मासिक साधना उपयोगी तिथियाँ

व्रत त्योहार और महत्वपूर्ण तिथियाँ

25 फरवरी - माघी पूर्णिमा
03 मार्च - रविवारी सप्तमी (शाम 06:19 से 04 मार्च सूर्योदय तक )
06 मार्च -
व्यतिपात योग (दोपहर 14:58 से 07 मार्च दिन 12:02 मिनट तक)
08 मार्च - विजया एकादशी (यह त्रि स्पृशा एकादशी है )
09 मार्च - शनि प्रदोष व्रत
10 मार्च - महा शिवरात्री (निशीथ काल मध्यरात्री 12:24 से 01:13 तक )
11 मार्च - सोमवती अमावस्या (
सूर्योदय से रात्री 1:23 तक )
11 मार्च - द्वापर युगादी तिथि
14 मार्च - षडशीति संक्रांति (पुण्यकाल शाम 4:58 से
सूर्योदय तक)
19 मार्च - होलाष्टक प्रारम्भ
20 मार्च - बुधवारी अष्टमी (
सूर्योदय से दोपहर 12:12 तक)
23 मार्च - आमलकी एकादशी
24 मार्च - प्रदोष व्रत
26 मार्च - होलिका दहन
27 मार्च - धुलेंडी , चैतन्य महाप्रभु जयंती
29 मार्च - संत तुकाराम द्वितीय
30 मार्च - छत्रपति शिवाजी जयन्ती

गुरुवार, 20 सितंबर 2012

श्री योगवासिष्ठ महारामायण - 18


सत्ताईसवाँ सर्ग
पूर्व में उक्त और अनुक्त मोक्ष के विरोधी पदार्थों में, वैराग्य के लिए, विस्तारपूर्वक दोषों का वर्णन।

पहले जो कहे जा चुके हैं और जो नहीं कहे गये, उन सम्पूर्ण पदार्थों में अन्यान्य दोषों को दर्शाते हुए अपने चित्त की शान्ति के कारणीभूत पदार्थ की अप्राप्ति को दर्शाते हैं।
श्रीरामचन्द्रजी ने कहाः मुनिवर, और सुनिये, वस्तुतः अत्यन्त अरमणीय पर जब तक विचार नहीं किया जाता है, तब तक रमणीय सा मालूम पड़ने वाले इस जगत में जिस पदार्थ के प्राप्त होने से चित्त में शान्ति (पूर्णकामता) प्राप्त हो वैसा कोई भी पदार्थ मेरी समझ में नहीं आता। विचार कर देखिये, बाल्यावस्था विविध प्रकार से कल्पित क्रीड़ाकौतुक में ही बीत जाती है, उसमें चित्त की स्थिरता का लेश भी नहीं रहता। तदुपरान्त यौवन पदार्पण करता है। यौवन में चित्तरूपी मृग स्त्रीरूपी गुफाओं में ही जीर्ण हो जाता है, उसमें भी चित्त में शान्ति नहीं रहती। तदनन्तर वृद्धावस्था के प्राप्त होने पर शरीर जीर्ण-शीर्ण हो जाता है, उस समय भी शान्ति नहीं रहती, यों पुरुषार्थ साधनाशून्य अतएव व्यर्थ आयु बिताने से मनुष्यों को केवल दुःख ही दुःख प्राप्त होता है, सुख-शान्ति का कहीं लेश भी नहीं है। वृद्धावस्थारूपी हिमवर्षा से नष्ट हुई शरीररूपी कमलिनी का परित्याग कर जब प्राणरूपी अतिदूर चला जाता है, तब मनुष्य का यह संसाररूपी सरोवर सूख जाता है।।1-3।। वृद्धावस्था आक्रान्त, जिसमें अनेक पलितादि नये-नये फूल खिले हैं और अत्यन्त जीर्ण मनुष्यों की शरीररूपी लता जब अत्यन्त पाक (परिणाम) को प्राप्त हो जाती है, तब यह मृत्यु को अति आनन्द देती है, अर्थात् जरा-जीर्ण शरीर को देखकर मृत्यु को बड़ा आनन्द होता है, यह भाव है।।4।। इस लोक में तृष्णारूपी नदी निरन्तर बहती है, वह अपने प्रबल वेग से संसार के सम्पूर्ण अनन्त पदार्थों को निगल गई है और सन्तोषरूपी तटवृक्ष की जड़ों को खोदने में बड़ी दक्ष है। भाव यह है कि संसार के अखिल और अनन्त पदार्थों को निगल कर भी इसे सन्तोष नहीं हुआ है। चर्म से आच्छादित यह शरीररूपी नौका संसाररूपी समुद्र में सुख दुःखरूपी तरंगों से व्याकुल और हलकी होने  के कारण स्वयं भी इधर-उधर घूम रही है और इसीलिए नीचे डूबने को तैयार है, पाँच इन्द्रियरूपी मगर भी इसके डूबने में सहायक हो रहे हैं, क्योंकि इसमें बैठे हुए जीव वैराग्यमुक्त और धैर्यशाली नहीं है। ऋषि जी, जिसमें तृष्णारूपी लताएँ ही अधिक हैं, ऐसे वन में घूमने वाले ये मनरूपी बन्दर कामरूपी वृक्षों की सैंकड़ों शाखाओं में घूमकर व्यर्थ ही आयु क्षीण करते हैं, उन्हें फल कुछ भी प्राप्त नहीं होता। अर्थात् काम विशाल वृक्ष समान है, वह तृष्णारूपी लताओं से आच्छादित भी है, उसकी असंख्य शाखा-प्रशाखाएँ हैं। मनरूपी बन्दर फल की इच्छा से उनमें निरन्तर पर्यटन करते हैं, मगर उन्हें इच्छित फल की प्राप्ति नहीं होती।।5-7।। महर्षे, जिन्हें आपत्तियों में दुःख और मोह प्राप्त नहीं होते, सम्पत्तियों में जिनके मन में तनिक भी अहंकार नहीं आता और स्त्रियों द्वारा जिनका अन्तःकरण दूषित नहीं होता ऐसे महान पुरुष इस समय अतिदुर्लभ हैं। जब मैं वीरता के उत्कर्ष का विचार करता हूँ तब मुझे गजघटारूपी तरंगों से पूर्ण संग्रामसागर को जो तैरते हैं वे शूर प्रतीत नहीं होते, मैं उन्हीं को शूरवीर समझता हूँ, जो लोग मनरूपी तरंगों से पूर्ण इस वर्तमान देह, इन्द्रियरूपी सागर को विवेक, वैराग्य आदि द्वारा और भावी देह, इन्द्रियरूप सागर को मूलअज्ञान के उच्छेद द्वारा भलीभाँति तैर जाते हैं। मगर ऐसा करना बड़ा कठिन है, क्योंकि उसके उपाय ही दुर्लभ हैं।।8-9।।
कर्म ही देह, इन्द्रियरूपी सागर को तरने का उपाय है, ऐसी शंका पर कहते हैं।
किसी की कोई भी क्रिया संसार के आत्यन्तिक विनाशरूप फल को देने वाली नहीं है। क्रियारूपी दुराशा पिशाची द्वारा जिसकी चित्तवृत्ति नष्ट हो गई है, ऐसा पुरुष जिस क्रिया का अवलम्बन कर विश्रान्ति को प्राप्त हो, ऐसी क्रिया कोई नहीं दिखाई देती, क्योंकि 'तद् यथेह कर्मचितो लोकः' अर्थात् जैसे इस लोक में कृषि आदि कर्म से प्राप्त उपार्जित स्वर्ग आदि लोक भी क्षीण हो जाते हैं, ऐसी श्रुति है। अतएव कर्म में कृषि आदि कर्म से प्राप्त उपार्जित स्वर्ग आदि लोक भी क्षीण हो जाते हैं, ऐसी श्रुति है। अतएव कर्म से जो फल उत्पन्न होता है, उसका अवश्य विनाश हो जाता है, ऐसा नियम लोक में देखा भी जाता है।।10।।
भाग्योदय हुए बिना कीर्ति, प्रताप, लक्ष्मी आदि छोटे-मोटे फल भी, धैर्य आदि के नाशक राग, लोभ आदि की प्रबलता के कारण, जब दुर्लभ होते हैं, तब महाफल मोक्ष तो भाग्योदय हुए बिना हो नहीं सकता, इसमें कहना ही क्या है ? इस अभिप्राय से कहते हैं।
जो महापुरुष कीर्ति से संसार को, प्रतापों से दिशाओं को, सम्पत्ति से याचकों और क्षमा, विनय, उदारता आदि सात्विक बल से(ς) लक्ष्मी को पूर्ण करते हैं, कभी क्षीण न होने वाले धैर्य से परिपूर्ण ऐसे महापुरुष पृथिवी में सुलभ नहीं है।।11।।
ς क्षमा, विनय, उदारता आदि से लक्ष्मी पूर्ण सी प्रतीत होती है।
भाग्योदय होने पर सब जगह अभीष्ट वस्तु प्राप्त हो जाती है, इसलिए पुरुष का प्रयत्न विफल है, इस अभिप्राय से कहते है।
पहाड़ की शिलामय चट्टान के भीतर स्थित भी एवं वज्र से बने हुए घर के भीतर बैठे हुए भी भाग्यशाली पुरुष के पास सम्पूर्ण अणिमा आदि सिद्धियाँ और सम्पत्तियाँ बड़े वेग के साथ आ जाती हैं, जैसे कि आपत्तियाँ आती हैं अर्थात् जैसे बुरे दिनों में आपत्तियाँ अनायास प्राप्त हो जाती है, वैसे ही भले दिनों में सम्पत्तियाँ और सिद्धियाँ भी अपने आप वेगपूर्वक आ जाती हैं।।12।। पूज्यवर, भ्रान्तिवश पुत्र, स्त्रियाँ, धन आदि जो सम्पूर्ण रसायन के समान सुखसाधन समझे जाते हैं, मृत्युकाल आने पर वे पुत्र आदि अतिरमणीय भोगजनक विषय कुछ नहीं करते, परन्तु विष की मूर्च्छा के समान अत्यन्त दुःखदायी ही होते हैं। शरीर की बाल्य आदि अवस्थाओं के अवसान में अर्थात् वृद्धावस्था में दुःखमय विषमावस्था को प्राप्त हुआ अतएव दुःखी जीर्ण पुरुष इस लोक में अपने पुण्य संचयशून्य अतीत कर्मों का स्मरण कर दुःसह अन्तर्दाह से जलता है।।13,14।। मनुष्य जीवन के आरम्भ में कमाने की भोगतृष्णा की प्रबलता से मोक्षमार्ग का परित्याग केवल काम और अर्थ की चिन्ता से युक्त होता है और तदनुसारी कार्यों में वह समय को बिताता है। फिर वृद्धावस्था आने पर मयूर के चंचल पंखों के समान कम्पमान पुरुष का चित्त किस कर्म से शान्ति को प्राप्त हो ? अर्थात् चित्त की शान्ति के साधनभूत कर्म तो उसने कभी किये ही नहीं, फिर उसका चित्त शान्त कैसे होगा ?।।15।।
जो लोग धर्मोपार्जन नहीं करते, उनके चित्त में भले ही शान्ति न हो, पर धर्मोपार्जन करने वाले आप लोगों के मन में, धर्म के फल के लाभ से, शान्ति क्यों न विराजमान होगी ? ऐसी आशंका कर धर्म के फल स्वर्ग, पुत्र आदि भी कोई सारवान् पदार्थ नहीं है, ऐसा कहते है।
अनात्मा में प्रीति करने वाले लोग भाग्यवश प्राप्त हुए, सामने स्थित भी, नदी की ऊँची तरंग के समान शीघ्र नष्ट हो जाने वाले अतएव अप्राप्तप्राय क्रियाफल स्वर्ग आदि द्वारा वंचित होते हैं, ठगे जाते हैं। भाव यह कि वही लाभ सच्चा है, जो प्राप्त होकर नष्ट नहीं होता और जिससे अनर्थ नहीं होता, दूसरा लाभ तो केवल वंचनामात्र ही है, जैसे की अल्पायु पुत्र की प्राप्ति और मछली को बंशी में लगे हुए खाद्य की प्राप्ति। उक्त लाभ से किसी प्रकार का आश्वासन नहीं हो सकता।।16।।
आसुरसम्पत्ति के विस्तारपूर्वक प्रदर्शन द्वारा पूर्वोक्त अर्थ को ही विशद करते हैं।
ये कार्य यहीं और अभी कर्तव्य हैं और ये अन्य प्रदेश और अन्य काल में करणीय हैं, यों जिन कार्यों की सदा चिन्ता बनी रहती है और अन्त में जिसका फल अनर्थ ही है। उन कार्यों का प्रयोजन स्त्रियाँ तथा अन्यान्य लोगों की प्रसन्नता का उत्पादन (मनोरंजन) ही है, पर वे देह के वृद्ध होने तक लोगों के चित्त को जबरदस्ती विवेक से भ्रष्ट कर देते हैं। जैसे वृक्षों के जीर्ण पत्ते जन्म लेकर शीघ्र नाश को प्राप्त हो जाते हैं, वैसे ही आत्म विवेक से रहित लोग इस लोक में जन्म लेकर थोड़े ही दिनों में कहीं चले जाते हैं, अर्थात् विनष्ट हो जाते हैं। महाभाग, भला बतलाइये तो सही, मूढ़ व्यक्ति के सिवा कौन ज्ञानी जन विवेकी पुरुषों की सेवा और सत्कर्म से से रहित दिन में इधर-उधर दूर तक घूम-फिरकर और सांयकाल के समय घर में आकर रात्रि में सुख की नींद सोयेगा ? दिन में विवेकियों की सेवा से रहित और सत्कर्मों से शून्य होने पर ज्ञानी को तो रात्रि में नींद ही नहीं आ सकती, पर अज्ञानी ही दिन में विवेकी जनों की सेवा और सत्कर्मों में शून्य होने पर भी इधर-उधर घूम फिर कर सांयकाल में अपने घर में प्रवेश कर खूब सुख की नींद सोता है। सम्पूर्ण शत्रुओं के छिन्न-भिन्न होने पर और चारों ओर से धन-सम्पत्ति की वृष्टि होने पर जब पुरुष इन सांसारिक भोगों को भोगने लगता है तभी न मालूम कहाँ से आकर मृत्यु सामने खड़ी हो जाती है। इस संसार में सभी लोगों को किसी एक दिन अनिर्देश्य अदभुत कारण से अभिवृद्धि को प्राप्त हुए, अत्यन्त तुच्छ और क्षणभर में जन्म लेकर नष्ट होने वाले अर्थात् विनाशशील इन विषयों ने भ्रम में डाल रक्खा है, मोहित कर रक्खा है, अतएव वे लोग समीप में आई हुई मृत्यु को नहीं जानते, यह कम आश्चर्य की बात नहीं है। जिन लोगों ने विषयों पर आसक्ति, देह के लालन-पालन आदि हृष्ट पुष्ट शरीर होना ही उचित समझा अर्थात् विवेक वैराग्य आदि का अभ्यास नहीं किया, वे ठहरे निरे नरपशु। सब प्राणियों के परम प्रिय यजमानरूप प्राण उन्हीं नररूप पशुओं को (बकरों को) निन्दित कर्मरूपी यज्ञस्तम्भों में बाँधकर दोषरूपी कालिख से उनका मुँह काला कर देते हैं। तदुपरान्त रोगरूपी ऋत्विजों द्वारा हनन, अंगछेदन आदि से शरीर का नाश होने के कारण वे असत्प्राय हो जाते हैं।।17-22।।
भगवती श्रुति ने भी कहा है - 'असन्नेव स भवति असद् ब्रह्मेति वेद चेत्' अर्थात् जो असत् देह आदि को ब्रह्म समझता है वह असत् ही हो जाता है। श्लोक में 'जनैडकाः' पद है अर्थात् जनरूपी एडक (भेड़) किसी किसी यज्ञ में भेड़ों का बलिदान प्रसिद्ध है अथवा एडक शब्द की बकरे में लक्ष्णाकर नररूपी बकरा अर्थ कर लेना चाहिए(φ)।
φ भाव यह है कि जैसे यजमान यज्ञकार्य की सिद्धि के लिए यज्ञस्तम्भ में बँधे हुए बकरे आदि का संस्कार करता है, तदुपरान्त ऋत्विक उसका यथाविधि हनन और उसके अंग-प्रत्यांगों का छेदन करते हैं, वैसे ही परम प्रिय प्राण भी विषयभोग और देहपोषण आदि द्वारा अति परिपुष्ट लोगों को निन्दित कर्मों में फँसाकर दोष से लांछित कर देते हैं। तदुपरान्त रोग उन पर आक्रमण कर उनका नाम-निशान मिटा देते हैं। संस्कृत टीकाकारों ने इस श्लोक के और भी अर्थ किये हैं। प्रिय प्राण, पोषण करने वाले जिन नरपशुओं से स्वयं पुष्ट हुए, उन्ही नरपशुओं को बलात्कार से निन्दित कर्मरूपी जाल में फँसाकर काल के मृत्यु के सम्मुख कर देते हैं अर्थात् काल को उपहार देते हैं, अतएव प्राण शरीर के विनाशक होने के कारण प्रिय नहीं हैं, किन्तु अप्रिय (शत्रु) ही हैं। इसमें निष्कर्ष यह निकला कि मनुष्य को केवल प्राणों के पोषण में ही तत्पर नहीं रहना चाहिए। अथवा-यद्यपि मूढ़ जन प्राणों के पोषण में सदा तत्पर रहते हैं तथापि वे प्रियप्राण (प्राणों के प्रति प्रेम करने वाले) नहीं कहे जा सकते, क्योंकि वे तो उलटे मृत्यु के मुँह में डालने वाले उपायों के आचरण द्वारा प्राणों के नाशक ही हैं। वास्तव में तत्त्वज्ञ पुरुष ही प्राणों पर प्रेम करने वाले हैं। क्योंकि वे तत्त्वदृष्टि से प्राणों में नित्य आत्मभाव प्राप्त कर उनके रक्षक हैं। अतएव वे प्रिय प्राण गर्हित कर्मों में फँसे हुए मूढ़ जनरूपी पशुओं का आदर नहीं करते। उत्तरार्द्ध से मूढ़ जनों की अपेक्षा शरीर के बाध से अपरिच्छिन्नता को प्राप्त हुए हैं, उनकी मूढ़ जनों की नाईं देह में आत्मबुद्धि नहीं हो सकती। मूढ़जनों की अपेक्षा तत्त्वज्ञों में यही विशेषता है।
इस संसार में यह चंचल जनता क्षण में नष्ट होने वाली तरंगों की पंक्ति के समान न मालूम कहाँ से बड़ी त्वरा के साथ आती है और जैसे आती है वैसे ही त्वरा के साथ न मालूम सदा कहाँ चली जाती है। 'कुतोऽपि' इस कथन से जहाँ से आती है और जहाँ चली जाती है, उस स्थान को हम जानना चाहते हैं, यह सूचित होता है।।23।। जैसे चंचल भ्रमररूपी नयनों से युक्त (चंचल भ्रमरों से सेवित), लाल पत्तों से आच्छन्न विषवृक्ष पर चढ़ी हुई, विषलताएँ देखने में अति सुन्दर होने के कारण पहले मन को हर लेती हैं बाद में प्राणनाशिनी होती हैं, वैसे ही मनुष्यों के प्राणहरण में तत्पर भ्रमर के समान चंचल नयनवाली और बिम्ब फल के समान होठों वाली नारियाँ मनोहर होने के कारण पहले चित्त को चुरा लेती हैं फिर प्राणों को हर लेती हैं। जैसे तीर्थयात्रा या महोत्सव में बहुत से आदमियों का सम्मेलन होता है, वैसे ही मनुष्यलोक से या स्वर्ग आदि लोकों से व्यर्थ ही आये हुए और अमुक स्थान पर हम लोगों की भेंट होगी यों परस्पर संकेत और अभिप्राय से इकट्ठे हुए लोगों में परस्पर स्त्री, पुत्र, मित्र आदि व्यवहार होता है। यह व्यवहार माया नहीं है तो और क्या है ? संसार (जन्म मरण की परम्पराएँ) दीपकों के निर्वाण (बुझने) के अनुरूप है। जैसे दीपक रात्रिभर प्रचुर तेल और बहुत सी बत्तियों का भक्षणकर अन्त में बुझ जाता है, वहाँ पर फिर उसका अस्तित्व प्रतीत नहीं होता अर्थात् प्रचुर तेल और बत्तियों का  भक्षण करने वाले अतिचंचल अतएव मिथ्याभूत क्षणिक दीपशिखा के निर्वाण-प्रवाह में परमार्थिक वस्तु प्रतीत नहीं होती, वैसे ही बाल्य आदि सैंकड़ों अवस्थाओं का भोग करने वाले अत्यन्त स्नेह से (राग से) परिपूर्ण, अत्यन्त चंचल (क्षण-विध्वंसी) अतएव मिथ्याभूत संसार में कोई भी वस्तु पारमार्थिक नहीं है। यह संसार कुलाल (कुम्हार) के चाक के समान है। जैसे कुलाल के चाक के खूब जोर से घूमने पर भी असावधान आदमी को यह नहीं घूम रहा है, स्थिर है, ऐसा भ्रम होता है, वैसे ही यह संसारप्रवृत्तिरूप कुचक्र भी लोगों को भ्रम में डालता है। वास्तव में तो यह वर्षा ऋतु के जल के बुदबुदों के समान क्षणभंगुर पर असावधान लोगों की बुद्धि में अपनी चिरस्थायित्त्व की प्रतीति करा देता है। जैसे शरदऋतु में कमल के सौन्दर्य, सुगंध आदि गुण शोभा से दैदीप्यमान रहते हैं, किन्तु हेमन्त ऋतु में वे सब नष्ट हो जाते हैं, फिर उनसे न चित्त को शांति मिलती है और घ्राणेन्द्रिय को तृप्ति ही मिलती है, वैसे ही यौवनावस्था में मनुष्य के जो कौमार्य और सौन्दर्य आदि गुणगण शोभा से उज्जवल रहते हैं, वे वृद्धावस्था में भाग्यवश विनष्ट होकर दुर्लभ हो जाते हैं, इसलिए उनमें विश्वास करना उचित नहीं है। इस संसार में बेचारा वृक्ष पृथिवी, जल, वायु आदि तत्त्वों के कारण, न कि किसी पुरुष द्वारा किये गये उपकार के कारण, जन्म, वृद्धि और फल-मूल आदि समृद्धि को प्राप्त होकर अपने देहधारण से छाया, पत्तियाँ, फूल फल आदि द्वारा बारबार लोगों का उपकार करता है, किसी का तनिक भी अपराध नहीं करता, फिर भी वह कुल्हाड़ियों से काटा जाता है। भला बतलाइये तो सही, ऐसे कृतघ्न संसार में पद-पद में जिससे अपराध हो सकते हैं और जिससे किसी का उपकार भी नहीं हो सकता, ऐसे मनुष्य के विषय में क्या विश्वास किया जा सकता है ? भाव यह है कि यदि वह उपकार न भी करे, तो भी मृत्यु उसका नाश कर डालेगी। मृत्यु के घर में उपकारी और अपकारी के प्रति कोई भेदभाव नहीं है। आत्मीय जनों का संसर्ग विषवृक्ष के संसर्ग के तुल्य है। देखिये न ! विषवृक्ष देखने में बड़ा सुन्दर लगता है और आत्मीय जन भी आपाततः (विचार के बिना) सुन्दर प्रतीत होते हैं। जिस पुरुष का विषवृक्ष से सम्बन्ध होता है, उसको दाह और मूर्च्छा आदि होते हैं और आत्मीय जन का संसर्ग भी स्नेह और भोग आदि उत्पन्न करता है। विषवृक्ष जीवनाश का कारण है और आत्मीय जन भी जीवन के समान प्रिय आत्माज्ञान के विनाश का हेतु है। जैसे विषवृक्ष के संसर्ग से मूर्च्छा होती है, वैसे ही आत्मीय जन के संसर्ग से मूढ़ता प्राप्त होती है। अर्थात् इसका यही एक बड़ा भारी दोष है।।24-30।। संसार की दृष्टियों में ऐसी कौन दृष्टियाँ हैं, जिनमें दोष का सम्बन्ध नहीं है। दिशाओं में कौन ऐसी दिशाएँ हैं, जिनमें दुःखदाह नहीं होता, कौन ऐसी प्रजाएँ (जन) हैं, जिन का नाश नहीं होता, कौन ऐसी लौकिक क्रियाएँ हैं, जिनमें छल नहीं होता अर्थात् सभी दृष्टियाँ दोषयुक्त हैं, सभी दिशाएँ दुःखदाह से पूर्ण हैं और सभी लोग विनाशी हैं और सम्पूर्ण लौकिक कार्यों में छल-कपट रहता है।।31।।
यदि शंका हो कि इस लोक के जनों के विनाशी होने पर भी ब्रह्मलोक को प्राप्त हुए लोगों का, जो कि कल्पआयु हैं, विनाश नहीं होता, तो इस पर कहते हैं।
व्यतीत और आने वाले अनन्त कल्पों की संख्या का परिज्ञान नहीं होता, अतएव जैसे क्षण अनन्त हैं, वैसे ही कल्प भी अनन्त ठहरे, इसलिए विष्णु, रूद्र आदि की दृष्टि से कल्प भी क्षण ही हैं। अतएव ब्रह्मलोकवासी जन भी कल्प नामक क्षणभर जीनेवाले हुए। अवयवयुक्त कालसमूह में लघुत्व और दीर्घत्व बुद्धि एवं चिरजीवन और अचिरजीवन बुद्धि भी, द्रष्टा की कल्पना के अधीन होने से, असत्य है। तुल्यन्याय से ब्रह्माण्ड भी अनन्त कोटि ब्रह्माण्डों को देखने वालों की दृष्टि में अणुरूप ही है, इसलिए अणुत्व और महत्त्वबुद्धि भी असत्य ही है।।32।।
इसी प्रकार प्रकृति की दृष्टि में सम्पूर्ण विकार भी असत्य ही प्रतीत होते हैं।
पर्वत वस्तुतः पाषाण ही हैं, पृथिवी मिट्टी ही है, वृक्ष काष्ठ ही हैं और  मनुष्य मांस आदि ही हैं अर्थात् पर्वत पत्थर से अतिरिक्त वस्तु नहीं है, पृथिवी मिट्टी से अतिरिक्त नहीं है, वृक्षों काष्ठ से भिन्न कुछ भी नहीं है और मनुष्य भी हाड़ मांस, आदि के ही पुतले ही हैं, उनसे पृथक उनमें कुछ नहीं है। यदि ऐसा है तो उनमें पर्वत आदि विशेषबुद्धि क्यों होती है ? ऐसी शंका यदि हो, तो उस पर सुनिये-व्यवहार के लिए मनुष्यों ने उनका नाम रख दिया है, वास्तव में वे पूर्वसिद्ध पाषण आदि पदार्थों से भिन्न नहीं है। इसी प्रकार सब जगह तुल्य युक्ति से विकाररहित सम्पूर्ण जगत प्रकृतिभूत एक ही वस्तु है, ऐसा युक्ति से प्रतीत होता है। अथवा यदि शंका हो कि पर्वत आदि विकार भले ही असत्य हों, उनके कारण पाषाण, मिट्टी आदि की असत्यता कैसे ? उस पर कहते हैं। वे भी अपने कारण महाभूतों के विकार हैं, अतः असत्य हैं। इस भोग्यवर्ग में विकार से भिन्न कुछ भी नहीं है। विकार होने से ये विषय आदि सब मिथ्या हैं, इसलिए भी इन पर विश्वास ही नहीं करना चाहिए।।33।।
पाषाण आदि केवल महाभूत मात्र हैं, ऐसा जो पहले कहा था, उसी को स्फुट कहते हैं।
जल, वह्नि, वायु, आकाश और पृथिवी ये पाँच महाभूत ही परस्पर मिलकर गो, घट आदि विविध पदार्थों के रूप में अविवेकी पुरुषों द्वारा उनकी बुद्धि से प्रतीत होते हैं, यह बड़े खेद की बात है। विवेकदृष्टि से पृथक-पृथक विभाग से संशोधन करने पर तो पंचभूत से अतिरिक्त कोई भी पदार्थ नहीं है अर्थात् अविवेकी पुरुष ही मोहवश पंचमहाभूतविकार जगत को सत्य समझता है, पर जो विवेकी हैं, उनको तो इस जगत में पंचमहाभूतसमुदाय से अतिरिक्त कोई वास्तविक पदार्थ प्रतीत नहीं होता।।34।।
यदि इस सम्पूर्ण पदार्थों को असत्य मानें, तो मनुष्यों के व्यवहार और भोग कैसे होंगे ? शुक्ति रजत से क्या कोई भी कड़ा बना सकता है ? इस शंका पर कहते हैं।
मुनिवर, इस मिथ्यारूप जगत में व्यवहारकुशल विद्वान लोगों के मन में भी भोगचमत्कार को उत्पन्न करने वाली जो व्यवहारचमत्कृति प्रतीत होती है, वह कोई आश्चर्यजनक नहीं है, क्योंकि कदाचित् स्वप्न में मिथ्याभूत विषयों को देखकर भी उस प्रकार की चमत्कृति लोगों को होती है।।35।।
यदि भोग चमत्कार होता है, तो अभी क्यों विरक्त होते हो ? भोगों को भोगकर वृद्धावस्था में विरक्त होकर विचार किया जा सकता है, ऐसी आशंका होने पर भोगों में आसक्ति होने से वैराग्य और विचार दोनों दुर्लभ हैं, ऐसा कहते हैं।
इस युवावस्था में और आने वाली वृद्धावस्था में आकाशलता के फल के समान मिथ्यारूप भी भोगासक्तिकल्पना जब अविचार के कारण वृद्धि को प्राप्त होती है तब भोग और उसके साधनों में आसक्त पुरुषों में परमात्मा के स्वरूप का निरूपण करने वाली कथा ही उदित नहीं होती, निरन्तर उसका विचार करना तो दूर रहा।।36।।
आसक्ति होने पर केवल पुरुषार्थ की हानि ही नहीं होती, प्रत्युत महान् अनर्थ भी होता है, ऐसा कहते हैं।
जैसे पशु हरी-हरी लतारूप फल की प्राप्ति की इच्छा से ही पर्वतशिखर से गिर पड़ता है, वैसे ही उत्कृष्टभोगशाली पुरुषों का पद (समता या राज्य, धन आदि) प्राप्त करने की इच्छा करने वाला पुरुष राग, लोभ आदि से मूढ़ अर्थात् प्रचुर राग और लोभ से अभिभूत अपने चित्त से आहत होकर पूर्वावस्था में ही पतनरूप गर्त में गिर जाता है, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है। हे मुने ! आजकल के मनुष्य गड्डे के वृक्षों के समान हैं, क्योंकि जैसे गड्ढे के वृक्ष के छाया, लता, पत्ते, फल फूल आदि गड्ढे में ही रह जाते हैं, अंशतः भी प्राणी उनका भोग नहीं कर सकते, वैसे ही मनुष्य भी अपने शरीर के पोषण के लिए ही अपनी विद्या, विनय, धन, सम्पत्ति आदि को व्यर्थ नष्ट कर देते हैं उनसे किसी दूसरे का उपकार नहीं होता।।37-38।।
यद्यपि कहीं धार्मिक पुरुष हैं, तथापि विवेकी पुरुष तो अति दुर्लभ हैं, ऐसा कहने के लिए दो प्रकार के मनुष्यों को कहते हैं।
जैसे कृष्णासार मृग गहन जंगलों में इधर-उधर भ्रमण करते हैं, वैसे ही मनुष्य भी कहीं पर दया, उदारता, क्षमा, सौन्दर्य, विद्या, विनय आदि से युक्त सज्जन पुरुषों के समाज में और कहीं पर क्रोध, लोभ, निष्ठुरता आदि से परिपूर्ण पापासक्त दुराचारियों के साथ विहार करते हैं।।39।।
लोगों की दुर्गति को देखकर दुःखित हुए श्रीरामचन्द्रजी लोगों की दुर्गति में कारणभूत दैव की निंदा करते हैं।
महर्षे यह दैव अचेतन होने के कारण मृतक-समान है। यदि यह जीवित होता तो ऐसा निर्दय न होता। यह (दैव) इस संसार में प्रतिदिन फल से भीषण (भीषण क्लेश देने वाले) आपाततः (विचार के बिना) भले प्रतीत होने वाले राग आदि से अत्यन्त व्याकुल चित्तावाले लोगों से पूर्ण एवं अन्त में कष्टरूपी फल देने के कारण जिनका उदय दूषित है, ऐसे नूतन-नूतन कार्य करता है। उसके ये कार्य किन विवेकशील पुरुषों के मन को आश्चर्यचकित नहीं करते।।40।।
संसार की अभद्रता का प्रतिपादन कर उसका उपसंहार करते हुए उससे होने वाली अपने चित्त की उद्विग्नता दिखलाते हैं।
आजकल स्वप्न के समान मिथ्याभूत इस संसार में विविध प्रकार के छल-कपटों से व्यवहार करने वाले, विषयासक्त मनुष्य सर्वत्र सुलभ हैं, पर विवेकशील पुरुष अतिदुर्लभ हैं, और सम्पूर्ण कर्म अत्यन्त दुःखों से रहित साधनों अथवा फलों से शून्य हैं, अर्थात् ऐसी कोई क्रिया नहीं है, जिसके साधन अथवा फल अत्यन्त दुःख से रहित हों, सभी क्रियाएँ दुःखमय ही हैं। मुनिवर, समझ में नहीं आता है कि हम लोगों की जीवनदशा कैसे बीतेगी।।41।।

सत्ताईसवाँ सर्ग समाप्त
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