परमात्मा को छोड़कर जो विषयों का चिन्तन करते हैं उनके बड़े दुर्भाग्य हैं। विष में और विषय में अन्तर है। विष का चिन्तन करने से मौत नहीं होती, विष का चिन्तन करने से पतन नहीं होता, विष जिस बोतल में रहता है उस बोतल का नाश नहीं करता लेकिन विषय जिस चित्त में रहता है उसको बरबाद करता है, विषय का चिन्तन करने मात्र से पतन होता है, साधना की मौत होती है। विषय इस जीव के लिए इतने दुःखद हैं कि समुद्र में डूबना पड़े तो डूब जाना, आग में कूदना पड़े तो कूद पड़ना, विषधर को आलिंगन करना पड़े तो कर लेना लेकिन लीलाशाह बापू जैसे महापुरुष कहते हैं किः "भाइयों ! अपने को विषयों में मत गिरने देना। आग में कूदोगे तो एक बार ही मृत्यु होगी, समुद्र में डूबोगे तो एक बार ही मृत्यु होगी लेकिन विषयों में डूबे तो न जाने कितनी बार मृत्यु होगी इसका कोई हिसाब नहीं।"
शाम को सरिता के किनारे शांत वातावरण में बैठे थे साधकों के बीच। सत्सग शुरु ही हो रहा था कि एक कौवा मेंढक को चोंच में पकड़कर उड़ा। मेंढक का क्या करुण क्रन्दन था। ट्रें... ट्रें... ट्रें....। कौवे ने उसे चोंच में बुरी तरह दबाया था। मैंने साधकों से कहाः यह मेंढक भी कभी मनुष्य बना होगा। इसके भी कहीं पत्नी, पुत्र, परिवार, धन, सत्ता, साम्राज्य... कुछ-न-कुछ डिमडिम अपने ढंग का रहा ही होगा। वह सारा डिमडिम आज उसको कौवे की चोंच से नहीं छुड़ा सकता है। हाय रे विधि तेरी लीला ! हाय रे प्रारब्ध ! हाय रे जीव तेरी बेवकूफी ! तू मनुष्य बना था उस समय परमात्मा का चिन्तन करके बच जाता जन्म मरण के चक्र से। आज कौवे की चोंच से अपने को नहीं छुड़ा सकता है। उस मेंढक को हम भी नहीं छुड़ा पाये। कौवा तो उसको लेकर उड़ गया। हम कौवों के पीछे कितना भागेंगे? कौवा उसे छोड़ भी देता तो वह तड़प-तड़पकर मरता अथवा दूसरे कौवे पकड़ लेते।
ऐसी वैराग्य जगानेवाली घटनाएँ तो प्रतिदिन, प्रतिक्षण घटती रहती हैं लेकिन हमारा चित्त विषयों से इतना आक्रान्त कर देते हैं। कई लोग अर्थी को देखकर बोल पड़ते हैं- 'हाय ! बेचारा मर गया।' समझते नहीं कि अपने को भी मर जाना है यार ! जगते नहीं और उसी विषय-सेवन की पुरानी पटरियों पर जीवन की गाड़ी दौड़ाये जा रहे हैं।
भोजू कुल्फी बेचने का धन्धा करता था। बड़ा लोभी था। कभी धन्धे से छुट्टी नहीं करता था। कुल्फी का डिब्बा कन्धे पर उठाता और चिल्लाताः "कुल्फी.... मावेवाली ठण्डी मीठी कुल्फी....!" वह न कभी रविवार देखता न एकादशी देखता, न पूर्णिमा देखता न अमावस्या देखता। सोचता दौ पैसे मिलेंग, अपने काम में आयेंगे। उस नादान को पता नहीं था कि रूपये काम नहीं आते, तेरा परमात्म-चिन्तन काम आयेगा। परमात्म-चिन्तन यदि दृढ़ है तो पैसे उसके दासों के भी दास हैं। एक बार भोजू के पड़ोस में किसी की मृत्यु हुई। पत्नी ने लोभी भोजू को खूब समझा-बुझाकर छुट्टी करवाई। भोजू स्मशान-यात्रा में शामिल हुआ। उसके कन्धे पर अर्थी आते ही वह चिल्ला उठाः "कुल्फी..... मावेवाली ठण्डी मीठी कुल्फी....."
पासवाले ने उसे हिलाया कि यह क्या बोल रहे हो पागल? चित्त की गहराई में जो चिन्तन होता है वही उभर आता है।
राजा भोज के दरबार में एक धुरन्धर विद्वान आया। वह हर भाषा इतनी सफाई से बोल सकता था मानों वह उसकी मातृभाषा ही हो। उसकी असल मातृभाषा कौन-सी है यह बता पाना कठिन था। उसने राजदरबार में चुनौतीपूर्ण घोषणा कर दी कि जो विद्वान मेरी मातृभाषा बता देगा उसे मैं लाख रूपये इनाम दूँगा, अन्यथा प्रतिदिन राज्य की ओर से मुझे लाख रुपये मिलते रहें। राजा भोज विद्वानों की कद्र करता था। उस विद्वान की शर्त मान ली गई। लेकिन दरबार का कोई विद्वान तय नहीं कर पाया कि उसकी मातृभाषा कौन-सी है। राजदरबार हार गया। वह विद्वान लाख रुपये लेकर चलता गया। दूसरे तीसरे और चौथे दिन भी यही हुआ। राज्य के रूपये तो जा रहे थे, साथ में राजदरबार की प्रतिष्ठा भंग हो रही थी।
आखिर कालिदास के पास बात पहुँची। वे बोलेः अच्छा ! मैं उसकी मातृभाषा का पता लगा दूँगा।" उस दिन भी वह विद्वान लाख रूपये जीतकर दरबार से जाने लगा तो बाहर सीढियाँ उतरते समय कालिदास ने उसके घुटनों पर प्रहार किया। वह लड़खड़ाकर गिर पड़ा। आगबबूला होकर गिरते-गिरते अपनी मातृभाषा में चिल्लाया, बड़बड़ाया। कालिदास उसके पास बैठ गये। उसके घुटने दबाते हुए बोलेः ''क्षमा करना, आपकी मातृभाषा फलानी है। और कोई उपाय न था यह जानने का। इसलिए यह धृष्टता की है। क्षमा करना, मैं आपके पैर को चंपी कर देता हूँ।"
आपके अचेतन मन में क्या छुपा है, ऐन मौके पर उसका पता चल जाता है। जब एकदम कोई मुसीबत आती है तब 'हाय....!' निकलती है कि 'हरि....' निकलता है यह देखना जरा। ठोकर लगती है, चोट लगती है तब डॉक्टर याद आता है कि अपना सच्चिदानन्दस्वरूप याद आता है? 'ठोकर भी मैं हूँ, ठोकर खाने वाला भी मैं हूँ और ठोकर को देखने वाला भी मैं हूँ.... शिवोऽहम्... ऐसा निकलता है कि और कोई कचरा निकलता है? यदि कचरा निकलता है जल्दी से नदी में डाल देना, बहा देना।
आकार में निराकार दिखता है कि निराकार में आकार दिखता है? आकृति में सत्यता दिखती है कि आकृति में विकृति दिखती है यह जरा अपने भीतर निहारना। गहरा चिन्तन करना। आप गायत्री मंत्र का जप करते हैं तो कोई सासांरिक चीजें माँगते हैं कि बुद्धि पवित्र हो ऐसी प्रार्थना करते हैं? पवित्र बुद्धि में ही आत्म-साक्षात्कार की क्षमता आती है।
स्रोत्र: - आश्रम से प्रकाशित पुस्तक "अलख की ओर" से
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