राजा
भर्तृहरि
कहते हैं कि
मैंने भोग
नहीं भोगे, भोगों
ने मुझे भोग
लिया। समय ने
मुझे काट
लिया। बीमारी
का इलाज तो हो
सकता है
परन्तु
वृद्धावस्था
को आने से कोई
भी नहीं रोक
सकता। सारा दिन
निराकार से ही
लेन देन है।
सुख भी
निराकार है और
दुःख भी
निराकार है।
कच्चे क्षणिक
वैराग्य से तो
कल्याण नहीं
हो सकता। जैसे
अधकच्ची
चीजें खाने से
कष्ट होता है।
आग
जलानी है तो
फूँकने वाली
जला, सेंकने
वाली न जला।
जब तक खुदी
नहीं आती तब
तक खुदा का
पता नहीं लगता।
स्वामी राम को
उसकी आत्मा की
लगन खींच रही
थी। उन्होंने
अनारकली के
भरे बाजार में
अपने बच्चों
के हाथों से
उँगलियाँ
खींच लीं और
आत्मदेव की
मस्ती में
मस्त हो गये।
चले जाने की
ताकत आ गई।
काल का
ज्ञात और
अज्ञात रूप
हमें फाड़े
निगल रहा है।
हम सभी नासमझ
बनकर बेरहम
दुनिया की वस्तुओं
से प्रेम का
नाटक खेल रहे
हैं।
एक बार एक
साहित्यकार
साथी से पूछा
गयाः
"भाई
! तुम आज
इतने परेशान
क्यों दिखाई
देते हो ?"
"जीवन-संगिनी
के निर्वाचन
में घरबार
छोड़ चुका हूँ
क्योंकि वह
जीवन और
मृत्यु में भी
मेरा साथ
निभायेगी।
संसार की कोई
शक्ति मेरे
समीप आने से
उसे नहीं रोक
सकेगी ?"
कुछ दिनों
के बाद वे
भावुक कलाकार
पागलखाने में
ही भगवान के
प्यारे हो
गये। क्योंकि
जीवन संगिनी
ने अपना घर
उनके लिये
नहीं छोड़ा। इसीलिए
तो बुद्ध ने
संपूर्ण सत्य
के लिये घर छोड़ा।
यशोधरा और
राहुल को छोड़
दिया। यह
कहते-कहते किः
ओ
क्षणभंगुर भव !
राम-राम। भर्तृहरि
ने राज्य
सिंहासन
छोड़ा इसी
सत्य-अन्वेषण
के लिए कि
प्रेम का अमर
संदेश कहाँ
है। और वह
अन्त में मिला
आत्म-साक्षात्कार
में।
भला इस
संसार के
स्वार्थ भरे
कण-कण में भी
राहत है ? नहीं।
कोमलता है ? नहीं।
सत्यता है ? नहीं।
यह जानते हुए
भी मोहपाश में
मानव की महाकाया
क्यों समाहित
है ? क्यों
आबद्ध है ? इसका
एक ही कारण
है। मनुष्य
अपने चिर
सनातन विचाररूपी
धन को इस
संसार में भूल
बैठा है। अभाव
भी बिना विचार
के मृत्यु है
और वैभव भी
मौत की ही
निशानी है।
मानव बिना
आत्मबोध के
संसार में,
संसार के कण-कण
में मौत का
बुलावा दे रहा
है।
विवेक
जागने का
मार्ग है,
गुरू के दर पर
झुक जाओ और
अन्तर्मुख हो
जाओ। संत
नुस्खा बताते
हैं कि संसार
का शहंशाह
बनने के लिए
उस अनिष्ट को
स्वीकार करो। विचार
करके अगर
परिस्थिति
नहीं सँभलती
तो अनिष्ट
होना ही है।
जो
मुस्कुरा
सकता है वह
अमीर है। जो
रोता है वह
गरीब है। बाहर
कमरा तो
वातानुकूल है
पर दिल चिन्तातुर
है। तुमने तो
दिल में
अंगीठी सुलगाई
हुई है। ऐ
परमेश्वर की
जात ! तू तो
रूहानी नूर
है। शुक्र कर
कि तू है। तू
है तो जवान है
और अभी मौत के
वारन्ट जारी
नहीं हुए।
मिट्टी के
दीपक में तेल
जल रहा है और
तेल में बत्ती
है। तू फटे
पुराने
कपड़ों में भी
परमेश्वर की
ओर भाग सकता
है।
जिनकी
टाँगें टूटी
हुई हैं, हाथ
टूटे हुए हैं
उन्होंने ही
अनिष्ट स्वीकार
कर लिया है।
चिन्ता
परिस्थिति के
अधीन नहीं,
चिन्ता आदत
है।
या
कोई दीवाना
हँसे, या जिसे
तू तौफिक दे।
वरना
इस दुनियाँ
में रहके,
मुस्कुरा
सकता है कौन ?
या तो पागल
हँसता है या
जिसको तू
भक्ति की मस्ती
दे वह हँसता
है। नहीं तो
संसार में
हँसना बड़ा
कठिन है।
तूने तो
यूँ ही
ख्यालों का
बोझा सिर पर
उठाया हुआ है।
जैसे गाड़ी पर
बैठे आदमी ने
सिर पर बोझा
रक्खा हो।
इसलिए अन्तर
से शून्य होकर
आत्मा का
ध्यान, चिन्तन
कर, तेरा भला
होगा।
********] आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तक "अनन्य योग" के लिया गया [*********
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें