भक्ति में बाधक ६ दोष और भक्ति में वर्धक ६ गुण
भक्ति में ६ दोष बाधक है, इनसे भक्ति में बाधा हो जाती हैं। इन ६ से बचना, आप भी बचों मैं भी बचु, तो हमारी भक्ति में खूब-खूब बरकत आयेगी।
१. अधिक आहार - अधिक खाओ नही भले ही कितना भी स्वादिष्ट हों तू जा दूसरा आओ चलो खा लो, नही-नही, स्वाद का ख्याल करके नही, स्वास्थ्य का ख्याल करके खाये, तो अधिक आहार से बचना। अधिक आहार का एक अर्थ ये भी होगा कि अधिक संग्रह, पैसा-पैसा-पैसा कितना भी इकट्ठा कर ले मरेगा तो, इसलिये मै भी भूखा न रहु साधू भी भूखा न जाय। तो अधिक आहार भक्ति में बाधक हैं।
२. भक्ति के प्रतिकूल चेष्टा - हम एक तरफ़ तो चाहते है कि इसी जन्म में हमें ईश्वर का साक्षात्कार हो जाये और एक तरफ़ हम थोडे समय तक टिकने वाले सुख की इच्छा करते हुये भटकते रहें या उसी की ईच्छा मन में करते रहें क्षणिक सुख की तो ये भक्ति में बाधक तत्व है दूसरा......
३. अपने नियम में आग्रहपूर्वक की दृढ़्ता - ये भक्ति में बाधक तीसरा तत्व हैं। जड़ होकर माला घुमा देते है। जड़ होकर पाठ कर लेते है। जड़्ता पूर्वक खाली एकादशी का व्रत किया, एकादशी का संकेत तो समझे पहले। खाली निराहार जो रहते है उनको मैनें देखा है कि एकादशी से पहले रात को खूब भारी खुराक खा लेंगे। लडडू, सुखडी, मालपुये, खीर, रबडी.... बोले कल एकादशी हैं और फिर कई लोग तो एकादशी की रात को १२:३० बजे और खा लेते है, एकादशी पूरी हो गई बोले १२:०० बज गये ना.... दूसरा दिन शुरु हो गया। तो ध्यान रहे कि अपने नियम में आग्रहपूर्वक की दृढ़्ता नही प्रेमपूर्वक की दृढ़्ता। आग्रहपूर्वक की दृढ़्ता ये भक्ति में बाधक है।
४. विषयी लोगों का संग - जिनकी भक्ति में रुचि नही है, भोगों में रुचि हैं ऐसे लोगों का संग भक्ति में बाधक हैं।
५. मन में रहा हुआ राग - किसी व्यक्ति के लिये या किसी वस्तु के लिये मन में रहा हुआ राग ये भक्ति में बाधक हैं। इससे मन चंचल हो जाता हैं। लोग कहते है कि मेरे मन की चंचलता कैसे मिटे ?.... हकीकत में मन में रहा हुआ राग मिट जाये तो चंचलता मिटाने का सवाल ही नही रहेगा। फिर आप हम बैठेंगें तो गहराई में चले जायेंगें। आपको बोलने की ईच्छा नही होगी। आँख खोलने की ईच्छा नही होगी। न बोलने की, न आँख खोलने की... शान्ति का संपादन सहज में होगा। जो साधना के शिखर हमसे अनछुये रह गये वो हम छूने लगेंगे। जिस गहराई का हमको पता नही चल पाया उसका पता चलने लगेगा और जीवन में से दुःख मिटने लगेंगे और हमारी जब विदा होगी शरीर से इस संसार से तब अस्तित्व राजी होगा, ईश्वर प्रसन्न होंगे कि आया कोई मेरा रूप, ऐसे भक्त की विदाई पर ईश्वर प्रसन्न होंगे। इन्द्रियों के देवता राजी होंगे कि धन्य है इसने अपने जीवन में इन्द्रियों के द्वारा भक्ति की। आँखों से, कानों से, सबसे जीभ से इस आदमी ने भक्ति की है।
६. प्रजल्प - प्रजल्प माने व्यर्थ की बातें बोलना, अतिश्योक्ति करते रहना। एक लडका आया भागता हुआ और बोला पिताजी मैनें आज रास्ते में २ दर्जन शेर देखें बाप ने कहा तेरा दिमाग तो खराब नही हो गया २ दर्जन शेर किसको बोलते है बोला हाँ पिताजी २ दर्जन शेर देखे, उसके पिता बोले हो नही सकते २ दर्जन शेर शहर में, तो बेटा बोला २ नही तो १ दर्जन तो होंगें ही, पिताजी बोले नही बेटे १ दर्जन शेर शहर में नही हो सकते। तो बोले पिताजी ५ तो थे, पिताजी बोले बेटे ५ शेर शहर में नही हो सकते हैं। तो वो बोला पिताजी १ तो था मुझे झूठा साबित मत करों। पिताजी बोले बेटा शहर में शेर नही होता बेटे तूने कुत्ता देखा होगा तूने, तो वो बोला हाँ कुत्ता जरूर था ... अब २ दर्जन शेर गये, १ दर्जन भी गये, ५ भी गये और १ भी गया और कुत्ते पे आ गया.... फिर बाप ने कहा कि मैनें तुझे करोडों बार कहा है कि अतिश्योक्ति मत किया कर तो मेहमान बैठे थे वो बोले आप भी तो अतिश्योक्ति कर रहे है बेटे की उम्र कितनी है वो बोले ५ साल, ५ साल बेटे की उमर है और आपने इसको करोडों बार कह दिया। १.५ साल तक तो वो बोलता ही नही, बाकी बचे ३.५ साल तो क्या ३.५ साल में तुमने इसको करोडों बार कह दिया अतिश्योक्ति तो आप भी कर रहे हो। तो कई बार प्रजल्प भी भक्ति में बाधक देता है। तो इन ६ बाधकों से बचे।
ये तो थे भक्ति के ६ बाधक अब भक्ति के ६ तत्व जो भक्ति में सहायक है भक्ति में अनुकूल ६ गुण है कौन-कौन से हैं।
उत्साहः, निश्चयात धैर्यात, तत तत कर्म प्रवृर्नात ।संग त्यागात सतो व्रते षडवीर भक्ति प्रसिद्धति ॥
१. उत्साह - भक्ति वर्धक नियमों के पालन में उत्साह, आनन्द, खुशी, जल्दी उठ्ने में उत्साह, ऐसा नही जल्दी उठने में आलस्य। उत्साह ये भक्ति वर्धक नियमों में जरूरी है। उत्साह बना रहे।
२. विश्वास - शास्त्र और गुरुदेव के वचनों में अटूट विश्वास होना चाहिये। गुरुदेव ने कहा है बस बात पूरी हो गई। शबरी ने कैसे गुरु की बात में विश्वास किया तो कैसे भगवान राम के दर्शन हो गये।
३. धैर्य - असंख्य विघ्न आने पर भी धैर्य रखें। अभीष्ट सिद्धि में विलम्ब होये तो भी धैर्य रखें कि ५ साल हो गये है मैं साधना कर रहा हूँ मेरे को कोई अभी ऊँचा अनुभव नही हुआ। ये धैर्य रखे। ५ साल हो गये साधना कर रहे है तो कमाई तो हो गई १० माला रोज जपते है वो कमाई किसकी हुई। आपकी ही तो हुई, जप करने वाले की हुई भले मन नही लगा। बिना मन लगे जप किया ये तो सुमिरण नाहि लेकिन ये तो जप नाहि ऐसा तो कही नही लिखा।
माला तो कर में फिरे, जीभ फिरे मुख माही,मनवा तो दसों दिश फिरे ये तो सुमिरण नाहि ॥
ये सुमिरण नही है पर ये तो जप नाहि ये तो किसी ग्रन्थ में नही लिखा है। जप तो हो ही गया कमाई तो हो ही गयी। ये कितना बडा़ लाभ हैं। इसलिये मेरा मन लग जाय या मेरा मन नही लगता ऐसा मत सोचों। धैर्य..... भक्ति में अनुकूल तीसरा गुण धैर्य हैं।
४. तत तत कर्म प्रवृतनात - मानें भक्ति को पोषने वाले कर्म विधि और निषेध दो प्रकार से होते हैं। एक तो सत्संग सुनना ये भक्ति वर्धक हैं। भक्ति में अनुकूल है और निषेध कि भाई संसारिक भोग सुखों का परित्याग ये निषेध, तत तत कर्म प्रवृतनात, अशुद्ध आहार ये निषेध में आया सात्विक आहार ये विधि में आया। तत तत कर्म प्रवृतनात, थियेटर में जाकर बैठे ये निषेध में आयेगा। उसमें कमी आयेगी संस्कार बिगडेगें। आँख बिगडेगी। आँखों की रोशनी खराब होना ठीक है पर दृष्टि खराब होना ये ठीक नही है। दृष्टि कमजोर होना ये तो चल जायेगा पर दृष्टि खराब होना ये नही चलेगा। दृष्टि कमजोर भले हो पर दृष्टि खराब न हो। दृष्टि में ऐसा तो अंजन लगाया जाय आँखों में कि जिस दृष्य को भी हम देखे उसे विकृत करके न देखें। हरिः हरिः हरिः हरिः हरिः ......... ॐ नमों नारायणाय ......... ॐ नमों नारायणाय ......... ॐ नमों नारायणाय ........ ये भक्ति में अनुकूल चौथा गुण है।
५. संग त्यागात - मायावादी, निर-ईश्वरवादी, ईश्वर में नही मानते है, ईश्वर प्राप्त सदगुरु में नही मानते हैं। उन मूर्खों का संग त्याग कर दें। संग त्यागात सतो व्रते, भक्तों जैसा व्यव्हार करें। सतो व्रते, एक भक्त कैसा व्यवहार करता हैं। सोचो कि मेरी जगह पर मीराबाई होती तो क्या करती, मेरी जगह पर विवेकानन्द जी होते तो क्या करते, मेरी जगह पर कबीरदास जी के शिष्य सलूका-मलूका होते तो क्या करते। क्या उनकी श्रद्धा-भक्ति कम होती, भक्तों जैसा व्यवहार करें। सतो व्रते, ये भक्ति वर्धक पाँचवा गुण हैं।
छटाँ गुण में सुन ना पाया इसलिये यहाँ पर नही लिख पाया आपसे क्षमा चाहता हूँ।
स्रोतः- स्वामी सुरेशानन्द जी सत्संग, सायन, मुम्बई वी.सी.डी भाग-१,२
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