जीवन का आरम्भिक समय बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। जीवन का पतन और उत्थान बाल्यावस्था के संस्कारों पर ही निर्भर है। बाल्यावस्था व युवावस्था से ही जो व्यक्ति सदगुणों का संग्राहक है, दयालु है, उदार है, कष्टसहिष्णु है, कर्तव्यपरायण तथा प्रेमी है, आगे चलकर वही समाज में एक अच्छा मानव हो सकता है। युवावस्था में ही जो नशीले पदार्थों का व्यसनी हो जाता है तथा जिसमें क्रोध, अभिमान, इन्द्रिय-लोलुपता की प्रधानता है एवं जो काम, क्रोध और रसना के स्वाद के वेग को नहीं रोक पाता, वही आगे चलकर समाज में मानवता को कलंकित करता है। सौभाग्यशाली युवक उसी को समझना चाहिए जो अपने जीवन में आरम्भ से ही सज्जन एवं साधु-महात्माओं के सुसंग से दैवी सम्पत्ति को बढ़ाता है और कुसंग से बचता है।
अपने कर्तव्यकर्मों में सावधान रहना, प्रसन्न रहना, उन्हें विधि के साथ पूर्ण करने का दृढ़ संकल्प लेना – यह सब सफलता का शुभ मुहूर्त है। इसके विपरीत अपने कर्तव्य में आरम्भ से आलस्य करना, खिन्न उदास रहकर बिना मन के कार्य आरम्भ करना – ये सफलता के पथ में अशुभ संकेत हैं, अपशकुन हैं।
सभी का यह अनुभव है कि जिस दिन प्रातः उठने में आलस्यवश देरी हो जाती है, उस दिन शौच, स्नान आदि नित्यकर्म समयानुसार नहीं होते, उस दिन सभी कार्यों में गड़बड़ी, अस्त-व्यस्तता रहती है और जिस दिन समय पर उठने में एवं नित्यनियम पूर्ण करने में आलस्य नहीं रहता, उस दिन सभी कार्य व्यवस्थित ढंग से पूरे होते हैं। वह दिन हँसता हुआ सा प्रतीत होता है।
जिसका आरम्भ सुन्दर, धर्म, नीति और मर्यादा से सुसंबद्ध होकर विधिवत चलता है, उसका भविष्य भला क्यों न सुंदर, पवित्र, सुखमय और मंगलमय होगा ? अवश्य होगा !
जिन व्यक्तियों के हृदय में आरम्भ से केवल शरीर की सुंदरता का तथा शरीर को सुंदर बनाने के लिए वस्त्राभूषणों का और वस्त्राभूषणों के लिए धन का महत्त्व प्रतीत होता है, वे जीवन को सुंदर नहीं बना पाते। ऐसे लोग वस्तुओं एवं व्यक्तियों की दासत में बँधे रहते हैं। यदि बाल्यावस्था एवं युवावस्था के आरम्भ में आलस्य, विलासित, दुर्व्यसन अथवा भोग-कामनाओं को स्थान मिल जाता है, तब उस जीवन का मध्य और अंत भी प्रायः अशुभ एवं असुंदर ही सिद्ध होता है।
मनुष्य का भविष्य प्रकाशपूर्ण होगा या अंधकारपूर्ण, इसका परिचय आरम्भ की गतिविधियों से ही मिल जाता है। आरम्भ में साथ लगा हुआ थोड़ा सा दोष, थोड़ा सा कोई दुर्व्यन, थोड़ी सी चोरी की आदत, थोड़ा झूठ बोलने का स्वभाव, थोड़ी सी कुटेव अथवा कोई भी अनुचित कुचेष्टा आगे चलकर थोड़ी न रह जायेगी। वह उसी प्रकार अपना बड़ा आकार धारण करेगी, जिस प्रकार आरम्भ में थोड़ी सी अग्नि की चिनगारी ईंधन का संयोग पाकर भयानक रूप धारण करती है।
यह समझने की बात है कि आरम्भ में जो कुछ थोड़ा दिखता है, वह आगे कभी थोड़ा नहीं रह जाता। वह चाहे थोड़ा सा दोष हो या साथ चलने वाली कोई थोड़ी सी भूल हो अथवा कोई थोड़ा गुण हो या सुंदर भाव अथवा सदविचार हो या दुर्विचार।
बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए की सावधान होकर जो कुछ भी अशुभ, असुंदर, अपवित्र, अनावश्यक एवं अहितकर हो, उसे थोड़े से ही त्याग कर दे। जो थोड़े का त्याग नहीं कर सकता, वह अधिक का त्याग किस प्रकार करेगा ! अतः अधिक होने पर जिसका त्याग अति कष्टकर है उसका थोड़े से ही त्याग करना सुगम है।
जो प्रत्येक कार्य के आरम्भ में आवश्यक एवं हितकर का स्वीकार करना और अहितकर का त्याग करना जानता है, उसी का जीवन आगे चलकर सुंदर और पुण्यशाली होता है।
वैसे तो बाल्यावस्था और युवावस्था का आरम्भ अपने संरक्षकों अर्थात् माता-पिता, भाई, गुरुजनों के अधिकार में रहता है, फिर भी कुछ सयाने बालक अथवा युवक आरम्भ से ही अच्छी बुद्धि से युक्त होते हैं कि जिन्हें स्वयं ही अशुभ, असुंदर, अपवित्र बातों से घृणा होती है और शुभ, सुंदर, पवित्र बातों में अनायास ही प्रीति होती है।
माता-पिता, बड़े भ्राता तथा गुरु का कर्तव्य है कि वे अपनी संतान का आरम्भ से ही किसी प्रकार की अशुद्ध, असुंदर, अपवित्र बातों से संसर्ग न होने दें। बालकों के हृदय एवं मस्तिष्क में आरम्भ से विद्याध्ययन तथा बड़ों के प्रति शिष्टाचार, सदाचार, धर्म एवं ईश्वर का महत्त्व भरना चाहिए।
आरम्भ को सुंदर बनाना, कुसंग तथा कुसंस्कार से दूषित न होने देना, शुभ कर्मों में ही शक्ति का सदुपयोग करना, धर्मतत्त्व, ईश्वरतत्त्व को जानने की अभिलाषा को प्रबल बनाना – ये सौभाग्यवानों में ही देख जाते हैं।
मनुष्य की जीवनगति प्रकाश की ओर है या अंधकार की ओर – इसका ज्ञान दूरदर्शी एवं बुद्धिमान को आरम्भ के दर्शन से ही हो जाता है।
किसी प्रकार के आरम्भ को आलस्य और प्रमाद से बचाकर सुंदर संग से विधिवत् सँभालना ही भविष्य को सुंदर बनाना है।
प्रातःकाल नींद खुलते ही आरम्भ में ही उस परमात्मा का स्मरण कर लो, जिसकी सत्ता से तुम जी रहे हो और सब प्रकार की इच्छाओं की पूर्ति का रस ले रहे हो।
दिन में कार्य आरम्भ करने की विधि को, उसकी मर्यादित गति को और दिन भर के कार्यक्रम को समझ लो। स्मरण न रहे तो आरम्भ में ही सब कार्य लिख लो।
किसी से मिलो तो आरम्भ में सरल भाव से, प्रसन्नचित्त से, गम्भीरतापूर्वक, सुंदर शब्दों में बात करो अधिक बनावटीपन न आने दो और भद्दापन भी मिश्रित न होने दो। किसी से प्रीति का संबंध जोड़ो तो आरम्भ में ही अपनी चाह, अपना स्वभाव या त्रुटि उसके सामने रख दो, उसे आरम्भ में ही तैयार कर लो कि वह तुमसे यदि प्रेम करता है तो तुम्हारी त्रुटियों के साथ, भूलों के साथ, दोषों के साथ किस प्रकार निर्वाह करना होगा। उसे धोखा न दो ताकि विश्वासघात न हो।
जो कार्य आरम्भ करो, प्रारम्भ में ही उसकी पूर्ति के साधन जुटा लो, जो कुछ प्रतिकूलताएँ आ सकती हों, उनका सामना करने के लिए, अपने को सावधान करने के लिए जिन-जिन बातों की आवश्यकता पड़ती हो, उनको साथ लिये रहो। इससे साधन के सिद्ध होने में चूक नहीं होगी। यह तो हुई व्यवहार-जगत की बात, साधना-जगत में तो इससे भी अधिक सावधान रहने की आवश्यकता है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2010, पृष्ठ संख्या 25,26 अंक 211
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