तेईसवाँ सर्ग
प्राणियों के पुण्य और पाप के बल उत्कृष्ट अपनी चेष्टाओं द्वारा प्राणियों से
कर्म करा रहे काल का वर्णन।
इस प्रकार भोग्य श्री, भोगतृष्णा और
भोगकाल के बाल्यावस्था, युवावस्था और वृद्धावस्था के दोषों का विस्तारपूर्वक वर्णन
कर और ये अन्त में केवल असीम दुःख के ही कारण होते हैं, ऐसा उपादान कर
श्रीरामचन्द्रजी ने ऐहिक और परलौकिक पदार्थ और उनके फलों में अपना वैराग्य
दर्शाया। अब काल आदि के स्वभाव के वर्णन द्वारा नित्य और अनित्य पदार्थों का विवेक
दर्शाने के लिए भूमिका बाँधते हैं।
श्रीरामचन्द्रजी ने कहाः ब्रह्मन, मेरी
यह भोग्य वस्तु है, मैं इसका भोग करने वाला हूँ, ये भोग के उपकरण हैं, इस उपकरण से
(साधन से) इस वस्तु को हस्तगत कर मैं चिरकाल तक इसका भोग करूँगा, मेरा यह मनोरथ आज
पूर्ण हो गया, मुझे आशा है कि इस दूसरे मनोरथ को भी मैं शीघ्र प्राप्त कर लूँगा
इत्यादि असंख्य मानसिक संकल्पविकल्पों द्वारा अनन्त व्यावहारिक वचनों से पूर्ण एवं
तुच्छ शरीर में आत्मबुद्धि करने वाले या अल्प वैषयिक सुख में पुरुषार्थ-बुद्धि
करने वाले मूढ़ों ने शत्रु, मित्र, उदासीन आदि भेदों से, हेय, उपादेय और उपेक्षणीय
आदि भेदों से और तत्प्रयुक्त राग-द्वेषादि भेदों से संसाररूपी छिद्र में
अन्यथाग्रहरूपी भ्रम को दुश्चछेद्य बना दिया है।।1।। जाल के समान दूर से ही आकृष्ट
कर बाँधने वाले विषयों तथा पिंजड़े के समान परिच्छिन्न स्थान में बाँधने वाले देह
के समूह रूप इस अवस्तुभूत संसार के प्रति विवेकियों को कैसे आदर हो सकता है ? दर्पण में प्रतिबिम्बित फल को खाने की
इच्छा करना मूर्खता है, वैसे ही अवस्तुभूत इस संसार में आस्था करना मूर्खता ही
है।।2।। इस तृण के सिरे से कुएँ में लटक रहे मकड़ी के जाले को चूहा पूर्णतया काट
देता है वैसे ही, निःशेषरूप से काट देता है।।3।। जैसे बडवाग्नि चन्द्रोदय आदि से
उमड़े हुए समुद्र को नष्ट करती है, वैसे ही इस संसार में उत्पन्न हुई ऐसी कोई भी
वस्तु नहीं है, जिसे वह सर्वभक्षी काल भी प्रत्येक वस्तु को निगलता है।।4।। भयंकर
रूद्ररूपी काल सर्वसाधारणरूप से इस सम्पूर्ण दृश्य प्रपंच को निगलने के लिए सदा
उद्यत रहता है। असंख्य ब्रह्माण्डों को अपने उदरस्थ करने के कारण सर्वात्मता को
प्राप्त हुआ, यह काल बल, बुद्धि और वैभव आदि से महान् भूतों के लिए एक क्षणभर भी
नहीं ठहरता अर्थात् सबको तुरन्त नष्ट कर देता है।।5,6।। युग, वर्ण और कल्प नाम
क्रियोपाधिक (क्रिया द्वारा प्राप्त) रूपों से काल अंशतः ही प्रकट है, उसका
वास्तविक रूप कोई नहीं देख सकता। वह संसार की सम्पूर्ण वस्तुओं को अपने वश में
करके बैठा है।।7।। जैसे गरुड़ साँपों को निगल जाता है, वैसे ही काल भी जो अनुपम रूप
से सम्पन्न थे, जो पुण्यात्मा थे और जो सुमेरु पर्वत के समान गौरवान्वित थे,
उन्हें हड़प कर गया। यह काल बड़ा निर्दय, पत्थर के समान कठोर, बाघ आदि के समान
क्रूर आरे के तुल्य कर्कश, कृपण और अधम है। आज तक ऐसी कोई वस्तु नही देखीं गई,
जिसे इस काल ने अपने गाल में न समा लिया हो।।8,9।। इसका चित्त सदा निगलने में ही
लगा रहता है, यह एक को निगलता हुआ दूसरे को निगलता है। असंख्य लोग उसके उदर में
समा चुके हैं, पर यह ऐसा पेटू है कि इसे तृप्ति ही नहीं हुई अर्थात् अब भी यह अपने
उसी स्वाभाविक वेग से जीवों को लगातार निगलता जा रहा है।।10।। जैसे ऐन्द्रजालिक
अपने विविध खेलों को आरम्भ करता है, उनका अन्त कर डालता है, उनको बिगाड़ देता है,
कोई खाद्य पदार्थ बनाकर उसे खा जाता है और बरबाद कर देता है, वैसे ही यह काल भी
अपने विविधरूपवाले संसाररूपी नृत्य को आरम्भ करता है, बन्द कर देता है, बिगाड़
देता है, खा जाता है और नष्ट कर देता है अर्थात् धन सम्पत्ति आदि में जो कुछ भी
हरण, नाश, व्यय आदि होते है, उन सबको हरणकर्त्ता, नाशकर्त्ता आदि के रूप से स्थित
काल ही करता है, दूसरा नहीं।।11।। जैसे तोता दाड़िम के फल को तोड़कर उसके भीतर के
बीजों को खा जाता है, वैसे ही यह काल भी इस जगत् में व्याकृतावस्था में स्थित
भूतों को (जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज भेद से चार प्रकार के प्राणियो को)
नाश द्वारा असत् बनाकर, तोड़-मरोड़कर खा जाता है।।12।। शुभ और अशुभ (पुण्य और पाप)
रूप दाँतों से मनुष्यरूपी पत्तों को छिन्न भिन्न करने वाला अभिमानपूर्ण जनता के
जीवसमूहरूपी महाअरण्य में रहने वाला गजरूप यह काल बड़े जोर से चिंघाड़ता है
अर्थात् जैसे महाअरण्य में रहने वाला और अपने दाँतों से वृक्षों के पत्तों को
छिन्न भिन्न करने वाला हाथी जोर से दहाड़ मारता है, वैसे ही पुण्य पापरूपी अपने
दाँतों से प्राणियों को चबा डालने वाला और दर्पपूर्ण जनता के जीवसमूहरूपी महाअरण्य
का यह गज यह बड़े जोर से दहाड़ता है, गरजता है।।13।। अपंचीकृत पंचभूतों से उत्पन्न
ब्रह्माण्डरूपी महान् और देवतारूपी फलों से युक्त वृक्षों से पूर्ण (अर्थात्
ब्रह्मरूपी वन में अपंचीकृत पंचभूतों से उत्पन्न अनेक ब्रह्माण्ड ही महान वृक्ष
हैं, और देवता ही ब्रह्माण्डरूपी महावृक्षों के फल हैं) और मायिक जगत् रूप से
युक्त (सप्रपंच) ब्रह्मरूपी महावन को (दुस्तर होने के कारण ब्रह्म को महावन कहा)
पूर्णरूप से आवृत्त करके (ढँककर) यह काल बैठा है, क्योंकि काल के उदर में ही सब
वस्तुओं की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश देखा जाता है, यह भाव है।।14।। यह काल
रात्रिरूपी भँवरों से चारों ओर व्याप्त और दिनरूपी मंजरियों से शोभित वर्ष, कल्प
(ब्रह्मा का दिन) और कालरूपी(♥) लताएँ बराबर बनाता रहता है पर इसे कभी
कुछ भी परिश्रम नहीं होता, जिससे कि यह अपने व्यापार से विरत हो।।15।।
♥ 18 निमेष की एक काष्ठा, 30 काष्ठा की एक
कला, 20 कला का 1 क्षण, 12 क्षण का 1 मुहूर्त, 30 मुहूर्त का एक अहोरात्र
(रात्रि-दिन) इस प्रकार आजकल के मान से एक कला = 2/15
मिनट या 8 सेकेण्ड है।
मुनिवर, यह काल धूर्तों का सिरताज है, इसे कितना ही तोड़ो पर
यह टूटता नहीं, जलाने पर जलता नहीं और दृश्य होने पर भी स्वरूप से नहीं दिखाई देता
इसकी धूर्तता की सीमा नहीं है।।16।। सर्वव्यापक यह काल मनोराज्य के अनुरूप है।
जैसे मनोराज्य एक पलक में किसी वस्तु के स्वरूप को हूबहू खड़ा कर देता है और किसी
को बिल्कुल विनष्ट कर डालता है, वैसे ही यह काल भी एक ही पलक में किसी वस्तु को
सर्वांगपूर्ण बनाकर खड़ा कर देता है और किसी वस्तु को निःशेष विनष्ट कर देता है,
इसलिए इन दोनों में कोई अन्तर नहीं है।।17।। यह काल अपने दुर्विलासों में विलास
करने वाली प्राणियों के कष्ट से ही परिपुष्ट हुई चेष्टारूपी भार्या द्वारा भौतिक
देह, इन्द्रिय आदि द्रव्यों में तादात्म्याध्यास होने के कारण अपने वास्तविक
स्वरूप को न जानने वाले जीव को स्वर्ग और नरक में घुमा रहा है। यह काल बड़ा पेटू
है, इसको सदा अपने पेट भरने की ही चिन्ता रहती है, चाहे तिनका हो, चाहे धूलि हो,
चाहे इन्द्र हो, चाहे सुमेरु हो, चाहे पत्ता हो, सभी को अपने आधीन करने के लिए
निगलने के लिए उद्यत रहता है।।18,19।। यह काल इतना क्रूर है मानों संसारभर की
सम्पूर्ण क्रूरता इसी में कूट-कूट कर भरी गई है, यह लोभी इतना है कि संसारभर की
लुब्धता इसे अपना घर बनाये है, सम्पूर्ण दुर्भाग्यों का यह आगार है और दुःसह चपलता
भी इसी में है अर्थात् यह सबसे अधिक क्रूर बेजोड़ लोभी, नितान्त अभागा और महाचपल
है।।20।। जैसे
बालक अपने आँगन में खेल के गेंदों को बारबार उछालता है, वैसे ही यह क्रूरतम काल
खेल के (मन बहलाव) लिए सूर्य और चन्द्रमा को आदेश देकर आकाश में मानों खेलता
है।।21।। प्रलयकाल में यह काल सब प्राणियों को नष्टकर और अपने शरीर को उनकी (सब
प्राणियों की) हड्डियों की मालाओं से पैर तक ढाँककर खूब शोभित होता है।।22।। प्रलय
के समय निरंकुश चरित्रवाले इस काल के अंगों से निकले हुए वायुओं से विशाल सुमेरू
पर्वत भूर्जपत्र के समान आकाश में फड़फड़ाता है अर्थात् चारों ओर से टूटने फूटने
लगता है। बात यह है कि जैसे वायु से अतिकोमल भूर्जपत्र फटकर नष्ट हो जाता है, वैसे
ही इस निरंकुशशिरोमणि के शरीर से निर्गत वायुओं से विशालतम सुमेरू पर्वत आकाश में
उड़कर विशीर्ण हो जाता है।।23।। यह काल रूद्र का रूप धारण कर महेन्द्र का रूप धारण
करता है, फिर ब्रह्मा का रूप धारण करता है, फिर इन्द्र होता है और फिर कुबेर होता
है, और अन्त में कुछ भी नहीं अर्थात् पर्यवसित हो जाता है।।24।। जैसे सदा परिपूर्ण
सागर रात-दिन अपने में विलीन कर देता है, वैसे ही तत्परतापूर्वक रात दिन अन्य की
नई-नई सृष्टियों को करता हुआ यह काल पूर्व की अति दैदीप्यमान सृष्टियों को नष्टकर
देता है।।25।। यह काल महाकालरूपी वृक्षों से देवता, मनुष्य और राक्षसरूपी पके हुए
फलों को गिरा रहा है।।26।। यह काल प्राणिरूपी बहुत छोटे छोटे मच्छरों से धुम्,
धुम् ऐसा शब्द कर रहे और शीघ्र गिरने वाले ब्रह्माण्डरूपी गूलर के फलों का बड़ा
भारी वृक्ष है अर्थात् जैसे छोटे छोटे मच्छरों से गूँज रहे शीघ्र गिरने वाले गूलर
के फल गूलर के पेड़ में होते हैं, वैसे ही प्राणियों के शब्दों से गूँज रहे और
शीघ्र गिरने वाले ब्रह्माण्डरूपी फलों का आश्रयभूत वृक्ष है, वैसे ही उक्त
ब्रह्माण्डों का उत्पादक यह काल है, यह भाव है।।27।। तत्-तत् प्राणियों के शुभाशुभक्रिया
(पुण्य-पाप) रूप प्रियतमा से युक्त काल सब के अधिष्ठानभूत चित्तरूप (चैतन्यरूप)
चाँदनी के केवल सन्निधान से प्रकट हुई जगत की सत्तारूपी कुमुदिनीयों से प्राणियों
की क्रियारूप अपनी स्त्री अपने अद्वितीय स्वरूप को विनोदित करता है। विहारकौतुक से
कालयापन ही विनोद है। यहाँ पर काल ही विहार करने वाले है। विहार करने वाला काल जिस
काल का यापन करे ऐसादूसरा काल प्रसिद्ध नहीं है, अतः स्वशरीर को ही विनोदित करता
है, यह भाव है।।28।। जैसे महापर्वत (हिमालय) पृथिवी में पूर्व और उत्तर की सीमा से
शून्य प्रदेश में स्थित अपने शरीर का अवलम्बन करके खड़ा है वैसे ही यह काल भी
अपरिच्छिन्न, आदि-अन्तरहित ब्रह्म में प्रतिष्ठित अपने स्वरूप का अवलम्बन करके
स्थित है।।29।। यह काल कहीं पर (रात्रि आदि काले पदार्थों में) काल अन्धकार के
तुल्य श्यामल, कहीं पर (दिन, चाँदनी, मणि आदि प्रकाशमान पदार्थों में) कान्ति से
परिपूर्ण औऱ कहीं पर (भण्डार और भीत आदि में) अन्धकार और कान्ति से शून्य अपने
कार्य को करता हुआ स्थित है। विलीन हुए असंख्य प्राणिपूर्ण संसारों के सारभूत और
सबका आधार होने से अत्यन्त भार से युक्त अपने स्वरूप से पृथिवी के समान ऐसा स्थित
है कि इसकी जड़ कभी हिल नहीं सकती।।30,31।। सैंकड़ों महाकल्पों से न तो इसे खेद
होता है, न प्रसन्नता होती है, न यह आता है, न जाता है, न अस्त को प्राप्त होता है
और न उदित होता है। यह काल अत्यन्त अनादरपूर्वक जगत् की रचनारूप लीला से अहंकार
रहित और सर्वत्र व्याप्त अपनी आत्मा का पालन करता है, उसका विनाश कभी नहीं
करता।।32,33।। यह काल लगातार रात्रि रूपी पंक से उत्पन्न हुई और मेघरूपी भँवरी से
युक्त दिनरूपी लाल कमलों की श्रेणी का अपने आत्मरूपी तालाब में रोपण करता रहता
है।।34।। यह लोभी काल पुरानी सम्मार्जनी (बुहारी) रूपी काली रात्रि को लेकर कनकाचल
के (सुमेरू के) चारों ओर उससे गिरे हुए आलोकरूपी सुवर्ण के कणों को बटोरता रहता
है। एक बार झाड़ू से बटोरने पर बहुत सा सुवर्ण मिलने पर भी यह सन्तुष्ट नहीं होता
और लोभी इतना बड़ा है कि नई सम्मार्जिनी भी नहीं ले सकता, यह भाव है।।35।। लोभी
होने के कारण ही कार्यरूपी उँगली से
दिशाओं के कोनों में सूर्यरूपी दीपक ले जाता हुआ यह काल जगतरूपी घर में कहाँ पर
क्या है ? यह देखता है।।36।। दिनरूपी पलकों से
युक्त सूर्यरूपी नेत्र से ये बहुत अच्छी तरह पक गये हैं, यह देखकर जगतरूपी पुराने
वन से यह लोकपालरूपी फलों को तोड़कर खाता है।।37।। जगतरूपी पुराने झोंपड़े में
प्रमाद से इधर-उधर गिरे हुए गुणवान जनरूपी मणियों को यह काल महान् उदरवाले
मृत्युरूपी सन्दूक में क्रमशः डालता है।।38।। जो जनरूपी रत्नावली गुणों से
(सूत्रों से) अत्यन्त पूर्ण हो जाती है, मानों अलंकार के लिए उसको अपने अवयवरूप
सत्य, त्रेता आदि युगों में रखकर फिर उन्हें नष्ट कर देता है।।39।। यह चंचल काल
बीच-बीच में दिनरूपी हंसों से गुँथी हुई तारारूपी केसर से पूर्ण रात्रिरूपी
नीलकमलों की माला को पाँच ऋतुरूपी अंगुलियों से युक्त वर्षरूपी हाथ के प्रकोष्ठ में
कंकण के समान नित्य धारण करता है।।40।। पर्वत, समुद्र, द्युलोक और पृथिवीरूप चार
श्रृंगवाले जगतरूपी भेड़ों का हिंसक यह काल आकाशरूपी आँगन में बिखरे हुए तारारूपी
रक्त के बिन्दुओं को भी देखकर प्रतिदिन उन्हें चाटता है।।41।। यह काल यौवनरूपी
कमलिनी के लिए चन्द्रमारूप और आयुरूपी गज के लिए सिंहस्वरूप है। इस संसार में
अत्यन्त तुच्छ या महान् ऐसी वस्तु नहीं है, जिसका कि यह काल नाश न करता हो।।42।।
जैसे जीव सुषुप्तिकाल में सब दुःखों का संहाकर अज्ञानमात्र के अवलम्बन से स्थिति
करता है, वैसे ही जिसने जन्तुओं को पीसकर मृत्यु के मुँह में गिरा दिया है, ऐसे
प्रलयरूपी क्रीड़ा के विलास से पदार्थों का अभावरूप यह काल भी अज्ञानावभासक अपने
अधिष्ठानभूत ब्रह्म चैतन्य का अवलम्बन कर आत्मभूत उसी में रमण करता है उसके पृथक
नहीं होता। इस प्रकार प्रलयकाल में विश्राम लेकर यह काल ही फिर सृष्टिकाल में
संसार का कर्त्ता, भोक्ता, संहारक, स्मर्ता आदि सब पदार्थों के स्वरूप को प्राप्त
हुआ है अर्थात् यह स्वयं ही कर्त्ता, भोक्ता, संहारक, सुभग, दुर्भग आदि बना
है।।43,44।। बुद्धिकौशल से इस काल के रहस्य का किसी ने निश्चय नहीं कर पाया है,
पुण्य फल के उपभोग के अनुकूल सुन्दर रूप और पाप फल के भोग के अनुरूप कुरूप को धारण
करने वाले सम्पूर्ण शरीरों की सहसा सृष्टि, रक्षा और संहार करता हुआ यह प्रदीप्त
हो रहा है। इस संसार के सम्पूर्ण जीवों में काल सबसे अधिक बलवान हैं।।45।।
तेईसवाँ सर्ग समाप्त
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
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