सत्रहवाँ
सर्ग
प्रकरणों
के क्रम से ग्रन्थसंख्या का वर्णन।
इस प्रकार
साधनों का वर्णन कर उक्त साधनों से सम्पन्न पुरुष को प्रस्तुत ग्रन्थ के श्रवण आदि
से पुरुषार्थ-प्राप्ति दर्शा रहे श्रीवसिष्ठजी ग्रन्थप्रवृत्ति के क्रम का, प्रकरण
आदि के विभाग से, वर्णन करने के लिए उपक्रम करते हैं।
पूर्वोक्त
प्रकरण का विवेक (विवेक आदि गुणों की सम्पत्ति) जिसे प्राप्त हो गया है, वह पुरुष
महान है। जैसे राजा नीतिशास्त्र सुनने का अधिकारी है, वैसे ही वह भी ज्ञान की वाणी
सुनने का अधिकारी है। जैसे मेघ के संसर्ग से विमुक्त आकाश शरत्काल के चन्द्रमा के
योग्य होता है, वैसे ही मूर्खों के संग से मुक्त एवं निर्मल उदार पुरुष निर्दोष को
(परम ब्रह्म को) प्रकाशित करने वाले विचार का योग्य भाजन है।।1,2।।
श्रीरामचन्द्रजी
में उक्त गुणों के अभाव की शंका का निराकरण करते हैं।
हे
श्रीरामचन्द्रजी, आप इन अखण्डित गुणगणों से परिपूर्ण हैं, अतएव आप आगे कहे जाने
वाले मन के अज्ञान के विनाशक इस वाक्य को सुनिये। जिसका फलों के भार से खूब लदा
हुआ पुण्यरूपी कल्पवृक्ष है, उसी पुण्यात्मा जीव का मुक्ति के लिए इसे सुनने के
लिए उद्यम होता है। उक्त गुणों से सम्पन्न पुरुष ही मुक्ति के लिए अति पवित्र अन्य
को बोध देने वाले उदार वचनों का पात्र होता है, अधम पुरुष नहीं। मोक्ष के साधन का
प्रतिपादन करने वाली और सारभूत अर्थ से परिपूर्ण अतएव मोक्षदायिनी इस संहिता में
बत्तीस हजार श्लोक हैं। जैसे गहरी नींद में सोये हुए पुरुष के सामने दिये के जलने
पर यद्यपि सोये हुए पुरुष को प्रकाश की अभिलाषा नहीं रहती तथापि प्रकाश होता है,
वैसे ही इस संहिता के श्रवण से, इच्छा न होने पर भी, मोक्ष का साधन ज्ञान अवश्य
प्राप्त होता है। जैसे स्वयं दर्शन करके जानी गई और दूसरे के मुख से सुनी गई
श्रीगंगाजी विविध योनियों में भ्रमण के हेतुभूत पाप और ताप की शान्ति द्वारा शीघ्र
सुखप्रद होती है वैसे ही स्वयं परिशीलन करके जानी गई अथवा दूसरे के मुख से सुनी गई
यह सहिंता अज्ञान के विनाश द्वारा शीघ्र सुखप्रद होती है। जैसे रस्सी के अवलोकन से
रस्सी में हुई सर्पभ्रान्ति नष्ट हो जाती है, वैसे ही इस संहिता के अवलोकन से
(परिशीलन से) संसारदुःख नष्ट हो जाता है। इस संहिता में युक्तिसंगत अर्थवाले
वाक्यों से परिपूर्ण, श्रेष्ठ-श्रेष्ठ दृष्टान्तों से भरी हुई आख्यायिकाओं से
युक्त तथा पृथक-पृथक रचे गये छः प्रकरण हैं। उनमें पहला प्रकरण वैराग्य नामक कहा
गया है, जैसे निर्जल स्थान में भी जल के सेक से वृक्ष बढ़ता है, वैसे ही उक्त
वैराग्यप्रकरण से वैराग्य बढ़ता है। डेढ़ हजार श्लोकों से युक्त वैराग्यप्रकरण में
निरूपण किया गया है। जिसके विचार करने पर विषयों में दोष का ज्ञान होने से हृदय
में ऐसी शुद्धता उत्पन्न होती है जैसे कि मणि को सान में चढ़ाने पर प्रकाश से
उसमें स्वच्छता उत्पन्न होती है।।3-12।।
वैराग्य प्रकरण
के अनन्तर मुमुक्षु-व्यवहार नामक प्रकरण की रचना की गई है, इसमें एक हजार श्लोक
हैं। यह प्रकरण युक्तियों से बड़ा सुन्दर है। इसमें मुमुक्षु पुरुषों के स्वभाव का
वर्णन है। इसके पश्चात दृष्टान्त और आख्यायिकाओं से भरे हुए ज्ञानप्रद उत्पत्तिप्रकरण
की रचना की गई है। उस सात हजार श्लोक वाले प्रकरण में जगत की 'अहम्' 'इदम्'
स्वरूपवाली दृष्टा और दृश्य के भेद की विचित्रतारूप सम्पत्ति वास्तव में उत्पन्न न
हुई भी भ्रम से उत्पन्न हुई सी प्रतीत होती है, ऐसा वर्णन किया गया है। उक्त
प्रकरण के सुनने पर श्रोता युष्मत् और अस्मत् से युक्त, जिनका अर्थ भिन्न प्रतीत
होता है, उन त्वंपद और अहंपद की एकार्थता के प्रतिपादक अनन्त ब्रह्माण्डों के
विस्तार से युक्त तथा प्रत्येक ब्रह्माण्ड में लोकालोक पर्वत और आकाश से युक्त इस
चराचर सम्पूर्ण जगत् को अपने हृदय में मूर्त द्रव्यता से रहित, भेदशून्य, अतएव
पर्वत आदि पदार्थों से रहित, पृथिवी आदि भूतों से रहित, संकल्पमय (कल्पनामय) नगर
के तुल्य असत्, स्वप्न में जो मनोमय पदार्थ दिखाई देते हैं, उनके तुल्य, मनोराज्य
के समान स्थित, अर्थशून्य होने के कारण गन्धर्व नगर के सदृश, दो चन्द्रमाओं की
भ्रान्ति के सदृश, मृगतृष्णा में जल की भ्रान्ति के समान समझता है तथा नाव आदि के
चलने से पर्वत, वृक्ष आदि के चलनभ्रम के सदृश, सत्य पुरुषार्थ से शून्य, चित्त के
मोह से कल्पित भूत के सदृश, निर्बीज होने पर भी (जगत् की बीज माया के मिथ्या होने
से और आत्मा के निर्विकार होने से बीजरहित होने पर भी) प्रकाशमान, कथा के अर्थ के
प्रतिभास के समान (कथा सुनने में आसक्ति होने से संस्कार द्वारा प्रत्यक्ष के सदृश
कथा के अर्थ की प्रतीति होना लोक में प्रसिद्ध है), आकाश में कल्पित मुक्तावली के सदृश, सुवर्ण में कंकणत्व आदि
की नाईं एवं जल में तरंगत्व की नाईं (ф) और
आकाश में नीलिमा के सदृश असत् ही यह सदा उत्पन्न हुआ है, भीत (जिस पर चित्र बनाया
जाता है) और विविध रंगों के बिना केवल प्रतीतिमात्र से (पूर्व अनुभव के स्मरणमात्र
से) मनोहर एवं कर्ता से रहित चित्र जैसे स्वप्न में या आकाश में चिरकाल तक प्रतीत
होता है तथा जैसे चित्रलिखित अग्नि अग्नि न होने पर भी अग्नि सी प्रतीत होती है,
वैसे ही मिथ्याभूत यह प्रपंच जगत् शब्द के अनुरूप अर्थ को जाता है।
ф कंकणता
और तरंगता का सुवर्ण, जल के स्वरूप के बिना निरूपण नहीं हो सकता, अतः वे मिथ्या
हैं, वैसे ही यह भी मिथ्या है।
(गच्छति) यानि
विचार में नहीं ठहरता इस अर्थ को धारण करता है। तरंगों में भ्रान्ति से कल्पित नील
कमलों की माला के तुल्य, पहले देखे गये स्मृतिपथ में आरूढ़ हो रहे नृत्य के समान
मन में उत्थित, जैसे चित्त होकर सोये हुए पुरुष या कवि को चक्रवाक के (चकवा पक्षी
के) चीत्कार से पूर्ण आकाश को देखने पर यह तालाब है, ऐसी उत्प्रेक्षा होती है,
वैसे ही यह जगत् भी उत्प्रेक्षित है। ग्रीष्म ऋतु में पत्तों से शून्य, सूखे हुए
और सारहीन अतएव छाया, शोभा आदि से रहित और फल आदि समृद्धि से शून्य वन की नाईं,
मरण के समय में व्यग्र हुए लोगों के मन की नाईं (मरण के समय व्यग्र हुए लोगों का
मन भ्रम और मूर्च्छा से युक्त और अस्थिर रहता है, यह प्रसिद्ध है), पर्वतों की
गुफाओं की तरह (गुफाएँ अन्धकार से भरी हुई, शून्य और भयंकर होती हैं, वैसे ही यह
भी है), अन्धकारपूर्ण गुफा में प्रत्येक के नृत्य के सदृश, उन्मत्त पुरुषों की
चेष्टाओं के सदृश, भीत में लिखे हुए चित्र एवं खम्भे में खोदी हुई मूर्ति के समान
तथा पंक आदि से बनाई गई प्रतिमा के सदृश पृथकसत्ता से शून्य है, ऐसा समझता है।
परमार्थ दृष्टि से यह प्रशान्त और अज्ञानरूपी कुहरे से शून्य ज्ञानरूपी शरत्काल के
आकाश के सिवा अन्य कुछ नहीं है, अर्थात् अज्ञान के विकार के दूर होने पर यह नित्य
निर्विशेष सच्चिदानंद परब्रह्म में पर्यवसित हो जाता है। तदुपरान्त चौथा
स्थितिप्रकरण कहा गया है, तीन हजार श्लोकवाले उस प्रकरण में प्रपंच और उसके
अधिष्ठान तत्त्व का वास्तविक प्रतिपादन और कथाएँ प्रचुर मात्रा में हैं। ब्रह्म ही
द्रष्टा और दृश्य भाव को स्वीकार कर इस प्रकार जगत्-रूप से और अहंरूप से स्थिति को
प्राप्त हुआ है, ऐसा स्थितिप्रकरण में बतलाया गया, दस दिशाओं के मण्डल की विशालता
से दैदीप्यमान यह जगदभ्रम चिरकाल से इस प्रकार वृद्धि को प्राप्त हुआ, यह बात
उसमें भली भाँति समझाई गई है। तदनन्तर पाँच हजार श्लोकों से विरचित परम पवित्र तथा
विविध युक्तियों से अतिरमणीय पाँचवाँ उपशान्तिप्रकरण कहा गया है। उक्त प्रकरण में
यह (जगत), मैं, तुम और वह यों उत्पन्न हुई भ्रान्ति इस प्रकार शांत होती है, यह
बात अनेक श्लोकों से दर्शाई गई है। उपशान्तिप्रकरण के सुनने पर यह संसार
जीवन्मुक्तिक्रम से क्षीण होता हुआ अंशतः अवशिष्ट रहता है। जैसे जीर्णशीर्ण
चित्रलिखित सेना कुछ दिखाई देती है, वैसे ही जिसका भ्रमपूर्ण स्वरूप शान्त हो गया
है ऐसी यह संसृति शतांश शेष रह जाती है।।13-34।।
उत्तरोत्तर
भूमिका की प्राप्ति होने पर अधिक विनाश होने से दृश्य और अदृश्य संस्कारमात्र से
इसकी अवशिष्टता दृष्टान्तों से कहते हैं।
यह संसार अन्य
के संकल्प से विरचित होने के कारण अन्य के चित्त में स्थित अतएव मिथ्याभूत, जिसमें
संकल्प करने वाले पुरुष के पास बैठे हुए अन्य पुरुष के स्वप्न के युद्ध और
वादविवाद से कुछ भी धन आदि वस्तु प्राप्त नहीं होती ऐसी नगरश्री के समान है,
मिथ्या होने के कारण संसार और उक्त नगरश्री दोनों तुल्य हैं, अतएव अन्य की क्रिया
और शब्द के अविषय भी हैं, वह जैसे स्वप्न देखने वाले की दृष्टि से कुछ स्पष्ट
दृश्य है, किन्तु संकल्प करने वाले की दृष्टि से तनिक भी दृश्य न होती हुई अपने आप
शान्त हो जाती है वैसे ही यह संसार बना है, यह भाव है।।35।। उससे भी अधिक शान्ति
का प्रकर्ष होने पर अदृश्य अवस्था से अन्त यह संसार शान्त हुए संकल्प से कल्पित
मदोन्मत्त गजराज के समान निरंकुश मेघ की भीषण गर्जना के समान, जिस नगर का स्वप्न
द्वारा निर्माण या संकल्प द्वारा निर्माण भूल गया है, उस नगर के समान भावी (बनाये
जाने वाले) नगर की वाटिका में बच्चा पैदा करने वाली बाँझ की स्त्री के समान
शून्यस्वरूप से युक्त, उक्त वन्ध्या स्त्री की जिह्वा से कही जा रही अपने पुत्र के
युद्ध आदि की वीररस पूर्ण कथा के अर्थ के अनुभव के तुल्य, जिस घर में चित्र नहीं
लिखा गया उस घर की चित्रों से भरी हुई भीत की नाईं, जिसकी अर्थशून्य कल्पना
विस्मृत होती जा रही है, उस कल्पित नगरी के सदृश, भावी फूलों के वन के आकाररूप
वसन्त से रसरंजित तथा सम्पूर्ण ऋतुओं से युक्त होने पर भी अनुत्पन्न वन के स्पन्दन
(उल्लास विकास) के सदृश अस्पष्ट आकारवाला तथा तरंगमालाओं के अपने में समा जाने से
अतिनिश्चल जल से युक्त नदी के समान प्रतीत होता है।।36-39।। तदुपरान्त निर्वाण नाम
का छठा प्रकरण कहा गया है। शेष ग्रन्थ उसका परिमाण है अर्थात् बत्तीस हजार श्लोकों
में से ऊपर गिने गये साढ़े सत्रह हजार श्लोकों से शेष साढ़े चौदह हजार ग्रन्थ उसका
परिमाण है यानी इसकी श्लोक संख्या साढ़े चौदह हजार है। यह प्रकरण ज्ञानरूपी महान्
(दुर्लभ) पदार्थ क (परम पुरुषार्थ को) देने वाला है। उसके ज्ञात होने पर
मूलअविद्या का सर्वनाश होने से सम्पूर्ण कल्पनाएँ शान्त हो जाती है और मोक्षरूप
कल्याण प्राप्त होता है। बहुत क्या कहें, उक्त प्रकरण के भली भाँति हृदयंगम होने
पर जीव के सम्पूर्ण सांसारिक भ्रम विनष्ट हो जाते हैं और वह निर्विषय चैतन्य
प्रकाशरूप अतएव सम्पूर्ण आधिव्याधियों से रहित तथा विगत स्पृह हो जाता है। उसकी
सम्पूर्ण जगत्-यात्राएँ शान्त हो जाती हैं तथा कृतकृत्य होने से वह स्वस्थ हो जाता
है जैसे हीरे का खम्भा अपने में किसी प्रकार के विकार के बिना ही अपने में
प्रतिबिम्बित जनता और उसकी चेष्टाओं का आधार होता है वैसे ही आकाश तुल्य
(सर्वव्यापक) उक्त जीव भी सबका आधार हो जाता है। मानों सम्पूर्ण जगत्-जलों के
निगलने से अति तृप्ति को प्राप्त हो जाता है। उसके बाह्य इन्द्रियों के भोग और
मानसिक भोग सब शान्त हो जाते हैं। वह आधिभौतिक आध्यात्मिक और आधिदैविक सम्पूर्ण
विषयों में स्वीकार और परित्याग दृष्टि से रहित हो जाता है अतएव देहयुक्त होने पर
भी देह रहित सा संसार में रहने पर भी असंसारी हो जाता है, निविड़ पत्थर के हृदय की
भाँति छिद्र रहित और वस्तुएँ भी जिसकी उपमा हों इस प्रकार का वह चैतन्यरूप सूर्य
अपने अज्ञान से कल्पित लोकों को आत्माकार वृत्ति से खूब प्रदीप्त हुए अपने प्रकाश
से दीप्त करता हुआ भी (प्रकाशरूप होता हुआ भी) दृश्य पदार्थों के न होने से ही
उनके प्रकाश के अविषय में निविड़ हुए अन्धकाररूप पत्थर के सदृश परम अन्धकार को
प्राप्त हुआ-सा हो जाता है, उसकी जन्ममरणरूप संसार की दुष्ट लीलाएँ शान्त हो जाती
हैं और आशारूपी हैजा नष्ट हो जाता है। उसका अहंकाररूपी पिशाच नष्ट हो जाता है तथा
वह शरीर रहित होता हुआ भी देहवान् रहता है। भगवती श्रुति भी कहती है -'अशरीरं
शरीरेष्वनवस्थेष्व-वस्थितम्। महान्त विभुमात्मानं मत्वा धीरो न शोचति' (शरीर रहित
होता हुआ भी नश्वर शरीरों में स्थित महान् विभु आत्मा को जानकर धीर पुरुष शोक नहीं
करता) जैसे महान् मेरू पर्वत के किसी एक प्रदेश में फूल में भँवरी बैठी रहती है
वैसे ही उसके सिर के रोम के अग्रभाग में अर्थात् रोमकोटि के तुल्य परिच्छिन्न
अविद्या के भी अग्रभाग में (एकदेश में) यह जगत्सम्पत्ति स्थित है।।40-48।।
विस्तारशून्य
प्रदेश में अतिविस्तारयुक्त जगत की प्रतीति कैसे होती है। ऐसी शंका होने पर छोटे
से दर्पण के अन्दर मेघ, ग्रह और नक्षत्रों से युक्त आकाश का समावेश सबको दिखाई
देता है, अतः अज्ञान के लिए यह कोई कठिन काम नहीं है कि विस्तारशून्य प्रदेश में
अतिविस्तारयुक्त जगत दिखलाई दे, इस अभिप्राय से कहते हैं।
चैतन्यघन
परमात्मा अपने अपने भीतर कल्पित आकाश में, परमाणु-परमाणु में हजारों जगतों को
स्वयं बनाकर धारण करता है और स्वयं उन्हें देखता है। श्रीरामचन्द्रजी, महामति
जीवन्मुक्त पुरुष का हृदय परमात्मा ही है, उसकी विस्तीर्णता का माप करोड़ों हरि,
हर आदि भी नहीं कर सकते। उनकी ऐसा करने की सामर्थ्य नहीं है, सो बात नहीं है,
किन्तु सत्ता से, अनन्तता से और आनन्दस्वरूपता से जिससे बढ़कर उत्कृष्ट कोई वस्तु
ही नहीं है, उस परमात्मा की अपरिच्छिन्नता पारमार्थिक ही है, आकाश आदि की तरह
द्रष्टा पुरुष की शक्ति से कल्पित नहीं है, यह भाव है।।49,50।।
सत्रहवाँ सर्ग
समाप्त
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