ीवान् ने पौवा (दारू) पी लिया, नशा कर लिया। चारा-पानी देना भूल गया। नशे में चूर होकर पड़ा रहा। आप सारी रात तड़पते रहे बिना चारा-पानी के। कई रातें ऐसी गुजरती हैं। तब किसको शिकायत करेंगे? कौन हमें सुनेगा? किसको डाँटेगे? मूक होकर सहन करना ही पड़ेगा। रात को भूखामरी हुई, जन्तु काटे, दिन को कौओं की चोंचें खाओ, गाड़ीवान् के चाबुक खाओ और गाड़ी खींचो। ऐसी एक नहीं 84 लाख योनियाँ हैं। कभी पौधे बन गये। माली ने पानी नहीं दिया तो सूख रहे हैं। बरसाती पौधे बने। वर्षा ऋतु गई तो मुरझा रहे हैं तब क्या करेंगे?
इसलिए सावधान हो जाओ। अपने ऊपर कृपा करो। भोजन मिले न मिले, पानी मिले न मिले, कपड़े मिले न मिले लेकिन जीवन में अच्छी समझ अवश्य मिलनी चाहिये। अच्छी समझ का उपयोग करने का उत्साह अवश्य होना चाहिए। अगर वह उत्साह आपमें नहीं होगा तो भगवान आपका कितना भी मंगल चाहें, सत्पुरुष आपका कितना भी कल्याण चाहें लेकिन आपके उत्साह के बिना वे लाचार हो जाते हैं आपको ऊपर उठाने में। बरसात कितनी भी हो, सूर्य के किरण कितने भी पड़ें लेकिन खेती करने की तड़प आप में नहीं है तो क्या होगा? धूप व पानी व्यर्थ चले जायेंगे। ऐसे ही शास्त्रकृपा करके अपनी जीवन की खेती में साधना की बुआई नहीं करोगे तो क्या होगा?
स्रोत्र: - आश्रम से प्रकाशित पुस्तक "अलख की ओर" से
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