न गुरोरधिकं तत्त्वं न गुरोरधिकं तपः।
न गुरोरधिकं ज्ञानं तस्मै श्रीगुरवे नमः।।
'आत्मवेत्ता गुरु से श्रेष्ठ कोई तत्त्व नहीं है, गुरु से अधिक कोई तप नहीं है और गुरु से विशेष कोई ज्ञान नहीं है। ऐसे श्री गुरुदेव को मेरा नमस्कार है।'
गुरुतत्त्व में जगे हुए महापुरुष परमात्मा का प्रकट रूप होते हैं। अंतर्यामी परमात्मा के अंतर्यामित्व का दर्शन करना हो तो ऐसे महापुरुषों के जीवन में ही उसे देख सकते हैं। एक तेजस्वी महापुरुष किसी जंगल में एकांतवास के लिए ठहरे हुए थे। तब एक मुसलमान माली उन्हें रोज देखता था। उनके असाधारण व्यक्तित्व से प्रभावित होकर माली के मन में होता कि 'इन साधु को कुछ खिलाऊँ।' परंतु मन ही मन शंका होती कि क्या पता, ये हिन्दू साधु मुसलमान के हाथ का कुछ खायेंगे कि नहीं !' इस प्रकार कितने ही दिन बीत गये।
एक दिन वह मूली धो रहा था। इतने में तो वे साधु उसके आगे आकर खड़े हो गये और बोलेः "जो खिलाना हो, खिला। रोज-रोज सोचता रहता है तो आज अपनी इच्छा पूरी कर।"
वह मुसलमान माली तो आश्चर्यचकित हो उठा कि 'इन साधु को मेरे मन की बात का पता कैसे चला !' वह तो उन महापुरुष के श्रीचरणों में मस्तक नवाकर कहने लगाः "सचमुच, आप नूरे इलाही हो ! आप शाहों के शाह हो ! मुझे दुआ करो।" ऐसा कहकर उसने बड़ी श्रद्धा और भावपूर्ण हृदय से दो मूली साफ करके, धोकर महाराज को दीं। संत श्री ने भी बड़े प्रेम से उन मूलियों को खाया। वह दृश्य देखने वालों को तो भगवान श्रीरामजी और शबरी भीलन के बेरों की याद आ गयी।
जानते हैं, वे अंतर्यामी, आत्मारामी स्वामी कौन थे ? वे थे भक्तवत्सल योगिराज स्वामी श्री श्री लीलाशाहजी महाराज !
(भगवत्पाद स्वामी श्री श्री लीलाशाहजी महाराज महानिर्वाण तिथिः 15 नवम्बर)
यदि वह संकल्प चलाये....
संसार-ताप से तप्त जीवों में शांति का संचार करने वाले, अनादिकाल से अज्ञान के गहन अन्धकार में भटकते हुए जीवों को ज्ञान का प्रकाश देकर सही दिशा बताने वाले, परमात्म-प्राप्तिरूपी मंजिल को तय करने के लिये समय-समय पर योग्य मार्गदर्शन देते हुए परम लक्ष्य तक ले जाने वाले सर्वहित चिंतक ब्रह्मवेत्ता महापुरुषों की महिमा अवर्णनीय है।
वे महापुरुष केवल दिशा ही नहीं बताते वरन् चलने के लिए पगडंडी भी बना देते हैं, चलना भी सिखाते हैं, उंगली भी पकड़ाते हैं। जैसे माता पिता अपने बालक को कंधे पर उठाकर यात्रा पूरी करवाते हैं, वैसे ही वे कृपालु महापुरुष हमारी आध्यात्मिक यात्रा को पूर्ण कर देते हैं। भगवत्पाद स्वामी श्री लीलाशाह जी महाराज के जीवन की एक कृपापूर्ण घटना इस प्रकार हैः
स्वामी लीलाशाहजी ने स्वामी राम अवतार शुक्ला के गीता-व्याख्यान की बड़ी प्रशंसा सुनी थी। अतः एक दिन वे उनसे मिलने उनके घर चल दिये। स्वामी राम अवतार जी की आयु 75 वर्ष के आसपास थी और उस दिन वे इस दुनिया से विदा लेने की तैयारी में थे। कुछ डॉक्टरों ने जवाब दे दिया था तो कुछ उस समय वहाँ मौजूद थे। स्वामी जी उनके सम्मुख खड़े होकर कहने लगेः "राम अवतारजी ! मैं इस विचार से आया हूँ कि आपके मुखारविंद से श्रीमद् भगवदगीता सुनूँ।"
उनकी नाजुक हालत देखकर स्वामी जी ने उनके परिवारवालों से कहाः "इन्हें एक गिलास पानी में नींबू का रस व शहद मिलाकर पिलाओ, ठीक हो जायेंगे।"
वहाँ पर खड़े डॉक्टरों ने कहाः "इनका अंतिम समय आ चुका है, नींबू शहद का पानी पीने से तो ये और जल्दी दुनिया से चले जायेंगे।"
राम अवतार जी ने धीरे से कहाः
"ठीक है, पिलाओ।"
लीलाशाहजी महाराज ने कमण्डलु से थोड़ा जल हाथ में लिया, उसमें निराहार संकल्प करके दे दिया। पानी में नींबू-शहद मिलाकर पिलाया गया। स्वामी जी ने चलते चलते राम अवतार जी से कहाः "परसों सुबह मेरे पास आना।" और आश्चर्य ! वे कुछ ही घंटों में एकदम ठीक हो गये।
संत जब अपने ब्रह्मस्वभाव में स्थित होकर कुछ कह दें तो वह बाह्यदृष्टि से विपरीत परिणामवाला होने पर भी श्रद्धावान के लिए अनुकूल हो जाता है। आज्ञानुसार राम अवतारजी श्रीचरणों में पहुँचे और स्वामी जदी को अष्टांग प्रणाम करके गीता पर व्याख्यान किया। उस दिन से राम अवतार जी प्रतिदिन नियम से पूज्यपाद स्वामी श्रीलीलाशाहजी महाराज को श्रीमद भगवदगीता सुनाने आते थे।
ब्रह्मनिष्ठा प्राप्त करने के बाद संतों को शास्त्र पढ़ने-सुनने की आवश्यकता ही नहीं होती। वे जो बोलते हैं, वह शास्त्र बन जाता है। फिर भी दूसरों के कल्याण के निमित्त जो घटना घटती ह, वह उनकी लीला होती है। फिर चाहे वह लीला सत्संग सुनने की हो या सुनाने की हो, मौज है उनकी ! माता पिता की तरह कदम-कदम पर हमारी सँभाल रखने वाले, सर्वहितचिंतक, समता के सिंहासन पर बैठाने वाले ऐसे परम दयालु ब्रह्मनिष्ठ महापुरुषों को कोटि-कोटि वंदन....
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2010, पृष्ठ संख्या 14,15,17 अंक 214
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