सत्रहवाँ सर्ग
दीनता, कृपणता और मृत्यु देने वाली,
सम्पूर्ण जगत् को मोह में डालनेवाली तथा अनेकविध पापों की जननी तृष्णा की निन्दा।
रामचन्द्रजी
ने कहाः परमप्रेमास्पद आत्मतत्त्व की तिरोधान होने के कारण अंधकारपूर्ण रात्रिरूपी
दुरन्त तृष्णा से इस चेतनात्मक गगन में जीव में अनेक तरह की राग आदि दोष स्वरूप
उल्लुओं की पंक्तियाँ स्फुरने लगती हैं।।1।। जैसे ताप पहुँचाने वाली सूर्य की
किरणें कीचड़ के रस और मृदुता का अपहरण करके कीचड़ को सुखा देती हैं, वैसे ही
अन्तःकरण को सन्तप्त करने वाली चिन्ताने मेरे रस और मृदुता का हरण कर या मुझे विनय
और दाक्षिण्य से शून्य कर सूखा दिया है अर्थात् उक्त चिन्ताने मेरे विनयादि को
नष्ट कर मुझे नीरस और कठोर बना दिया है।।2।। व्यामोहरूप अन्धकार से व्याप्त
विचारशून्य मेरे चित्तरूपी बड़े जंगल में ताण्डव-नृत्य करने वाली आशारूपी पिशाचिका
का जोर-शोर से उदय हुआ है।।3।। तत्-तत् आर्त वचनों द्वारा रचित अश्रुरूप नीहार
(ओस) कणों से युक्त और समीपस्थ सुवर्ण आदि की अभिलाषा द्वारा पाण्डुता का सम्पादन
करने से उज्जवल चिन्तारूप चने की मंजरी अर्थात् तृष्णा पूर्णरूप से विकसित हो रही
है। तात्पर्य यह है कि नीहार से ही (तुषार से ही) चने के पौधे बढ़ते हैं, ऐसी
प्रसिद्धि है, इसलिए जैसे रात्रिरचित नीहार के कणों से युक्त चने के पौधे की
मंजरियाँ समीपस्थ धतूरे के बन से उज्जवल (शोभित) होकर विकसित होती हैं, वैसे ही
अनेक तरह के दुःख-विलापों से जनित अश्रुबिन्दुओं से युक्त और समीपस्थ सुवर्ण आदि
की अभिलाषा द्वारा उज्जवल मेरी तृष्णा मानों विकसित हो रही है।।4।। जैसे मध्य भाग
को चंचल करने वाली तरंग समुद्र में केवल भ्रमण करने के लिए ही विषम ऊर्ध्व नाटय को
प्राप्त होती है, वैसे ही चित्त को क्षुब्ध करने वाली तृष्णा ने केवल अंतःकरण में
निविड़ भ्रम पैदा करने के लिए ही अनेक कष्टों से पूर्ण धनोपार्जन के लिए उत्साह
प्राप्त कराया है।।5।। बढ़े हुए अधिक्षेप, अनृप भाषण आदिरूप प्रचण्ड कल्लोल शब्दों
से युक्त अतएव उक्त तरंगों से तरल आकारवाली और एक विषय से दूसरे विषय की ओर जाने
वाली तृष्णारूपी नदी मेरे शरीररूपी पर्वत में बह रही है।।6।। यद्यपि मैं अपनी
चपलता को रोकने के लिए धर्ममेघा समाधि आदि मैं तत्पर हूँ, तथापि जैसे आँधी जीर्ण
तृण को कहीं अन्यत्र ले जाती है, वैसे ही कलुषित तृष्णा ने मेरे चित्तरूपी चातक को
कहीं अन्यत्र-अयोग्य विषय – में ही प्राप्त करा दिया है।।7।। मैं विवेक, वैराग्य
आदि गुणों से युक्त पदार्थों के विषय में जिस जिस आस्था का (उत्साह का) आश्रय करता
हूँ, उस उस आस्था को मेरी तृष्णा इस तरह काट देती है, जिस तरह चूहा वीणा के
चर्मसूत्र को काट देता है। जैसे जल के आवर्त में (भौंरी में) पुराना पत्ता, वायु
में लघु तृण और आकाश में शरत्कालीन मेघ यत्र-तत्र घूमते रहते हैं, वैसे ही मैं
चिन्तारूपी चक्र में घूम रहा हूँ। जैसे जाल में फँसे हुए पक्षी अपने घोंसले में
जाने के लिए असमर्थ होने से जाल में ही पड़े रहते हैं, वैसे ही अपने पारमर्थिक
स्वरूप को प्राप्त करने में असमर्थ हुए हम लोग चिन्तारूपी जाल में मुग्ध हो रहे
हैं।।8-10।। हे मुनिवर, तृष्णारूपी ज्वाला से मैं इस प्रकार दग्ध हो गया हूँ कि
मुझे अमृत से भी अपने दाह की शान्ति की सम्भावना नहीं है। तृष्णारूपी उन्मत घोड़ी
यहाँ से अतिदूर जाकर और फिर फिर वापस आकर बड़ी शीघ्रता से चारों ओर घूम रही
है।।11,12।। धर्म और अधर्म के अनुसार नित्य स्वर्ग और नरक में गमन और आगमन कराने वाली, भोक्ता और भोग्य के
तादात्म्याध्यास एवं संसर्गाध्यास से युक्त, जड़ पदार्थों से सम्बन्द्ध एवं
विक्षुब्ध तृष्णा घटीयन्त्र के ऊपर लगी हुई रज्जु के समान है। उक्त रज्जु भी सदा
ऊपर नीचे आती जाती रहती है, जल से सम्बन्ध रखती है, गाँठवाली है एवं चचल रहती है।
देह के भीतर मन में गूँथी गई तथा किसी प्रकार किसी से विच्छिन्न न की जाने वाली इस
तृष्णारूपी रज्जु से बैल के समान ये मनुष्य अत्यन्त शीघ्रता से ऐहिक और आमुष्मिक
(परलोक के) फल के हजारों साधनरूपी भार को वहन करते हैं।।13,14।। जैसे बहेलिये की
स्त्री पक्षियों को फँसाने के लिए जाल बनाती है वैसे ही सदा आकर्षण स्वभाववाली
तृष्णारूपी किराती ने लोगों को फँसाने के लिए यह पुत्र, मित्र, कलत्र आदिरूप जाल
बनाया है।।15।। यद्यपि मैं धीर हूँ, तथापि भयंकर काली रात्रि की नाईं तृष्णा मुझे
डरा रही है, विवेकरूपी चक्षु से सम्पन्न हूँ फिर भी अन्धा बना रही है और
आनन्दस्वभाव हूँ तो भी दुःख दे रही है। हजारों कुटिलताओं से पूर्ण, अंशतः सुख देने
वाले विषयों के लाभ से युक्त और परिणाम में वैर बन्धन आदिरूप विषय देने वाली यह
तृष्णा तनिक स्पर्श होने पर ही काली नागिन की नाईं डस लेती है अर्थात् मोह में डाल
देती है।।16,17।। पुरुषों के हृदय को भेदन करने वाली, बन्धन, रोग आदि की या सारे
प्रपंच की उत्पादक, दुर्भाग्य देने वाली और दीनता से पूर्ण यह तृष्णा काली राक्षसी
के सदृश है।।18।। हे ब्रह्मन्, अनेक तन्त्रियों (तारों) और नाड़ियों से वेष्टित
शरीर को धारण करने वाली तृष्णा निरतिशय परमानन्द के लिए उपयुक्त नहीं है, अतः यह
जीर्ण तुम्बी से युक्त वीणा है। तात्पर्य यह है कि जैसे आलस्यवश अन्य तुम्बी का
सम्पादन न करने के कारण विच्छिन्न तन्त्रियों से सम्पन्न वीणा उत्सव आदि मांगलिक
कार्यों के लिए उपयुक्त नहीं होती, वैसे ही यह तृष्णा भी परमानन्द के लिए उपयुक्त
नहीं है।।19।। नित्य अतिमलिन, परिणाम में दुःखप्रद उन्माद को देने वाली, दीर्घ
तन्त्रियों से युक्त तथा विषयों में घनीभूत स्नेह करने वाली तृष्णा पर्वत की गुफा
में उत्पन्न लतारूप ही है अर्थात् पर्वत गुफा में एक प्रकार की लता होती है, वह
सूर्य के किरणों के न मिलने से अत्यन्त मलिन रहती है, उसका सेवन करने से परिणाम
में उन्माद आदि दुःखप्रद व्याधियाँ होती हैं और वह अत्यन्त विस्तृत होती है।
इसीलिए तृष्णा और उसकी समानता है। जैसे आम आदि उन्नत वृक्षों की शाखापर स्थित, सूख
जाने के कारण अनेक कण्टकों से आकीर्ण, पुष्पशून्य और फलरहित क्षीण मंजरी आनन्दप्रद
नहीं होती, वैसे ही यह तृष्णा न आनन्दप्रद है, न सुखप्रद है और न फलप्रद है, किन्तु व्यर्थ-विस्तृत है,
अमंगलकारिणी है और क्रूर है।।20,21।। चित्त को अपने वश में करने में असमर्थ वृद्ध
वेश्या के समान तृष्णा प्रत्येक पुरुष के पीछे दौड़ती है, पर उसे फल कुछ नहीं
मिलता।।22।। अनेक प्रकार के शोक, मोह आदि रसों से परिपूर्ण इस महान् संसारसमूह में
भुवनरूपी विस्तृत नाटयशाला में तृष्णा वृद्ध नर्तकी है अर्थात् करूण, हास्य और
बीभत्स आदि रसों से युक्त नृत्यशाला में स्थित वृद्ध वेश्या के समान तृष्णा
है।।23।। .................... क्रमशः
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