मासिक साधना उपयोगी तिथियाँ

व्रत त्योहार और महत्वपूर्ण तिथियाँ

25 फरवरी - माघी पूर्णिमा
03 मार्च - रविवारी सप्तमी (शाम 06:19 से 04 मार्च सूर्योदय तक )
06 मार्च -
व्यतिपात योग (दोपहर 14:58 से 07 मार्च दिन 12:02 मिनट तक)
08 मार्च - विजया एकादशी (यह त्रि स्पृशा एकादशी है )
09 मार्च - शनि प्रदोष व्रत
10 मार्च - महा शिवरात्री (निशीथ काल मध्यरात्री 12:24 से 01:13 तक )
11 मार्च - सोमवती अमावस्या (
सूर्योदय से रात्री 1:23 तक )
11 मार्च - द्वापर युगादी तिथि
14 मार्च - षडशीति संक्रांति (पुण्यकाल शाम 4:58 से
सूर्योदय तक)
19 मार्च - होलाष्टक प्रारम्भ
20 मार्च - बुधवारी अष्टमी (
सूर्योदय से दोपहर 12:12 तक)
23 मार्च - आमलकी एकादशी
24 मार्च - प्रदोष व्रत
26 मार्च - होलिका दहन
27 मार्च - धुलेंडी , चैतन्य महाप्रभु जयंती
29 मार्च - संत तुकाराम द्वितीय
30 मार्च - छत्रपति शिवाजी जयन्ती

बुधवार, 24 अक्तूबर 2012

श्री योगवासिष्ठ महारामायण - 41 (मुमुक्षु-व्यवहार प्रकरण)


सत्रहवाँ सर्ग
प्रकरणों के क्रम से ग्रन्थसंख्या का वर्णन।
इस प्रकार साधनों का वर्णन कर उक्त साधनों से सम्पन्न पुरुष को प्रस्तुत ग्रन्थ के श्रवण आदि से पुरुषार्थ-प्राप्ति दर्शा रहे श्रीवसिष्ठजी ग्रन्थप्रवृत्ति के क्रम का, प्रकरण आदि के विभाग से, वर्णन करने के लिए उपक्रम करते हैं।
पूर्वोक्त प्रकरण का विवेक (विवेक आदि गुणों की सम्पत्ति) जिसे प्राप्त हो गया है, वह पुरुष महान है। जैसे राजा नीतिशास्त्र सुनने का अधिकारी है, वैसे ही वह भी ज्ञान की वाणी सुनने का अधिकारी है। जैसे मेघ के संसर्ग से विमुक्त आकाश शरत्काल के चन्द्रमा के योग्य होता है, वैसे ही मूर्खों के संग से मुक्त एवं निर्मल उदार पुरुष निर्दोष को (परम ब्रह्म को) प्रकाशित करने वाले विचार का योग्य भाजन है।।1,2।।
श्रीरामचन्द्रजी में उक्त गुणों के अभाव की शंका का निराकरण करते हैं।
हे श्रीरामचन्द्रजी, आप इन अखण्डित गुणगणों से परिपूर्ण हैं, अतएव आप आगे कहे जाने वाले मन के अज्ञान के विनाशक इस वाक्य को सुनिये। जिसका फलों के भार से खूब लदा हुआ पुण्यरूपी कल्पवृक्ष है, उसी पुण्यात्मा जीव का मुक्ति के लिए इसे सुनने के लिए उद्यम होता है। उक्त गुणों से सम्पन्न पुरुष ही मुक्ति के लिए अति पवित्र अन्य को बोध देने वाले उदार वचनों का पात्र होता है, अधम पुरुष नहीं। मोक्ष के साधन का प्रतिपादन करने वाली और सारभूत अर्थ से परिपूर्ण अतएव मोक्षदायिनी इस संहिता में बत्तीस हजार श्लोक हैं। जैसे गहरी नींद में सोये हुए पुरुष के सामने दिये के जलने पर यद्यपि सोये हुए पुरुष को प्रकाश की अभिलाषा नहीं रहती तथापि प्रकाश होता है, वैसे ही इस संहिता के श्रवण से, इच्छा न होने पर भी, मोक्ष का साधन ज्ञान अवश्य प्राप्त होता है। जैसे स्वयं दर्शन करके जानी गई और दूसरे के मुख से सुनी गई श्रीगंगाजी विविध योनियों में भ्रमण के हेतुभूत पाप और ताप की शान्ति द्वारा शीघ्र सुखप्रद होती है वैसे ही स्वयं परिशीलन करके जानी गई अथवा दूसरे के मुख से सुनी गई यह सहिंता अज्ञान के विनाश द्वारा शीघ्र सुखप्रद होती है। जैसे रस्सी के अवलोकन से रस्सी में हुई सर्पभ्रान्ति नष्ट हो जाती है, वैसे ही इस संहिता के अवलोकन से (परिशीलन से) संसारदुःख नष्ट हो जाता है। इस संहिता में युक्तिसंगत अर्थवाले वाक्यों से परिपूर्ण, श्रेष्ठ-श्रेष्ठ दृष्टान्तों से भरी हुई आख्यायिकाओं से युक्त तथा पृथक-पृथक रचे गये छः प्रकरण हैं। उनमें पहला प्रकरण वैराग्य नामक कहा गया है, जैसे निर्जल स्थान में भी जल के सेक से वृक्ष बढ़ता है, वैसे ही उक्त वैराग्यप्रकरण से वैराग्य बढ़ता है। डेढ़ हजार श्लोकों से युक्त वैराग्यप्रकरण में निरूपण किया गया है। जिसके विचार करने पर विषयों में दोष का ज्ञान होने से हृदय में ऐसी शुद्धता उत्पन्न होती है जैसे कि मणि को सान में चढ़ाने पर प्रकाश से उसमें स्वच्छता उत्पन्न होती है।।3-12।।
वैराग्य प्रकरण के अनन्तर मुमुक्षु-व्यवहार नामक प्रकरण की रचना की गई है, इसमें एक हजार श्लोक हैं। यह प्रकरण युक्तियों से बड़ा सुन्दर है। इसमें मुमुक्षु पुरुषों के स्वभाव का वर्णन है। इसके पश्चात दृष्टान्त और आख्यायिकाओं से भरे हुए ज्ञानप्रद उत्पत्तिप्रकरण की रचना की गई है। उस सात हजार श्लोक वाले प्रकरण में जगत की 'अहम्' 'इदम्' स्वरूपवाली दृष्टा और दृश्य के भेद की विचित्रतारूप सम्पत्ति वास्तव में उत्पन्न न हुई भी भ्रम से उत्पन्न हुई सी प्रतीत होती है, ऐसा वर्णन किया गया है। उक्त प्रकरण के सुनने पर श्रोता युष्मत् और अस्मत् से युक्त, जिनका अर्थ भिन्न प्रतीत होता है, उन त्वंपद और अहंपद की एकार्थता के प्रतिपादक अनन्त ब्रह्माण्डों के विस्तार से युक्त तथा प्रत्येक ब्रह्माण्ड में लोकालोक पर्वत और आकाश से युक्त इस चराचर सम्पूर्ण जगत् को अपने हृदय में मूर्त द्रव्यता से रहित, भेदशून्य, अतएव पर्वत आदि पदार्थों से रहित, पृथिवी आदि भूतों से रहित, संकल्पमय (कल्पनामय) नगर के तुल्य असत्, स्वप्न में जो मनोमय पदार्थ दिखाई देते हैं, उनके तुल्य, मनोराज्य के समान स्थित, अर्थशून्य होने के कारण गन्धर्व नगर के सदृश, दो चन्द्रमाओं की भ्रान्ति के सदृश, मृगतृष्णा में जल की भ्रान्ति के समान समझता है तथा नाव आदि के चलने से पर्वत, वृक्ष आदि के चलनभ्रम के सदृश, सत्य पुरुषार्थ से शून्य, चित्त के मोह से कल्पित भूत के सदृश, निर्बीज होने पर भी (जगत् की बीज माया के मिथ्या होने से और आत्मा के निर्विकार होने से बीजरहित होने पर भी) प्रकाशमान, कथा के अर्थ के प्रतिभास के समान (कथा सुनने में आसक्ति होने से संस्कार द्वारा प्रत्यक्ष के सदृश कथा के अर्थ की प्रतीति होना लोक में प्रसिद्ध है), आकाश में कल्पित मुक्तावली  के सदृश, सुवर्ण में कंकणत्व आदि की नाईं एवं जल में तरंगत्व की नाईं (ф) और आकाश में नीलिमा के सदृश असत् ही यह सदा उत्पन्न हुआ है, भीत (जिस पर चित्र बनाया जाता है) और विविध रंगों के बिना केवल प्रतीतिमात्र से (पूर्व अनुभव के स्मरणमात्र से) मनोहर एवं कर्ता से रहित चित्र जैसे स्वप्न में या आकाश में चिरकाल तक प्रतीत होता है तथा जैसे चित्रलिखित अग्नि अग्नि न होने पर भी अग्नि सी प्रतीत होती है, वैसे ही मिथ्याभूत यह प्रपंच जगत् शब्द के अनुरूप अर्थ को जाता है।
ф कंकणता और तरंगता का सुवर्ण, जल के स्वरूप के बिना निरूपण नहीं हो सकता, अतः वे मिथ्या हैं, वैसे ही यह भी मिथ्या है।
(गच्छति) यानि विचार में नहीं ठहरता इस अर्थ को धारण करता है। तरंगों में भ्रान्ति से कल्पित नील कमलों की माला के तुल्य, पहले देखे गये स्मृतिपथ में आरूढ़ हो रहे नृत्य के समान मन में उत्थित, जैसे चित्त होकर सोये हुए पुरुष या कवि को चक्रवाक के (चकवा पक्षी के) चीत्कार से पूर्ण आकाश को देखने पर यह तालाब है, ऐसी उत्प्रेक्षा होती है, वैसे ही यह जगत् भी उत्प्रेक्षित है। ग्रीष्म ऋतु में पत्तों से शून्य, सूखे हुए और सारहीन अतएव छाया, शोभा आदि से रहित और फल आदि समृद्धि से शून्य वन की नाईं, मरण के समय में व्यग्र हुए लोगों के मन की नाईं (मरण के समय व्यग्र हुए लोगों का मन भ्रम और मूर्च्छा से युक्त और अस्थिर रहता है, यह प्रसिद्ध है), पर्वतों की गुफाओं की तरह (गुफाएँ अन्धकार से भरी हुई, शून्य और भयंकर होती हैं, वैसे ही यह भी है), अन्धकारपूर्ण गुफा में प्रत्येक के नृत्य के सदृश, उन्मत्त पुरुषों की चेष्टाओं के सदृश, भीत में लिखे हुए चित्र एवं खम्भे में खोदी हुई मूर्ति के समान तथा पंक आदि से बनाई गई प्रतिमा के सदृश पृथकसत्ता से शून्य है, ऐसा समझता है। परमार्थ दृष्टि से यह प्रशान्त और अज्ञानरूपी कुहरे से शून्य ज्ञानरूपी शरत्काल के आकाश के सिवा अन्य कुछ नहीं है, अर्थात् अज्ञान के विकार के दूर होने पर यह नित्य निर्विशेष सच्चिदानंद परब्रह्म में पर्यवसित हो जाता है। तदुपरान्त चौथा स्थितिप्रकरण कहा गया है, तीन हजार श्लोकवाले उस प्रकरण में प्रपंच और उसके अधिष्ठान तत्त्व का वास्तविक प्रतिपादन और कथाएँ प्रचुर मात्रा में हैं। ब्रह्म ही द्रष्टा और दृश्य भाव को स्वीकार कर इस प्रकार जगत्-रूप से और अहंरूप से स्थिति को प्राप्त हुआ है, ऐसा स्थितिप्रकरण में बतलाया गया, दस दिशाओं के मण्डल की विशालता से दैदीप्यमान यह जगदभ्रम चिरकाल से इस प्रकार वृद्धि को प्राप्त हुआ, यह बात उसमें भली भाँति समझाई गई है। तदनन्तर पाँच हजार श्लोकों से विरचित परम पवित्र तथा विविध युक्तियों से अतिरमणीय पाँचवाँ उपशान्तिप्रकरण कहा गया है। उक्त प्रकरण में यह (जगत), मैं, तुम और वह यों उत्पन्न हुई भ्रान्ति इस प्रकार शांत होती है, यह बात अनेक श्लोकों से दर्शाई गई है। उपशान्तिप्रकरण के सुनने पर यह संसार जीवन्मुक्तिक्रम से क्षीण होता हुआ अंशतः अवशिष्ट रहता है। जैसे जीर्णशीर्ण चित्रलिखित सेना कुछ दिखाई देती है, वैसे ही जिसका भ्रमपूर्ण स्वरूप शान्त हो गया है ऐसी यह संसृति शतांश शेष रह जाती है।।13-34।।
उत्तरोत्तर भूमिका की प्राप्ति होने पर अधिक विनाश होने से दृश्य और अदृश्य संस्कारमात्र से इसकी अवशिष्टता दृष्टान्तों से कहते हैं।
यह संसार अन्य के संकल्प से विरचित होने के कारण अन्य के चित्त में स्थित अतएव मिथ्याभूत, जिसमें संकल्प करने वाले पुरुष के पास बैठे हुए अन्य पुरुष के स्वप्न के युद्ध और वादविवाद से कुछ भी धन आदि वस्तु प्राप्त नहीं होती ऐसी नगरश्री के समान है, मिथ्या होने के कारण संसार और उक्त नगरश्री दोनों तुल्य हैं, अतएव अन्य की क्रिया और शब्द के अविषय भी हैं, वह जैसे स्वप्न देखने वाले की दृष्टि से कुछ स्पष्ट दृश्य है, किन्तु संकल्प करने वाले की दृष्टि से तनिक भी दृश्य न होती हुई अपने आप शान्त हो जाती है वैसे ही यह संसार बना है, यह भाव है।।35।। उससे भी अधिक शान्ति का प्रकर्ष होने पर अदृश्य अवस्था से अन्त यह संसार शान्त हुए संकल्प से कल्पित मदोन्मत्त गजराज के समान निरंकुश मेघ की भीषण गर्जना के समान, जिस नगर का स्वप्न द्वारा निर्माण या संकल्प द्वारा निर्माण भूल गया है, उस नगर के समान भावी (बनाये जाने वाले) नगर की वाटिका में बच्चा पैदा करने वाली बाँझ की स्त्री के समान शून्यस्वरूप से युक्त, उक्त वन्ध्या स्त्री की जिह्वा से कही जा रही अपने पुत्र के युद्ध आदि की वीररस पूर्ण कथा के अर्थ के अनुभव के तुल्य, जिस घर में चित्र नहीं लिखा गया उस घर की चित्रों से भरी हुई भीत की नाईं, जिसकी अर्थशून्य कल्पना विस्मृत होती जा रही है, उस कल्पित नगरी के सदृश, भावी फूलों के वन के आकाररूप वसन्त से रसरंजित तथा सम्पूर्ण ऋतुओं से युक्त होने पर भी अनुत्पन्न वन के स्पन्दन (उल्लास विकास) के सदृश अस्पष्ट आकारवाला तथा तरंगमालाओं के अपने में समा जाने से अतिनिश्चल जल से युक्त नदी के समान प्रतीत होता है।।36-39।। तदुपरान्त निर्वाण नाम का छठा प्रकरण कहा गया है। शेष ग्रन्थ उसका परिमाण है अर्थात् बत्तीस हजार श्लोकों में से ऊपर गिने गये साढ़े सत्रह हजार श्लोकों से शेष साढ़े चौदह हजार ग्रन्थ उसका परिमाण है यानी इसकी श्लोक संख्या साढ़े चौदह हजार है। यह प्रकरण ज्ञानरूपी महान् (दुर्लभ) पदार्थ क (परम पुरुषार्थ को) देने वाला है। उसके ज्ञात होने पर मूलअविद्या का सर्वनाश होने से सम्पूर्ण कल्पनाएँ शान्त हो जाती है और मोक्षरूप कल्याण प्राप्त होता है। बहुत क्या कहें, उक्त प्रकरण के भली भाँति हृदयंगम होने पर जीव के सम्पूर्ण सांसारिक भ्रम विनष्ट हो जाते हैं और वह निर्विषय चैतन्य प्रकाशरूप अतएव सम्पूर्ण आधिव्याधियों से रहित तथा विगत स्पृह हो जाता है। उसकी सम्पूर्ण जगत्-यात्राएँ शान्त हो जाती हैं तथा कृतकृत्य होने से वह स्वस्थ हो जाता है जैसे हीरे का खम्भा अपने में किसी प्रकार के विकार के बिना ही अपने में प्रतिबिम्बित जनता और उसकी चेष्टाओं का आधार होता है वैसे ही आकाश तुल्य (सर्वव्यापक) उक्त जीव भी सबका आधार हो जाता है। मानों सम्पूर्ण जगत्-जलों के निगलने से अति तृप्ति को प्राप्त हो जाता है। उसके बाह्य इन्द्रियों के भोग और मानसिक भोग सब शान्त हो जाते हैं। वह आधिभौतिक आध्यात्मिक और आधिदैविक सम्पूर्ण विषयों में स्वीकार और परित्याग दृष्टि से रहित हो जाता है अतएव देहयुक्त होने पर भी देह रहित सा संसार में रहने पर भी असंसारी हो जाता है, निविड़ पत्थर के हृदय की भाँति छिद्र रहित और वस्तुएँ भी जिसकी उपमा हों इस प्रकार का वह चैतन्यरूप सूर्य अपने अज्ञान से कल्पित लोकों को आत्माकार वृत्ति से खूब प्रदीप्त हुए अपने प्रकाश से दीप्त करता हुआ भी (प्रकाशरूप होता हुआ भी) दृश्य पदार्थों के न होने से ही उनके प्रकाश के अविषय में निविड़ हुए अन्धकाररूप पत्थर के सदृश परम अन्धकार को प्राप्त हुआ-सा हो जाता है, उसकी जन्ममरणरूप संसार की दुष्ट लीलाएँ शान्त हो जाती हैं और आशारूपी हैजा नष्ट हो जाता है। उसका अहंकाररूपी पिशाच नष्ट हो जाता है तथा वह शरीर रहित होता हुआ भी देहवान् रहता है। भगवती श्रुति भी कहती है -'अशरीरं शरीरेष्वनवस्थेष्व-वस्थितम्। महान्त विभुमात्मानं मत्वा धीरो न शोचति' (शरीर रहित होता हुआ भी नश्वर शरीरों में स्थित महान् विभु आत्मा को जानकर धीर पुरुष शोक नहीं करता) जैसे महान् मेरू पर्वत के किसी एक प्रदेश में फूल में भँवरी बैठी रहती है वैसे ही उसके सिर के रोम के अग्रभाग में अर्थात् रोमकोटि के तुल्य परिच्छिन्न अविद्या के भी अग्रभाग में (एकदेश में) यह जगत्सम्पत्ति स्थित है।।40-48।।
विस्तारशून्य प्रदेश में अतिविस्तारयुक्त जगत की प्रतीति कैसे होती है। ऐसी शंका होने पर छोटे से दर्पण के अन्दर मेघ, ग्रह और नक्षत्रों से युक्त आकाश का समावेश सबको दिखाई देता है, अतः अज्ञान के लिए यह कोई कठिन काम नहीं है कि विस्तारशून्य प्रदेश में अतिविस्तारयुक्त जगत दिखलाई दे, इस अभिप्राय से कहते हैं।
चैतन्यघन परमात्मा अपने अपने भीतर कल्पित आकाश में, परमाणु-परमाणु में हजारों जगतों को स्वयं बनाकर धारण करता है और स्वयं उन्हें देखता है। श्रीरामचन्द्रजी, महामति जीवन्मुक्त पुरुष का हृदय परमात्मा ही है, उसकी विस्तीर्णता का माप करोड़ों हरि, हर आदि भी नहीं कर सकते। उनकी ऐसा करने की सामर्थ्य नहीं है, सो बात नहीं है, किन्तु सत्ता से, अनन्तता से और आनन्दस्वरूपता से जिससे बढ़कर उत्कृष्ट कोई वस्तु ही नहीं है, उस परमात्मा की अपरिच्छिन्नता पारमार्थिक ही है, आकाश आदि की तरह द्रष्टा पुरुष की शक्ति से कल्पित नहीं है, यह भाव है।।49,50।।
सत्रहवाँ सर्ग समाप्त
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मंगलवार, 23 अक्तूबर 2012

श्री योगवासिष्ठ महारामायण - 40 (मुमुक्षु-व्यवहार प्रकरण)


सोलहवाँ सर्ग
साधुसंगतिरूप चतुर्थ द्वारपाल का वर्णन तथा चारों में से
प्रत्येक के सेवन में भी पुरुषार्थहेतुता का वर्णन।
साधुसमागमरूप चतुर्थ द्वारपाल का वर्णन कर रहे और चारों में से प्रत्येक के विषय में किया गया प्रबल पुरुषप्रयत्न पुरुषार्थपद है, ऐसा दर्शाते हुए श्रीवसिष्ठजी बोलेः
हे महामते, इस लोक में श्रेष्ठ साधुसमागम मनुष्यों के संसारसागर से उत्तरण में विशेषरूप से सब जगहों में (सम्पूर्ण अवस्थाओं में) उपकार करता है। साधुसंगतिरूपी वृक्ष के उत्पन्न हुए विवेकरूपी सफेद फूल की जो महात्मा रक्षा करते हैं, वे मोक्षफलरूप सम्पत्ति के भाजन होते हैं। साधु पुरुषों का समागम होने पर आत्मीय जन और धन से शून्य दुःखपूर्ण स्थान धन और जन से परिपूर्ण हो जाता है, मृत्यु भी उत्सव में परिणत हो जाती है और आपत्तियाँ सम्पत्तियाँ की तरह मालूम होती है। इस संसार में आपत्तिरूपी कमलिनी के लिए हेमन्त ऋतुरूप और मोहरूपी कुहरे के लिए वायुरूप केवल श्रेष्ठ साधुसमागम ही सर्वोत्कृष्ट है। हे रामचन्द्रजी, आप साधुसमागम को बुद्धि को अत्यन्त बढ़ाने वाला, अज्ञानरूपी वृक्ष का उच्छेद करने वाला और मानसिक व्याथाओं को दूर करने वाला जानिये। जैसे उद्यान को सींचने से फल-फूलों के गुच्छे प्राप्त होते हैं, वैसे ही साधुसंगम से मनोहर और निर्मल विवेकरूपी परम दीप उत्पन्न होता है। साधुसंगतिरूपी विभूतियाँ नित्य बढ़ाने वाले अविनाशी और बाध रहित उत्तम सुख को देती हैं। कितनी ही बड़ी आपत्ति को प्राप्त क्यों न हो और कितनी ही बड़ी पराधीनता को प्राप्त क्यों न हो फिर भी मनुष्यों को क्षणभर के लिए भी साधु संगति का त्याग नहीं करना चाहिए। साधुसंगति सन्मार्ग की दीपक है और हृदयान्धकार को दूर करने वाली ज्ञानरूपी सूर्य की प्रभा है। जिसने शीतल और स्वच्छ साधुसंगतिरूपी गंगा में स्नान किया है, उसको दानों से, तीर्थों से, तपस्याओं से और यज्ञों से क्या प्रयोजन है ? जिनके राग नष्ट हो गये हैं, सन्देह कट चुके हैं एवं चिद्जड़ग्रन्थि नष्ट हो चुकी हैं, ऐसे साधु पुरुष यदि विद्यमान हैं, तो तप और तीर्थ करने से क्या प्रयोजन है ? जैसे दरिद्र पुरुष मणियों को बड़े प्रेम से देखते हैं, वैसे ही जिनका चित्त विश्रान्तिसुख से परिपूर्ण है, ऐसे धन्य साधु पुरुषों के बड़े प्रयत्न से दर्शन करने चाहिए। जैसे अप्सराओं के समूह में विष्णु के समागम और अपनी सर्वोत्कृष्ट सुन्दरता से युक्त लक्ष्मी शोभित होती है, वैसे ही जिन बुद्धिमानों की मति सत्समागम रूप सौन्दर्य से युक्त है, वह भी सदा विराजमान रहती है। जिस धन्य पुरुष ने साधुसंगति का परित्याग नहीं किया, ब्रह्म की प्राप्ति के लिए प्रयत्न कर रहे लोगों में ब्रह्म की प्रथम प्राप्ति से वह अपनी शिरोभूषणता (सर्वोत्कृष्टता) प्रसिद्ध कर लेता है। जिनकी अन्तःकरण और उसके धर्मों में तादात्म्यसंसर्गाध्यासरूप चिदजड़-ग्रन्थि छिन्न-भिन्न हो गई है, उन ब्रह्मज्ञानी एवं सर्वसम्मत साधुओं की दान, सम्मान, सेवा आदि सब प्रयत्नों से सेवा करनी चाहिए, क्योंकि वे लोग भवसागर में डूबे हुए लोगों के तारण के उपाय हैं। जिन लोगों ने नरकरूपी अग्नि को बुझाने के लिये जल बरसाने वाले मेघरूप सन्त-महात्माओं को तिरस्कार की दृष्टि से देखा, वे लोग नरकरूपी अग्नि की सूखी लकड़ी बन गये, अर्थात् सूखी लकड़ियों की नाईं नरकाग्नि ने उन्हें जला डाला। सज्जनसंगतिरूपी औषधियों से दरिद्रता, मृत्यु, दुःख आदि विषयक सन्निपात समूल नष्ट हो जाता है।।1-17।।
सम्पूर्ण द्वारपालों की एक ही साथ प्रशंसा करने की इच्छा से पूर्वोक्त का अनुवाद करते हैं। सन्तोष, सत्संगति, विचार और शान्ति ये ही चार संसारसागर में मग्न हुए लोगों के तरने के उपाय हैं। सन्तोष सम्पूर्ण लाभों से सर्वश्रेष्ठ लाभ है, सत्संगति परम गति है, विचार परम ज्ञान है और शम परम सुख है अर्थात् सन्तोष के तुल्य कोई लाभ नहीं है, सत्संग के तुल्य कोई गति नहीं है, आत्मविचार के समान ज्ञान नहीं है और शान्ति के तुल्य और सुख नहीं है। ये चार संसार के समूल विनाश के लिए निर्मल उपाय हैं, इनका जिन्होंने खूब अभ्यास किया, वे मोहरूपी जल से लबालब भरे हुए संसारसागर से तर गये।।18-20।।
यदि सबका अभ्यास करने की सामर्थ्य न हो, तो एक के उत्तम अभ्यास से भी चारों का अभ्यास हो जाता है, ऐसा कहते हैं।
हे मतिमानों में श्रेष्ठ, उनमें से निर्मल उदयवाले एक का अभ्यास होने पर भी शेष चारों का अभ्यास हो जाता है। एक-एक भी इन सबकी उत्पत्तिभूमि है, जनक है, अतः सबकी सिद्धि के लिए एक का प्रयत्नपूर्वक आश्रय लेना चाहिए। जैसे तरंगों से शून्य (प्रशान्त) सागर में बड़े-बड़े व्यापारिक जहाज बिना किसी धक्का-मुक्की के बड़ी सावधानी से चलते हैं, वैसे ही शान्ति से स्वच्छ पुरुष में सत्संगति, सन्तोष और विचार बड़ी सावधानी से प्रवृत्त होते हैं। जैसे कल्पवृक्ष के आश्रय में स्थित पुरुष को लौकिक सम्पत्तियाँ प्राप्त होती हैं, वैसे ही विचार, सन्तोष, शान्ति और साधुसंगति से सुशोभित पुरुष को ज्ञानसम्पत्तियाँ प्राप्त होती है, वैसे ही विचार, सन्तोष, शान्ति और साधुसंगति से सुशोभित पुरुष को ज्ञानसम्पत्तियाँ प्राप्त होती हैं। जैसे परिपूर्ण पूर्णिमा में सौन्दर्य आदि गुण प्राप्त होते हैं। जो राजा सदा विचार के लिए मन्त्रियों को निमन्त्रित करता है या मन्त्रित सन्धि, विग्रह आदि पदार्थों को गुप्त रखता है, उस राजा को जैसे विजयलक्ष्मी प्राप्त होती है, वैसे ही सत्संग, सन्तोष, शान्ति और विचार से युक्त सदबुद्धि पुरुष को ज्ञानसम्पत्ति प्राप्त होती है। इसलिए हे रघुकुलतिलक, पुरुषप्रयत्न से मन को नित्य अपने वश में कर इनमें से एक गुण का प्रयत्नपूर्वक उपार्जन करना चाहिए। प्रयत्नपूर्वक अपने चित्तरूपी हाथी को अपने वश में कर जबतक हृदय में एक गुण की प्राप्ति नहीं की जाती तब तक उत्तम गति दुर्लभ है। हे श्रीरामजी, जब तक आपका चित्त गुणों के उपार्जन के लिए आग्रहवान् न हो, तब तक प्रयत्नपूर्वक दाँतों को दाँतों से पीसना चाहिए अर्थात् गुणार्जन के लिए अत्यन्त उद्योग करना चाहिए।।21-29।।
सात्त्विक देव आदि जन्म के लिए प्रयत्न करना चाहिए, देव आदि जन्म प्राप्त होने पर बिना परिश्रम के ज्ञान होगा, इस शंका पर कहते हैं।
हे महाबाहो, आप चाहे देवता होइये या यक्ष होइये, पुरुष होइये अथवा वृक्ष होइये पर जब तक आपका चित्त गुणों के उपार्जन के लिए आग्रहवान न होगा तब तक उत्तम गति का कोई उपाय नहीं है। फलदायक एक ही गुण के दृढ़ होने पर दोषाधीन चित्त के सम्पूर्ण दोष शीघ्र ही क्षीण हो जाते हैं।।30-31।।
परस्पर विरोधियों में एक की वृद्धि होने पर उसके सजातीय कुल की वृद्धि होने से अन्य का क्षीण होना प्रसिद्ध ही है, ऐसा कहते हैं।
गुणों की अभिवृद्धि होने पर दोषों पर विजय पाने वाले गुणों की वृद्धि होती है और दोषों के बढ़ने पर गुणविनाशक दोष बढ़ते हैं। इस मनोमोहरूपी वन में, सब प्राणियों में वेगवती वासनारूपी नदी सदा बहती है, पुण्य और पाप उसके बड़े-बड़े तट हैं। अपने प्रयत्न से दूसरे तट का निरोध कर उक्त वासनारूपी नदी जिस तट की ओर फेंकी जाती है, उसी तट से बहती है, अतएव हे रामजी, आपको जैसा अभीष्ट हो, वैसा कीजिए। हे शुभमते, आप अपनी वासनारूपी नदी मनरूपी वन में क्रमशः पुण्य तट की ओर प्रवृत्त कीजिए, ऐसा करने से आप तनिक भी पापप्रवाह से नहीं बहाये जायेंगे।।32-35।।
सोलहवाँ सर्ग समाप्त
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सोमवार, 22 अक्तूबर 2012

श्री योगवासिष्ठ महारामायण - 39 (मुमुक्षु-व्यवहार प्रकरण)


 पन्द्रहवाँ सर्ग
वैराग्यकल्पवृक्ष की छाया के समान सुखकर शीतल तीसरे द्वारपाल सन्तोष का वर्णन।
क्रम प्राप्त तीसरे द्वारपाल सन्तोष का वर्णन करते हैं।
श्रीवसिष्ठजी ने कहाः हे शत्रुतापन श्रीरामजी, सन्तोष परम श्रेय (मोक्षसुख) कहा जाता है और सन्तोष स्वर्गसुख भी कहा जाता है, क्योंकि सन्तोषयुक्त पुरुष असीम विश्रान्तिसुख को प्राप्त होता है अर्थात् उसका विक्षेपदुःख सर्वथा निवृत्त हो जाता है। सन्तोषरूपी ऐश्वर्य से सुखी तथा चिरकाल से विश्रान्तिपूर्ण चित्तवाले शान्त पुरुषों को विशाल साम्राज्य भी पुराने तिनके का टुकड़ा-सा प्रतीत होता है, तुच्छ लगता है। हे श्रीरामचन्द्रजी, सन्तोषशालिनी बुद्धि दारिद्रता, वियोग आदि से संकटपूर्ण सांसारिक जीवन में भी उद्वेगयुक्त न होकर कभी भी सुख से विरहित नहीं होती। जो शान्त पुरुष सन्तोषरूपी अमृत के पान से तृप्त हुए हैं, उनको यह अतुल विषयभोगसम्पत्ति प्रतिकूल विष सी लगती है। प्रचुर आनन्ददायक आस्वाद से युक्त तथा आशा, दीनता आदि दोषों का विनाशक सन्तोष जैसा सुख देता है, वैसा सुख ये अमृत रस की लहरें नहीं देती। हे राघव, अप्राप्त वस्तु की आकांक्षा का त्याग करने वाला, वस्तु के प्राप्त होने पर भी उसके मिथ्या होने के कारण पूर्ववस्था के (अप्राप्त अवस्था के) तुल्य अवस्था को प्राप्त अथवा उसकी प्राप्ति से होने वाले हर्ष आदि के अभाव के कारण समता को प्राप्त और जिसमें कभी खेद और हर्ष नहीं देखे गये ऐसा पुरूष इस लोक में सन्तुष्ट कहा जाता है। जब तक मन स्वतः ही (किसी अन्य निमित्त से नही) आत्मा में ही (अन्य विषयों में नहीं) नहीं जाता तब तक मनरूपी बिल से लता की भाँति विविध आपत्तियाँ उत्पन्न होती हैं अर्थात् जैसे गर्त से लताएँ पैदा होती हैं, वैसे ही मन से आपत्तियाँ उत्पन्न होती है। जैसे जल में स्थित कमल सूर्य की किरणों से अत्यन्त विकासको प्राप्त होता है, वैसे ही सन्तोष से शीतल चित्त शुद्ध विज्ञानदृष्टि से अत्यन्त विकास को प्राप्त होता है। जैसे म्लान (जल, धूलि और भाप से मलिन) दर्पण में मुख प्रतिबिम्बित नहीं होता। जिस मनुष्य रूपी कमल के विकास के लिए पूर्वोक्त सन्तोषरूपी सूर्य नित्य उदित है, वह मनुष्यरूपी कमल अज्ञानरूपी घनान्धकारयुक्त रात्रि से संकोच को प्राप्त नहीं होता। जिसका आधि और व्याधि से (दैहिक क्लेश और मानसिक क्लेश से) विमुक्त मन सन्तुष्ट है, वह प्राणी दरिद्र होता हुआ भी साम्राज्य सुख का भोग करता है।।1-11।।
सन्तोष के पूर्वोक्त लक्षण का अनुवाद कर अन्य लक्षण कहते हैं।
जो पुरुष अप्राप्त विषय की अभिलाषा नहीं करता, क्रमशः प्राप्त सुख और दुःख का भोग करता है जगत को आनन्द देने वाले सदाचार से युक्त वह पुरुष सन्तुष्ट कहा जाता है।।12।।
मुखकान्ति की विशिष्टता भी उसका लक्षण है, ऐसा कहते हैं-
सन्तोष से अत्यन्त तृप्त पूर्णचित्तवाले और क्षीरसागर के समान शुद्ध महापुरुष के मुखपर लक्ष्मी सदा विराजमान रहती है। अपनी आत्मा में आत्मा से ही निरतिशयानन्दरूप पूर्णता का अवलम्बन कर पौरूष प्रयत्न से सम्पूर्ण विषयों की तृष्णा का त्याग कर देना चाहिए। क्रोध और सन्ताप के हेतु के न रहने के कारण शान्त और शीतल बुद्धि से चन्द्रमा के समान सन्तोषरूप अमृत से पूर्ण मनुष्य का मन सदा स्वयं स्थिरता को प्राप्त होता है। बड़ी-बड़ी सम्पत्तियाँ, मृत्यु की तरह सन्तोष से जिसका मन परिपुष्ट है, ऐसे पुरुष के पास स्वयं प्राप्त होती हैं। यानी उसकी सेविकाएँ बन जाती हैं। जैसे वर्षाऋतु में धूलिकण स्वयं शीघ्र शान्त हो जाते हैं, वैसे ही अपनी आत्मा से आत्मा में सन्तुष्ट स्वस्थ पुरुष में सम्पूर्ण मानसिक व्यथाएँ शान्त हो जाती हैं।।13-17।।
ऐसा होने पर भी आवरणरूप दुःखबीज से जो दुःख होता है, वह तो होगा ही। इस पर कहते हैं।
हे श्रीरामजी, पुरुष नित्य शीतल और कलंक से शून्य शुद्ध वृत्तिरूपी पूर्णता से चन्द्रमा के समान शोभित होता है। अर्थात् जैसे अमावस्या के दिन क्षीण चन्द्रमा कलंक से भिन्न नहीं दिखाई देता, अतः कलंक में मग्न-सा हो जाता है और सूर्य के समीप में उसकी शीतल वृत्ति नहीं रहती, वही चन्द्रमा पौर्णमासी के दिन सोलहों कलाओं से पूर्ण होने से कलंक का भी भासक होने के कारण कलंक से पृथक हुई शुद्ध वृत्ति से शोभित होता है, वैसे ही पुरुष भी असन्तोषावस्था में अज्ञानरूपी कलंक में मग्न की नाईं आध्यात्मिक आदि तीनों तापों से जलाया जाता है और सन्तोषामृतरूपी कलाओं से पूर्ण होने पर अज्ञानरूपी कलंक का साक्षी होने के कारण उससे अस्पृष्ट आत्मसुख से शीतल वृत्ति से शोभित होता है। जैसे पुरुष समता से सुन्दर पुरुष के मुख को देखकर सन्तोष को प्राप्त होता है, वैसे धन के संचय से सन्तोष को प्राप्त नहीं होता। हे रघुनन्दन, जो पुरुषश्रेष्ठ इस लोक में गुणशाली पुरुषों द्वारा प्रशंसित समता से अलंकृत है, उसको आकाशचारी देवता और महामुनि भी बड़े भक्तिभाव से प्रणाम करते हैं।।18-20।।
पन्द्रहवाँ सर्ग समाप्त
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गुरुवार, 18 अक्तूबर 2012

श्री योगवासिष्ठ महारामायण - 38 (मुमुक्षु-व्यवहार प्रकरण)


चौदहवाँ सर्ग
साधुसंगम, सत् शास्त्र के अभ्यास और अन्तःकरण की शुद्धि से बुद्धि को प्राप्त एवं शम और सन्तोष के हेतु विचार की प्रशंसा।
पूर्वोक्त रीति से शमनामक पहले मोक्षद्वारपाल का वर्णन कर विचार नामक दूसरे द्वारपाल का वर्णन करनेवाले वसिष्ठजी बोलेः
हे श्रीरामचन्द्रजी ! विषय, सन्देह, पूर्वपक्ष, सिद्धान्त और प्रयोजन का विभागपूर्वक ज्ञान रखने वाले पुरुष को शास्त्रज्ञान से निर्मल परम पवित्र (विशुद्ध) बुद्धि से नित्य निरन्तर आत्मा का विचार () करना चाहिए।।1।।
विचार पाँच प्रकार के हैं, अर्थ और अनर्थ के कारण का विचार, सार और असार का विचार, हेय और उपादेय का विचार, प्रमाण के तात्पर्य का विचार एवं आत्मतत्त्वविचार। उक्त पाँच प्रकार के विचारों में स्वाभाविक प्रवृत्ति और विषयों में अनर्थकारिता और शास्त्रीय प्रवृत्ति एवं वैराग्य में पुरुषार्थहेतुता है, इस प्रकार अन्वय व्यतिरेक से परीक्षणरूप प्रथम विचार है। स्त्री, पुत्र और अपनी देह में स्वभाव से, बीज से और परिणाम से अशुचिता, विषमूत्ररूपता और अमंगलता का परीक्षणरूप और ब्रह्मलोकपर्यन्त सम्पूर्ण सुखों में अनित्यत्व तथा दुःखमिश्रितत्व आदि का परीक्षणरूप दूसरा विचार है। ये दोनों वैराग्य और मुमुक्षा के हेतु हैं। मुमुक्षा के अनन्तर भी मोक्षसाधन केवल कर्म है या केवल उपासना है या वे दोनों मिलकर हैं अथवा ज्ञानसमुच्चित कर्म और उपासना मोक्षसाधन हैं अथवा केवल ज्ञान ही मोक्ष का साधन  है, इस प्रकार परीक्षणरूप तीसरा विचार है। ज्ञान ही मोक्ष का साधन है, ऐसा मान लेने पर भी सांख्य, वैशेषिक आदि का अभिमत ज्ञान मोक्ष का साधन है या केवल श्रौत ज्ञान ही। श्रौत ज्ञान के मोक्षसाधन होने पर भी श्रुतियों का द्वैत में अथवा अद्वैत में, सविशेष या निर्विशेष आत्मा में या अनात्मा में तात्पर्य है, इस प्रकार परीक्षणरूप चौथा विचार है। वह श्रवण कहलाता है। श्रुति आदि प्रमाणों का अद्वितीय सच्चिदानन्दघन ब्रह्म में तात्पर्य होने पर भी अपनी आत्मा में परमार्थरूप से सच्चिदानन्दघनता हो सकती है या नहीं, इस विषय का रत्नपरीक्षान्याय से अनुभवी गुरु और सतीर्थ्य आदि के संवाद से जीव, ईश्वर और जगत्तत्व के परिशोधन से निश्चय होने तक परीक्षणरूप पाँचवाँ विचार है। उक्त पाँचों विचारों में आदि तीन का फल साधन चतुष्टय की सम्पत्ति है और अन्तिम दो का फल क्रमशः प्रमाण और प्रमेय में असम्भावना की निवृत्ति है। प्रथम तीन यद्यपि भाग्यवश स्वतः भी प्राप्त हो जाते हैं, तथापि अपनी प्रतीति को दृढ़ करने के लिए फिर गुरुशास्त्रपूर्वक उनकी प्राप्ति करनी चाहिए। अन्तिम दो तो गुरु और शास्त्र से ही प्राप्त होते हैं, इसीलिए ऊपर श्लोक में सर्वसाधारणरूप से 'शास्त्रावबोधामलया धिया' कहा है।
बुद्धि विचार से सूक्ष्म तत्त्व के ग्रहण में निपुण होकर परम पद को देखती है, इसलिए विचार संसाररूपी महारोग की औषधि है। अनन्त प्रवृत्तियों से चारों ओर से पल्लवित आकारवाला आपत्तिरूपी वन विचाररूपी आरों से काटे जाने पर फिर उत्पन्न नहीं होता। हे महाप्राज्ञ, बन्धुनाश आदि दुःख दूर हो और चित्त में शान्ति आये, वह मोह से व्याप्त है अर्थात् बुद्धि में स्फुरित नहीं होता। वहाँ पर विचार ही सज्जनों का परम आश्रय है अर्थात् उचित कर्तव्य के अनुसन्धान में हेतु है। दुःखसन्तरण के लिए विद्वानों के पास विचार के सिवा और कोई उपाय नहीं है, सज्जनों की मति विचार से अशुभ का त्याग कर शुभ को प्राप्त होती है। बुद्धिमानों के बल, बुद्धि, सामर्थ्य और समयोचित स्फूर्ति, क्रिया और उसका फल ये सब विचार से ही सफल होते हैं। यह युक्त है और वह अयुक्त है, इसके प्रकाशन मे महादीपकरूप एवं अभीष्ट वस्तु की सिद्धि करने वाले प्रचुर विचार का अवलम्बन कर संसाररूप सागर को पार करना चाहिए। हृदयस्थित विवेकरूप कमल को कुचल डालने वाले महामोहरूपी हाथियों को विशुद्ध विचाररूपी सिंह मार डालता है। संसारसंतरण के उपाय से अनभिज्ञ लोग समय पाकर जो परमपद को प्राप्त हुए हैं, वह विचाररूप प्रदीप का ही उपायप्रकाशनजन्य सर्वोत्तम फल है। हे राघव, बड़े बड़े राज्य महती सम्पत्तियाँ भोग और अविनाशी मोक्ष ये सब विचाररूपी कल्पवृक्ष के फल है। इस संसार में महापुरुषों की विवेक से विकसित जो मतियाँ है वे जल में फेंकी गई तुम्बियों के समान विपत्ति में विषाद को प्राप्त नहीं होती। जो लोग विचार को उत्पन्न करने वाली (विचारवती) बुद्धि से व्यवहार करते हैं, वे लोग अतिश्रेष्ठ फलों के पात्र होते हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं है। विविध दुःख मूर्खों के हृदयरूपी वन में स्थित तथा मुमुक्षा को (मुक्ति की इच्छा के) सर्वप्रथम रोकनेवाले अविचाररूपी करंज वृक्ष की मंजरियाँ हैं अर्थात् जैसे करंज वृक्ष वन में उगते हैं और अपने बढ़ाव से दिशाओं को रोकते हैं वैसे ही अविचार मूर्खजनों के हृदय में वास करता है और मोक्ष की आशा को रोक देता है। उसी अविचार का फल दुःख है। हे रघुवंशमणे, आपकी अंजन के चूर्ण के ढेर के समान काली और मदिरा (शराब) के नशे में होने वाले चिह्नों से भ्रम और स्खलन आदि से युक्त अविचाररूपी नींद नाश को प्राप्त हो। जैसे सूर्य निविड़ अन्धकारों में भी निमग्न नहीं होता, किन्तु स्वयं अन्धकार का विनाश कर सदा प्रकाशमान रहता है, वैसे ही सदविचार में तत्पर पुरुष बड़ी बड़ी आपत्तियों से युक्त एवं अतिविस्तारयुक्त अज्ञानों में निमग्न नहीं होता। जिसके अतिनिर्मल मनरूपी तालाब में विचाररूप कमलराशि खिल जाती है, वह हिमालय की भाँति शोभा को प्राप्त होता है। अर्थात् शीलता, उन्नता, स्थिरता आदि गुणों से हिमालय के सदृश शोभित होता है। हिमालय में भी निर्मल मानस सरोवर है और उसमें सदा कमल खिले रहते हैं। मूढ़ता को प्राप्त हुए जिस पुरुष की बुद्धि विचारशून्य है, उसके लिए चन्द्रमा से वज्र उत्पन्न होता है, जैसे मूर्खतावश बालक के लिए यक्ष (वेताल) उत्पन्न होता है। भाव यह है कि मन का देवता चन्द्रमा है और मन चन्द्रमा की नाईं प्रकाश के योग्य है, इसलिए मन में चांदनी के तुल्य ज्ञानजन्य सुख का ही आविर्भाव होना उचित है। जिस मूर्ख के मन में शोक, दुःख की उत्पत्ति होती है, उसके लिए चन्द्रमा से भी वज्र उत्पन्न होता है, जैसे की बालक की मूर्खता से वेताल उत्पन्न होता है। विवेकशून्य अधम पुरुष निरन्तर दुःख बीजों को रखने के लिए बनाया गया अति विशाल कुसूल (कोटिला) है एवं विपत्तिरूपी नवीन लताओं के विकास का कारण वसन्त है, ऐसे अधम पुरुष का दूर से त्याग कर देना चाहिए। जो कोई अपने को और दूसरों को दुःख देने वाले कार्य हैं, जो कोई निषिद्ध कार्य है और जो मानसिक पीड़ाएँ हैं, वे सब अन्धकार से वेताल की नाईं अविचार से (अविवेक से) ही उत्पन्न होते हैं। हे रघुकुलतिलक, जिस पुरुष में विवेक नहीं है, वह निर्जन स्थान में उगे हुए वनवृक्ष के सदृश है और पुरुषार्थ के उपयोगी सत्कर्म करने में असमर्थ हैं, उससे सदा दूर रहना चाहिए निर्जन स्थान में उत्पन्न वृक्ष भी सज्जन बटोहियों (पथिकों) को छाया में आश्रय देना आदि कार्यों में असमर्थ रहता है। विचारपूर्ण अतएव आशा की अधीनता से विमुक्त अधिकारी प्राणियों का मन पूर्णचन्द्र की नाईं आत्मा में परम विश्रामसुख को प्राप्त होता है। जैसे उदित हुई चाँदनी अत्यन्त शोभा कर देती है और जल प्यासे प्राणी को शीतल कर देता है, वैसे ही देह में जब विवेकशीलता उदित होती है, तब वह सबको अत्यन्त विभूषित कर देती है और शीतल कर देती है। जैसे रात्रि में चन्द्रमा शोभित होता है अर्थात् रात्रि का असाधारण चिह्न चन्द्रमा शोभित होता है, वैसे ही अधिकारी ब्राह्मण आदि कुल में जन्म लिए हुए पुरुष की सर्वश्रेष्ठ पुरुषार्थरूप (मोक्षरूप) राजत्वप्राप्ति की सूचिका होने के कारण पताकाभूत शुद्ध बुद्धि का विचार चँवर-सा (असाधारण राजचिह्न सा) शोभित होता है। विचार से ही क्रमशः जीवन्मुक्त हुए जीव दसों दिशाओं को दैदीप्यमान करते हुए सूर्य के तुल्य सुशोभित होते हैं, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है, अपने प्रकाश से सूर्य अन्धकार का विनाश करते हैं। जैसे रात्रि में बालक को बाहर न निकलने देने के लिए आकाश में कल्पित प्राणनाशक वेताल विचार से विनष्ट हो जाता है, वैसे ही अपने मन के अज्ञान से कल्पित स्वरूप का विनाशक यह संसार विचारक से विलीन हो जाता है। जगत के सभी पदार्थ अविचार न करने से ही भले लगते हैं, सत्य पदार्थ की नाईं सुन्दर लगते हैं, वास्तव में उनका अस्तित्व नहीं है, इसीलिए वे विचार करने से पत्थर से तोड़े गये मिट्टी के ढेले की नाईं तहस-नहस हो जाते हैं, मिथ्या प्रतीत हो जाते हैं। यह संसाररूपी पुराना वेताल बड़ा दुःखप्रद है, पुरुष ने अपने मन में स्थित अज्ञान से इसकी कल्पना कर रक्खी है, यह विचार करने से विलीन हो जाता है।।2-27।।
विचार का फल केवल भय की निवृत्ति नहीं ही नहीं है, किन्तु निरतिशय आनन्द की प्राप्ति भी उसका फल है, ऐसा कहते हैं।
ब्रह्मकैवल्य को उत्तम फल जानो, जो कैवल्य सुखरूप है, जिसमें जगत की विषमता का तनिक भी सम्पर्क नहीं है, जिसका कभी बाध नहीं होता और जो दूसरे के आधीन नहीं है। जैसे चन्द्रमा के उदय से शीतता का उदय होता है, वैसे ही विचार से उत्पन्न निरतिशय आनन्द के बल से चंचलता के कारण अज्ञान का विनाश होने पर निश्चल स्थिति से उदार आनन्दपूर्णतारूप निष्कामता का उदय होता है। अचल स्थिति ही सर्वश्रेष्ठ है। उक्त अचल स्थिति को देने वाली चित्त में स्थित आत्मविचाररूपी महौषधि से सिद्ध हुआ पुरुष न तो अप्राप्त वस्तु की इच्छा करता है और न प्राप्त का त्याग करता है, कृतकृत्य हो जाता है, यह अर्थ है।।28-30।।
यदि चित्त विचार से उत्पन्न ज्ञान से नष्ट हो गया, तो जीवन ही नहीं रहेगा, यदि नष्ट न हुआ, तो फिर नाना विक्षेपों को उत्पन्न करेगा, ऐसी परिस्थिति में कृतकृत्यता तो मृगतृष्णा ही ठहरी, इस शंका पर कहते हैं।
सच्चित आनन्दघन परब्रह्म परमात्मा में लगे हुए अतएव अत्यन्त आभासता को प्राप्त हुए (जैसे भूँजे हुए बीज बीजाभास हो जाते हैं अर्थात् उनमें अंकुर पैदा करने की सामर्थ्य नहीं रह जाती, वैसे ही आभासता को प्राप्त हुए) चित्त विक्षेपहेतु वासनाएँ आकाश की नाईं अति विस्तीर्ण ब्रह्मभाव को प्राप्त हो जाती हैं, अतएव वह न तो विनाश को प्राप्त होता है जिससे कि जीवन ही न रहे और न राग, द्वेष आदि वृत्तियों से फिर उदय को ही प्राप्त होता है, जिससे कि विक्षेप हों()।

अथवा इस श्लोक का अर्थ यों करना चाहिए। परब्रह्म परमात्मा में संलग्न अतएव ब्रह्मभाव को प्राप्त हुआ चित्त भूँजे हुए बीजों के समान न तो उगता है, जिससे कि विक्षेप का डर हो और न अनादि वासना से दृढ़ हुआ चित्त विषयसंस्कार से विनाश को ही प्राप्त होता है जिससे कि जीवन का असंभव हो।
क्योंकि ब्रह्मवेत्ता पुरुष विशाल जगत को (जगत में स्थित विविध विषयों को) केवल उदासीनता से देखता रहता है, उनमें आसक्त होकर मन नहीं लगाता केवल उदासीनता से देखता रहता है, उनमें आसक्त होकर मन नहीं लगाता और न सत्य या पुरुषार्थ समझ कर उनका उपभोग ही करता है और न सुषुप्ति अवस्था की तरह उपाधि की शान्ति से शान्त होता है, न स्वप्न की नाईं मनोवासनामय पदार्थों में आसक्त होता है और न मूढ़ जनों की जाग्रत अवस्था के सदृश बाह्य विषयों के फन्दे में फँसता है तथा नैष्कर्म्य का अवलम्बन करता है और न कर्मों में ही उलझा रहता है। ब्रह्मज्ञ पुरुष पूर्ण सागर के समान शोभित होता है, वह गई हुई (नष्ट हुई) वस्तु की उपेक्षा कर देता है अर्थात् उसकी प्राप्ति के लिए यत्न नहीं करता और प्राप्त वस्तु का अनुसरण करता है, उसे क्षोभ नहीं होता और निश्चल नहीं होता है अर्थात् स्वाभाविक व्यवहार का त्याग करता हुआ निश्चल नहीं होता है। (समुद्र पक्ष में) समुद्र भी गये हुए लक्ष्मी, कौस्तुभमणि आदि वस्तु की उपेक्षा करता है, प्राप्त अन्यान्य रत्नों से अपना व्यवहार करता है, उसे मर्यादात्याग पर्यन्त क्षुब्धता नहीं होती और वह निश्चल भी नहीं होता। इस प्रकार पूर्ण मन से युक्त इसी शरीर में अनुभव में आ रहे जीवब्रह्मैक्यरूप योगवाले जीवन्मुक्त उदार महात्मा इस जगत में विहार करते हैं, विचरते हैं। वे धीर महात्मा अपनी इच्छानुसार चिरकालतक इस संसार में निवास कर अन्त में देह, इन्द्रिय आदि उपाधि का त्याग कर अपरिच्छिन्न विदेहकैवल्य को प्राप्त होते हैं। बुद्धिमान पुरुष को आपत्ति में भी (कुटुम्ब आदि फन्दे में फँसे रहने पर भी) मैं कौन हूँ, यह संसार किसका है ? यों संसार से छुटकारा पाने के उपाय श्रवण आदि के अनुष्ठान के साथ स्वयं ही प्रयत्नपूर्वक विचार करना चाहिए। हे श्रीरामचन्द्रजी, राजा सफल चाहे निष्फल अवश्य कर्तव्य सन्धि, विग्रह आदि का निश्चय विचार से ही करता है, विचार के सिवा उसका निश्चायक दूसरा मार्ग नहीं है। जैसे रात्रि में घट, पट आदि पदार्थों का परिज्ञान दीपक से होता है, वैसे ही पुरुषार्थप्राप्ति के हेतु वेद और वेदान्तसिद्धान्त के सारभूत धर्म तथा ब्रह्मतत्त्व का निर्णय विचार से ही किया जाता है। विचाररूपी सुन्दर नेत्र अन्धकार में नष्ट सा (व्यर्थ-सा) नहीं होता, अति तेजस्वी सूर्य आदि में कुण्ठित नहीं होता एवं जो वस्तु सामने नहीं है, व्यवहित है उसे भी देख लेता है। प्रसिद्ध नेत्र अन्धकार में नष्ट से हो जाते हैं प्रचुर तेजवाले सूर्य आदि को नहीं देख सकते, चकाचौंध होने के कारण कुण्ठित हो जाते हैं, एवं जो वस्तु व्यवहित है और दूर है उसे नहीं देख सकते। जो पुरुष विवेकान्ध (विवेकरूपी नेत्रों से हीन) है वह जन्मान्ध है, उस दुर्मति के लिए सब शोक करते हैं, जिस पुरुष को विवेक आत्मा की नाईं प्रिय है, वह दिव्यचक्षु है वह सम्पूर्ण वस्तुओं में श्रेष्ठ है, अर्थात् वह आपत्तियों पर विजय पाता है अथवा परम पुरूषार्थ मोक्ष को प्राप्त करता है।। 31-41।।
विचारों में भी जो सारभूत (श्रेष्ठतम) विचार है, उसका निर्देश करते हैं।
परमात्मप्राय (सदा परमात्मा में संलग्न) महान आनन्द की एकमात्र साधन आदरणीय विचारधारा का एक क्षण के लिए भी परित्याग नहीं करना चाहिए। जैसे परिपाक होने के कारण अत्यन्त माधुर्य से युक्त आम का फल महापुरुषों को भी अच्छा लगता है, वैसे ही विचार से रमणीय पुरुष तत्त्वज्ञों को भी अच्छा लगता है, जिज्ञासुओं की तो बात ही क्या है ? विचार से जिनकी मति अतिनिर्मल है और विचार से ही जिन्हें ज्ञानमार्ग में गमन ज्ञात है, वे अनेक दुःखमय गर्तों में (जन्म-मरण परम्परा में) बार-बार नहीं गिरते। रोग, विष, शस्त्र की चोट आदि सैंकड़ों दुःखों से शिथिल शरीरवाला रोगी वैसा नहीं रोता जैसा कि अविचार से जिसने अपनी आत्मा का प्रायः हनन कर दिया है, वह मूर्ख पुरुष विविध जन्म-मरण परम्पराओं में रोता है। कीचड़ में मेंढक बनना अच्छा है, विष्ठा का कीड़ा होना अच्छा है और अन्धेरी गुफा में साँप होना अच्छा है, पर मनुष्य का अविचारी होना अच्छा नहीं है। अविचार सम्पूर्ण क्लेशों का अपनी निजी घर है, सम्पूर्ण सज्जनों द्वारा तिरस्कृत है, एवं समस्त दुर्गतियों की चरम सीमा है, इसलिए उसका परित्याग कर देना चाहिए। महात्मा पुरुष को सदा विचारशील होना चाहिए, लोक में यह बात प्रसिद्ध है कि अन्धकूपरूप राग द्वेष आदि में गिर रहे लोगों का विचार अवलम्बन है। विचारपूर्वक स्वयं ही अपने आत्मा से राग, द्वेषादि प्रवाह में गिर रहे अपने आत्मा को जबरदस्ती स्थिरकर संसाररागरूपी सागर से अपने मनरूपी मृग को उतारना चाहिए।।42-49।।
विचार के स्वरूप को दिखलाते हैं।
मैं कौन हूँ (क्या देह आदि ही मैं हूँ या उनसे विलक्षण हूँ यों त्वं पदार्थ का विचार) और यह संसारनाम का दोष मुझे कैसे प्राप्त हुआ(यह संसाररूप दोष अधिष्ठान-ब्रह्म-में कैसे आ गया, यो तत्पदार्थ का विचार) श्रुति, मुनि आचार्य तथा साम्प्रदायिक पुरुषों द्वारा प्रदर्शित न्याय से इस प्रकार परामर्श विचार कहलाता है। ब्रह्मा ने पत्थर का और अविचारशील दुर्बुद्धि का हृदय दुःख के (क्लेश के) लिए ही बनाया है, (पत्थर के पक्ष में) घन से छेदन आदि क्लेश से होनेवाले दुष्ट छेद के लिए ही बनाया है, अन्यत्र उसका कोई भी उपयोग नहीं है, क्योंकि वह अन्धे से भी अन्धा और मोह से अत्यंत घना है। अन्धा देखे बिना कुएँ में गिरता है, दुर्बुद्धि का मन देखकर भी मोहवश नरक में गिरता है। (पत्थर के पक्ष में) जड़ होने से अन्धे से भी अन्धा है और कठोर होने से मोह से भी अधिक घना है। हे श्रीरामचन्द्रजी, इस व्यवहारभूमि में सत्य के ग्रहण और असत्य के त्याग को देख रहे विद्वानों को विचार के बिना उत्तम तत्त्व कुछ भी प्रतीत नहीं होता। विचार से तत्त्व का ज्ञान होता है, तत्त्वज्ञान से विश्रान्ति (मन की निश्चलता) होती है। विश्रान्ति से मन में जो शान्ति प्राप्त होती है, वही सम्पूर्ण दुःखों का विनाश है।।50-53।।
विस्तारपूर्वक कहे गये विचार का ही संक्षेपतः उपसंहार करते हैं-
श्रीरामजी, अतः पृथिवी में सभी लोग स्फुट विचारदृष्टि से ही वैदिक और लौकिक कर्मों में सफलता प्राप्त करते हैं, आत्मतत्त्व की आगे कही जाने वाली सप्तम भूमिकारूप उत्तम प्रकटता भी विचार से ही प्राप्त करते हैं, इसलिए शम, दम आदि साधनसम्पत्ति से युक्त आपको उक्त विचारशीलता रूचिकर हो।।54।।
चौदहवाँ सर्ग समाप्त
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