चौबीसवाँ सर्ग
मृगया में कौतूहल करने वाले राजकुमार के
रूपक से अपनी प्रियतमा कालरात्रि से युक्त काल का वर्णन।
श्रीरामचन्द्रजी ने कहाः मुनिश्रेष्ठ, यह काल राजकुमार (▓)
के अनुरूप है। संसार में इसकी लीलाएँ बड़ी विकट है, इसके समीप एक भी आपत्ति नहीं
फटक सकती और इसका पराक्रम विचार शक्ति के बाहर है। इस सर्ग में उक्त काल के ही
चरित्र का वर्णन किया जाता है।।1।।
▓ परब्रह्म सूर्य, चन्द्र आदि को भी
प्रकाशित करता हुआ प्रदीप्त होता है अतः वह राजा कहलाता है। काल उसकी पटरानीरूप
अनादि माया से उत्पन्न हुआ है और जगत-रूपी युवराज सम्पत्ति का भोक्ता है अतः यह
उक्त राजारूपी परब्रह्म का पुत्र-कुमार कहलाता है।
इस जीर्ण-शीर्ण जगतरूपी वनराजि में दीन-हीन और अज्ञानी
प्राणीरूपी मृगों का शिकार कर रहे इस राजकुमाररूपी काल के लिए प्रलयकाल का महासागर
क्रीड़ार्थ बनाई गई रमणीय बावड़ी है, जिसके एक भाग में बड़वानलरूपी सुन्दर कमल
लहलहा रहे हैं। दधिसागर, क्षीरसागर सहित तथा कड़ुवे, तीखे और खट्टे विविध खाद्यों
से पूर्ण सदा एकरूप से रहने वाले चिरकाल से स्थित अनेक जगत इस राजकुमाररूपी काल के
कलेवे (नाश्ते के पदार्थ) हैं।(▒)।।2-4।।
▒ कड़वा तीखा एवं दही से युक्त वासी
कलेवा द्राविड़ों में प्रसिद्ध है।
चलने में बड़ी दक्ष अर्थात् शीघ्र चलने वाली सब मातृगणों से
युक्त और बाघिन के समान प्राणियों का नाश करने वाली इस राजकुमाररूपी काल की प्रिय
पत्नी कालरात्रि संसाररूपी वन में विहार करने के लिए नियुक्त है।।5।। चंचल
श्वेतकमल, नीलकमल और रक्तकमलों से परिवेष्ठित मधुर जल से युक्त विशाल पृथ्वी ही
इसके हाथ में मधुर (╬) मद्य से पूर्ण विशाल पानपात्री (मद्य
पीने का पात्र) है। गर्जने वाले, भीषण ताल ठोंकने वाले और केसरों से (गर्दन के
बालों से) जिनका कन्धा ढका हुआ है वे नृसिंहदेव (विष्णु के अवतार) इसके भुजारूपी
पिंजड़े में हिरण्यकशिपु आदि दानवों के हिंसारूपी क्रीडा के लिए बाज पक्षी बनाये
गये हैं।।6,7।।
╬ मद्य को सुगन्धित बनाने के लिए एवं
उसको सुशोभित करने के लिए मद्यपात्र भी कमलों से परिवेष्ठित होता ही है।
ब्रह्माण्डों की माला को धारण करने के कारण तुम्बों से बनाई
गई वीणा के समान सुन्दर रूप और ध्वनि से
युक्त(░) और शरद ऋतु के आकाश के तुल्य स्वच्छ
नीली कान्तिवाला संहार भैरव इसकी क्रीड़ा के लिए कोकिल का बच्चा बनाया गया है।।8।।
░ यद्यपि उसका स्वरूप और शब्द औरों को
भीषण प्रतीत होते हैं, तथापि काल उससे भी भयानक है उसकी दृष्टि में वे मधुर ही
हैं, यह दर्शाने के लिए वह सुन्दर रूप और ध्वनि से युक्त कहा गया है।
सदा टंकार शब्द करने वाला और लगातार दुःखरूपी बाणों को उगलने
वाला उसका संहार नाम का धनुष चारों ओर चमचमा रहा है।।9।। ब्रह्मन्, इस काल से
बढ़कर विलास करने में प्रवीण कोई नहीं है, यह राजपुत्र रूपी काल स्वयं भी दौड़ता
है और इसके लक्ष्यभूत प्राणी भी निरन्तर दौड़ते रहते हैं फिर भी इसका लक्ष्य
(निशाना) नहीं चूकता। यह सबको ही दुःखरूपी बाणों से विदीर्ण करता रहता है। यह काल
ही सबकी अपेक्षा श्रेष्ठ लक्ष्यवेधी (निशानेबाज) है। यह जीर्ण जगत में बन्दर की भाँति
चंचलवृत्तिवाले विषयलोलुप जनों को व्याकुल बनाता है और स्वयं उक्त प्रकार से
विराजमान रहकर मृगया का आनन्द लेता है।।10।।
चौबीसवाँ सर्ग समाप्त
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