मासिक साधना उपयोगी तिथियाँ

व्रत त्योहार और महत्वपूर्ण तिथियाँ

25 फरवरी - माघी पूर्णिमा
03 मार्च - रविवारी सप्तमी (शाम 06:19 से 04 मार्च सूर्योदय तक )
06 मार्च -
व्यतिपात योग (दोपहर 14:58 से 07 मार्च दिन 12:02 मिनट तक)
08 मार्च - विजया एकादशी (यह त्रि स्पृशा एकादशी है )
09 मार्च - शनि प्रदोष व्रत
10 मार्च - महा शिवरात्री (निशीथ काल मध्यरात्री 12:24 से 01:13 तक )
11 मार्च - सोमवती अमावस्या (
सूर्योदय से रात्री 1:23 तक )
11 मार्च - द्वापर युगादी तिथि
14 मार्च - षडशीति संक्रांति (पुण्यकाल शाम 4:58 से
सूर्योदय तक)
19 मार्च - होलाष्टक प्रारम्भ
20 मार्च - बुधवारी अष्टमी (
सूर्योदय से दोपहर 12:12 तक)
23 मार्च - आमलकी एकादशी
24 मार्च - प्रदोष व्रत
26 मार्च - होलिका दहन
27 मार्च - धुलेंडी , चैतन्य महाप्रभु जयंती
29 मार्च - संत तुकाराम द्वितीय
30 मार्च - छत्रपति शिवाजी जयन्ती

मंगलवार, 15 नवंबर 2011

परिप्रश्नेन.... (1)



प्र. – पतन किसका नहीं होता ?
उ. – वशीभूत अंतःकरण वाला पुरूष राग-द्वेष से रहित और अपनी वशीभूत इन्द्रियों के द्वारा विषयों का आचरण करता हुआ भी प्रसन्नता को प्राप्त होता है। वह उनमें लेपायमान नहीं होता। उसका पतन नहीं होता। जिसका चित्त और इन्द्रियाँ वश में नहीं है वह चुप होकर बैठे तो भी संसार का चिन्तन  करेगा। ज्ञानी संसार में बैठे हुए भी अपने स्वरूप में डटे रहते हैं।
भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ. श्रीराधाकृष्णन् अच्छे चिन्तक माने जाते हैं। उन्होंने एक कहानी लिखी हैः
एक भठियारा था। उसको हर रोज स्वप्न आता कि मैं चक्रवर्ती सम्राट हूँ। वह अपना काम निपटाकर जल्दी-जल्दी सो जाता उस मधुर स्वप्नलोक में जाने के लिए। बाहर के जगत में वह भठियारा था। खाने-पीने को भी पर्याप्त नहीं था। गुजारा चलाने के लिए बड़ा परिश्रम करना पड़ता था। लेकिन धीरे-धीरे वह स्वप्न में सुखी होने लगा तो बाहर के जगत में रूचि कम होने लगी।
प्रतिदिन स्वप्न में देखता कि मैं चक्रवर्ती सम्राट बन गया हूँ। छोटे-छोटे राजा लोग मेरी आज्ञा में चलते हैं। छनन-छनन करते हीरे, जवाहरात के गहनों से सजी ललनाएँ चँवर डुला रही हैं।
एक दिन स्वप्न में वह बाथरूम जाने उठा तो पास में जलती हुई भट्ठी में पैर पड़ गया। जलन के मारे चिल्ला उठा। सो तो रहा था भट्ठियों के बीच लेकिन स्वप्न देख रहा था कि सम्राट है, इसलिए वह सुखी था।
किसी भी परिस्थिति में आदमी का मन जैसा होता है, सुख-दुःख उसे वैसे ही प्रतीत होते हैं। ज्ञानी का मन परब्रह्म में होता है तो वे संसार में रहते हुए, सब व्यवहार करते हुए भी परम सुखी हैं, ब्रह्मज्ञान में मस्त हैं।
आदमी का शरीर कहाँ है इसका अधिक मूल्य नहीं है। उसका चित्त कहाँ है इसका अधिक मूल्य है। मंदिर में बैठा है पुजारी। सोच रहा है कि कब बारह बजें और लड्डू लेकर पुजारिन के पास जाऊँ। तो वह मंदिर में नहीं है, पुजारिन के पास है। चित्त परमात्मा में है और आप संसार में रहते हैं तो आप संसार में नहीं हैं, परमात्मा में हैं।
प्रभातकाल में उठो तब आँख बन्द करके ऐसा चिन्तन करो कि मैं गंगाकिनारे पर गया। पवित्र गंगामैया में गोता लगाया। किसी संत के चरणों में सिर झुकाया। उन्होंने मुझे मीठी निगाहों से निहारा।
पाँच मिनट ऐसा मधुर चिन्तन करो, आपका हृदय शुद्ध होने लगेगा, भाव पवित्र होने लगेगा।
सुबह उठकर देखे हुए सिनेमा के दृश्य याद आयेः 'आहाहा... वह मेरे पास आयी, मुझसे मिली.....' आदि आदि। तो देखो, सत्यानाश हो जायगा। कल्पना तो मन से होगी लेकिन तन पर भी प्रभाव पड़ जायगा। कल्पना में कितनी शक्ति है !
संत-महात्मा-सदगुरू-परमात्मा के साथ विचरते हैं, समाधि लगाते हैं, उनका स्मरण-चिन्तन करते हैं तो हृदय आनन्दित होता है।

स्रोतः- ......पूज्य गुरुदेव के सत्संग से 

शनिवार, 5 नवंबर 2011

भोगों से वैराग्य


"इन मल-मूत्र से भरे स्थानों के लिए मैं काम से अंधा हो रहा हूँ ! इन गंदे अंगों के पीछे मैं अपनी जिंदगी तबाह किये जा रहा हूँ !"
आंध्र प्रदेश में एक धनाढय सेठ का छोटा पुत्र वेमना माता-पिता की मृत्यु के बाद अपने भैया और भाभी की छत्रछाया में पला-बढ़ा। उसकी भाभी लक्ष्मी उसे माँ से भी ज्यादा स्नेह करती थी। वह जितने रूपये माँगता उतने उसे भाभी से मिल जाया करते। बड़ा भाई तो व्यापार में व्यस्त रहने लगा और छोटा भाई वेमना खुशामदखोरों के साथ घूमने लगा। उनके साथ भटकते-भटकते एक दिन वह वेश्या के द्वार तक पहुँच गया। वेश्या ने भी देखा कि ग्राहक मालदार है। उसने वेमना को अपने मोहपाश में फँसा लिया और कुकर्म के रास्ते चल पड़ा।
अभी वेमना की उम्र केवल 16-17 साल की ही थी। वेश्या जो-जो माँगें उसके आगे रखती, भाभी से पैसे लेकर वह उन्हें पूरी कर देता। एक बार उस वेश्या ने हीरे-मोतियों से जड़ा हार, चूड़ियाँ और अँगूठी माँगी।
वेमना उस वेश्या के मोहपाश में पूरी तरह बँध चुका था। उसने रात को भाभी के गहने उतार लिये। भाभी ने देख के अनदेखा कर दिया। कुछ दिनों बाद वेमना ने भाभी का मँगलसूत्र उतारने की कोशिश की, तब भाभी ने पूछाः "सच बता, तू क्या करता है ? पहले के गहने कहाँ गये ?" सच्चाई जानकर भाभी रो पड़ी। सोचने लगी कि 'इतनी सी उम्र में ही यह अपना तेज बल सब नष्ट कर रहा है।'
किंतु भाभी कोई साधारण महिला नहीं थी, सत्संगी थी। उसने देवर को गलत रास्ते जाने से रोकने के लिए डाँट-फटकार की जगह विचार का सहारा लिया और देवर के जीवन में भी सदविचार आ जाय – ऐसा प्रयत्न किया। उसने एक शर्त रखकर वेमना को जेवर दियेः
"बेटा ! वह तो वेश्या ठहरी। तू जैसा कहेगा, वैसा ही करेगी। उसे कहना कि 'तू नग्न होकर सिर नीचे करक और अपने घुटनों के बीच से हाथ निकालकर पीछे से ले, तब मैं तुझे गहने दूँगा।' जब वह इस तरह तेरे से गहने लेने लगे तब तू काली माता का स्मरण करके उनसे प्रार्थना करना कि हे माँ ! मुझे विचार दो, भक्ति दो। मुझे कामविकार से बचाओ।"
दूसरे दिन वेमना की शर्त के अनुसार जब वेश्या गहने लेने लगी, तब वेमना ने माँ काली से सदबुद्धि के लिए प्रार्थना की। भाभी की शुभ भावना और माँ काली की कृपा से वेमना का विवेक जाग उठा कि 'इन मल-मूत्र से भरे स्थानों के लिए मैं काम से अंधा हो रहा हूँ। इन गंदे अंगों  पीछे मैं अपनी जिंदगी तबाह किये जा रहा हूँ....' यह विचार आते ही वेमना तुरन्त गहने लेकर भाभी के पास आया और भाभी के चरणों में गिर पड़ा। भाभी ने वेमना का और भी मार्गदर्शन किया।
वेमना मध्यरात्रि में ही माँ काली के मंदिर में चला गया और सच्चे हृदय से प्रार्थना की। उसकी प्रार्थना से प्रसन्न होकर माँ काली ने उसे योग की दीक्षा दे दी और माँ के बताये निर्देश के अनुसार वह लग गया योग-साधना में। उसकी सुषुप्त शक्तियाँ जागृत होने लगीं और कुछ सिद्धियाँ भी आ गयीं। अब वेमना वेमना न रहा, योगिराज वेमना होकर प्रसिद्ध हो गया। उनके सत्संग से 'वेमना योगदर्शनम्' और 'वेमना तत्त्वज्ञानम्' – ये दो पुस्तकें संकलित हुई। आज भी आंध्र प्रदेश के भक्त लोग इन पुस्तकों को पढ़कर योग और ज्ञान के रास्ते पर चलने की प्रेरणा पाते हैं।
कहाँ तो वेश्या के मोह में फँसने वाला वेमना और कहाँ करूणामयी भाभी ने सही रास्ते पर लाने का प्रयास किया, माँ काली से दीक्षा मिली, चला योग व ज्ञान के रास्ते पर और भगवदीय शक्तियाँ पा लीं, भगवत्साक्षात्कार कर लिया एवं कइयों को भगवान के रास्ते पर लगाया। कई व्यसनी-दुराचारियों के जीवन को तार दिया। जिससे वे संत वेमना होकर आज भी पूजे जा रहे हैं।

आश्रम से प्रकाशित पुस्तक "अपने रक्षक आप" से लिया गया प्रसंग 
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