सत्रहवाँ सर्ग
दीनता, कृपणता और मृत्यु देने वाली,
सम्पूर्ण जगत् को मोह में डालनेवाली तथा अनेकविध पापों की जननी तृष्णा की निन्दा।.....
श्लोक २३ से आगे ...........
संसाररूप विशाल जंगल में जरा, मरण आदि विकसित कुसुमों से युक्त
एवं विनिपात और उत्पात आदि फलों की जननी तृष्णा विस्तृत विष लता है।।24।। तृष्णा
जीर्ण नर्तकी के समान जिस कार्य के साधन में अशक्त है, (नर्तकी के पक्ष में) जहाँ
जाने में असमर्थ है, वहाँ भी ताण्डवगति धारण करती है और उत्साह न होने के, निर्बल
होने के कारण आनन्दरहित नृत्य करती है।।25।। चिन्तारूपी चपल मयूरी निहार में
निहारसदृश मोहावरण में – नृत्य करती है, आलोक के आने पर विवेकरूप प्रकाश होने
पर-शान्त हो जाती है, और असाध्य वस्तुओं में अपना कदम रखती है। मयूरी भी वर्षा में
नृत्य करती हैं, शरत् में शान्त हो जाती है और दुर्गम स्थानों में गमन करती है।
जैसे अन्यकाल में बहुत दिनों तक शून्य रहने वाली और वर्षा में भी बीच-बीच में
शून्य रहने वाली नदी वर्षाकाल में जलकल्लोंलों से प्रचुर होकर क्षण में ही उल्लास
को प्राप्त होती है, वैसे ही चिरकाल तक शून्य, फल पाने पर भी मध्य-मध्य में शून्य
यह तृष्णा जड़ पदार्थों में अनेक प्रकार के कल्लोलों से-आनन्दों से – पूर्ण होकर
क्षण में ही उल्लसित हो जाती है।।26,27।। चंचल बन्दरीरूपी तृष्णा दुष्प्राप्य
स्थान में भी अपना कदम रखती है, तृप्त होने पर भी फल की आशा करती है, एक स्थान पर
अधिक कालतक नहीं ठहरती, अतः वह चपल बन्दरी है।।29।। जैसे प्राणियों के कर्मों के
अनुसार विधाता सदा चेष्टा करते हैं, वैसे ही यह तृष्णा भी शुभ कर्म का आरम्भ करके
उसकी समाप्ति न करके अशुभ, अनुचित, असंजस या प्रकमविरूद्ध सभी कार्यों का अनुसरण
करती है, उपरत नहीं होती, किन्तु शुभाशुभ के लिए सर्वदा चेष्टा करती रहती है।।30।।
क्षण में पाताल में जाती है, क्षण में आकाश की ओर उड़ती है, क्षण में दिशारूप
निकुंजों में घूमती है, इसलिए यह तृष्णा हृदयरूपी कमल में रहने वाली भँवरी
है।।31।। संसार में जितने दोष हैं उनमें एक तृष्णा ही दीर्घ काल तक दुःख देने वाला
दोष है, जो अन्तःपुर में रहने वाले को भी भीषण संकट में डाल देती है।।32।।
परम-आत्मतत्त्वप्रकाश के साथ विरोध करने वाली मोहरूप निहार से निविड़ मेघमालारूपी
तृष्णा केवल जड़ता ही प्रदान करती है। मेघमाला भी सूर्यप्रकाश की विरोधिनी है,
निहार से पूर्ण होती है और शैत्यरूपी (शीतलतारूपी) जड़ता की दात्री है। अतः तृष्णा
और मेघमालिका का साम्य उचित ही है।।33।। जैसे अनेक पशुओं के बाँधने के लिए गले में
लगी हुई रस्सियों से ग्रथित मालासदृश तिरछी विस्तृत रज्जू होती है वैसे ही
सांसारिक व्यवहार में फँसे हुए प्राणियों के समूहों में मनों को चारों ओर से
बाँधने के लिए यह तृष्णारूप रज्जु है।।34।। जैसे इन्द्रधनुष विस्मयोत्पादक अनेक
प्रकार के रूपों से युक्त, विगुण-ज्या से रहित, लम्बा-चौड़ा, मेघाश्रित,
शून्यात्मक आकाश में स्थित और स्वतः शून्य-अवस्तु है, वैसे ही यह तृष्णा भी
विचित्र विषयों से अनुरंजित, असत् गुणों से युक्त, दीर्घ, मलिन पुरुष में आश्रित
और शून्यात्मक मन में स्थित है।।35।। तृष्णा गुणरूपी धान्यों के लिए वज्र है,
फलरूप आपत्तियों के लिए शरदऋतु है, संवितरूप-तत्त्वज्ञानरूप-कमलों के लिए हिम
है-विघातिका है एवं अज्ञान के लिए दीर्घ हेमन्त की रात्रि है।।36।। तृष्णा
संसाररूप नाटक में नटी है, प्रवृत्तिरूप घोंसले में रहने वाली चिड़िया है,
मनोरथरूप अरण्यों में रहने वाली हरिणी है और स्मरको-कामदेव को बढ़ाने के लिए
संगीतवीणा है।।37।। तृष्णा व्यवहाररूपी समुद्र की लहरी है, मोहरूप मत्त हाथियों की
श्रृंखला है, सृष्टिरूप वटवृक्ष की की सुन्दर लता है, दुःखरूप कमलीनियों की
चन्द्रिका है, जरा, मरणरूप दुःखों की एक रत्नपेटिका है और सदा आधि, व्याधिरूप
विलासों की मदमत्त विलासिनी है। तृष्णा को आकाशरूपी मार्ग की उपमा दी जा सकती है,
क्योंकि जैसे आकाश कभी सूर्यप्रकाश से निर्मल हो जाता है, कभी मेघाच्छन्न होने पर
कुछ-कुछ अँधियारी छा जाती है और कभी कुहरे से आवृत्त हो जाता है, वैसे ही तृष्णा
भी कभी तनिक विवेकरूपी प्रकाश से निर्मल हो जाती है, विवेक न होने पर अज्ञान से
मलिन और कभी कुहरे के तुल्य व्यामोह से व्याप्त हो जाती है।।38-40।।
यों तृष्णा का वर्णन कर अब तृष्णा की शान्ति का फल कहते है।
जैसे गाढ़ अन्धकार से अँधेरी कृष्णपक्ष की रात्रि निशाचरों
(राक्षसों) के प्रचार के अभाव के लिए विनष्ट
हो जाती है अर्थात् राक्षसों का इतस्ततः गमन न हो, इसलिए बीत जाती है, वैसे
ही तृष्णा भी देहप्रयुक्त परिश्रम की शान्ति के लिए (मुक्ति के लिए) नष्ट हो जाती
है। अर्थात् तृष्णा की शान्ति होने से मुक्ति
हो जाती है।।41।। वेदान्त आदि आध्यात्मशास्त्रों के विचार से शून्य अतएव
व्याकुलचित्त के संसारी लोग तभी तक मोह को प्राप्त होते हैं जब तक विषयप्रयुक्त
विसूचिका रोग के समान मृत्यु की हेतु तृष्णा पीछा करती रहती है अर्थात् लोग उसका
त्याग नहीं करते।।42।।
उसके त्याग का क्या उपाय है ? इस पर
कहते हैं। यहाँ पर चिन्ता का अर्थ विषयों का स्मरण है। उक्त चिन्ता के
त्याग से संसारी जनों का दुःख नष्ट हो जाता है। विद्वानों ने चिन्तात्याग को ही
तृष्णारूपी विसूचिका (हैजा) का मंत्र (प्रतीकारक उपाय) कहा है।।43।। जैसे तालाब
में रहने वाली मछली घास-पत्ती, पत्थर-लकड़ी आदि सभी मेरा भक्ष्य है, ऐसा समझकर
अन्त में भक्ष्ययुक्त बंशी को (मछली को फँसाने के काँटे को) भी मुँह में डालकर
मछुए द्वारा मारी जाती हुई फड़फड़ाती है वैसे ही तृष्णा भी तृण, पत्थर, काष्ठ आदि
निखिल वस्तुओं को अपना भक्ष्य समझकर ग्रहण करती हुई अन्त में स्फूर्ति को प्राप्त
होती है।।44।। जैसे सूर्य की किरणें मुकुलित कमल को विकसित करा देती हैं, वैसे ही
रोग, पीड़ा, स्त्री और तृष्णा भी धीर पुरुष को भी शीघ्र अधीरता को प्राप्त कर देती
हैं। अर्थात् जैसे सूर्यकिरणें मुकुलितावस्था में गम्भीर (गहरे) कमल को खूब विकसित
कर उत्तान (छिछला) कर देती है, वैसे ही तृष्णा भी धीर-अयाचित-व्रत-पुरुष को शीघ्र
अधीर-याचना द्वारा लघु-बना देती है।।45।। तृष्णा बाँस की लता के समान सदा
अन्तःसारशून्य (भीतर से खोखली), ग्रन्थियों से युक्त (तृष्णाओं के पक्ष में
दुराग्रहरूपी ग्रन्थियों से युक्त और बाँस के पक्ष में पोररूपी ग्रन्थियों से
युक्त), बड़ी-बड़ी चिन्ताओं और दुःखों से पूर्ण (बाँस के पक्ष में बड़े बड़े कोपलों
के काँटों से युक्त), मोती और मणियों पर प्रेम करने वाली (बाँस के पक्ष में
सर्वजनप्रिय मोतीरूपी मणियों की उपलब्धि के स्थान) है अर्थात् जैसे बाँस की लताएँ
सदा भीतर से खोखली रहती हैं, उनके बीच में बहुत सी गाँठें होती हैं, उनमें बड़े
बड़े कोंपलों के काँटे होते हैं और सर्वजन मनोहर मोती उनमें उपलब्ध होते हैं, वैसे
ही तृष्णाएँ भी खोखली, दुराग्रह से भरी, बड़ी चिन्ताओं और कष्टों से पूर्ण और
मोती, मणि आदि धन सम्पत्ति में अति प्रेम करने वाली होती है।।46।।
विवेक भी तृष्णा के नाश में हेतु हैं, ऐसा दर्शाते हैं।
यह बड़े आश्चर्य की बात है कि ऐसी दुश्चेद्य विषयतृष्णा को भी
ज्ञान सम्पन्न महानुभाव लोग विवेकरूपी निर्मल (तीक्षण) तलवार से अनायास काट डालते
हैं।।47।। हे ब्रह्मन् जीवों के हृदय में स्थित तृष्णा जैसी तीक्षण न तो तेज तलवार
की धार है, न वज्राग्नि की चिनगारियाँ हैं और न बन्दूक की गोलियाँ (छर्रे) ही
हैं।।48।।
अर्थात् तलवार की धार आदि बाह्य होने के कारण प्राणी के लिए
कदाचित ही अनर्थकारी होते हैं, पर हृदय में रहने के कारण तृष्णा सदा ही
अनर्थकारिणी होती है, इसलिए वह तलवार की धार आदि से भी बढ़कर है, यह आशय है।
जैसे दीये की लौ मध्य में उज्जवल और अन्त में कृष्णवर्ण,
अग्रभाग से तीक्ष्ण, स्नेह से युक्त, दीर्घदशायुक्त, प्रकाशमान और दुःस्पर्श होती
है, विषयतृष्णा भी ठीक वैसे ही है अर्थात् जैसे दीये की लौ पहले उज्जवल होती है,
अन्त में उसका अग्रभाग काला और तीखा हो जाता है, उसमें तेल रहता है, बड़ी बत्ती
रहती है और सन्ताप इतना अधिक रहता है कि उसे कोई छू नहीं सकता, वैसे ही विषयतृष्णा
भी पहले भोग और वैभव से उज्जवल रहती है, अन्त में तमोगुण और मृत्यु का कारण होती
है, माता, स्त्री और पुत्र के स्नेह से दीर्घ और उत्कृष्ट बाल्य, यौवन और वार्धक्य
अवस्थाओं से युक्त, प्रत्यक्ष और इष्टवियोग से उत्पन्न हार्दिक क्लेश से असह्य
है।।49।। हे महर्षि, एकमात्र विषयतृष्णा ही मेरु के सदृश अति उन्नत, गौरवशाली,
पराक्रमी, अयाचित व्रत से अटल एवं विद्वान नरश्रेष्ठ को भी एक क्षण में याचना
द्वारा दीन-हीन बनाकर तिनके के समान उपेक्षणीय और चंचल बना देती है।।50।।
किसी ने कहा भी हैः
तृणाल्लघुतरस्तूलस्तूलादपि च याचकः। वायुना किं न नीतोऽसौ
मामयं याचयिष्ति।।
अर्थात् तृण से रुई हल्की होती है और रुई से भी याचक हल्का है।
रुई को हवा उड़ा ले जाती है, पर याचक मुझसे भी कोई याचना करेगा, यह समझकर हवा उसे
नहीं उड़ाती।
जैसे विन्ध्याचल अनेक बड़े बड़े अरण्यों से पूर्ण निबिडतारूपी
जाल और घूलिपटल से आच्छन्न एवं भीषण अन्धकार और घने कुहरे से व्याप्त होता है,
वैसे ही विषयपिपासारूपिणी तृष्णा भी अरण्यतुल्य अनेक बड़े बड़े साहस के कार्यों से
युक्त, पतन हेतु होने से भयंकर, निबिड जाल की नाईं बन्ध में हेतुभूत आशारूपी रस्सी
से और रजोगुण से बनी हुई एवं अज्ञानरूपी कुहरे से व्याप्त है अथवा 'संस्तीर्णगहना' पदका – एक ही विषयतृष्णा आशा, काम,
लोभ, लम्पटता आदि के रूप से चौदहों भुवनों में व्याप्त और दुर्लक्ष्य है – ऐसा
अर्थ है।।51।।
तृष्णा कैसे विस्तीर्ण है, कैसे दुर्लक्ष्य है और कैसे एक है ? क्योंकि आश्रय, विषय और वाचक शब्द के
भेद से आशा, काम, लोभ आदिरूप से तृष्णा भिन्न भिन्न है, ऐसी आशंका कर उक्त अर्थ का
दृष्टान्तपूर्वक प्रतिपादन करते हैं।
जैसे 'रसन' इन्द्रिय के रुप से शरीर में विद्यमान
सब जलों के मध्य में (जल सामान्य में) रहने वाली एक ही माधुर्यशक्ति (नदी, समुद्र
आदि में गिरने से) क्षीर, (गलाने से) उदक, (शब्द करने से) अम्बु, इस प्रकार क्रिया
और वाचक शब्दों के भेद से विभिन्न चंचल तरंगों से संकुल जल में स्थित होकर दुर्लक्ष्य
होती है, अर्थात् एक ही है ऐसा उसका ज्ञान नहीं होता, वैसे ही शरीर में विद्यमान
तृष्णा एक होती है, अर्थात् एक ही ऐसा उसका ज्ञान नहीं होता, वैसे ही शरीर में
विद्यमान तृष्णा एक होती हुई भी सम्पूर्ण भुवनों के भोग्य पदार्थों में व्याप्त
होकर व्यवहार में दुर्लक्ष्य सी प्रतीत होती है – देहस्थित तृष्णा ने ही आशा, काम
और लोभ का वेश धारण किया है, ऐसा स्पष्ट प्रतीत नहीं होता।।52।।
सत्रहवाँ सर्ग समाप्त
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