एक बार विद्वानों की सभा में चर्चा हो रही थी कि जीवन का अमृत कहाँ है ?
एक विद्वान ने कहाः "पूछने की क्या जरूरत है, अमृत तो स्वर्ग में है।"
दूसरे ने कहाः "स्वर्ग में अमृत है तो वहाँ से पतन नहीं होना चाहिए। हम स्वर्ग में वास्तविक अमृत नहीं समझते हैं।"
तीसरे ने कहाः "अमृत चंद्रमा में है।"
चौथे ने कहाः "अगर चन्द्रमा में अमृत है तो उसका क्षय क्यों होता है ?"
किसी ने कहाः "सागर में अमृत है।"
"अगर सागर में अमृत होता तो वह खारा क्यों होता !"
बहुत देर चर्चा चली पर कोई निर्णय नहीं हो पाया। इतने में महाकवि कालिदास जी वहाँ आये। सबने कालिदासजी को प्रणाम किया और कहाः "इस समस्या का हल अब आप ही बताइये।"
उन्होंने कहाः "कंठे सुधा वसति वै भगवज्जनानाम्।
भगवान के प्यारे संतों के कंठ में, उनकी आत्मिक वाणी से ही वास्तविक अमृत होता है। स्वर्ग का अमृत तो क्षोभ से, मंथन से निकला था, वह वास्तविक अमृत नहीं है। संत के हृदय से जो परमात्म-अनुभव, आत्मानंद और ईश्वरीय शांति से ओतप्रोत अमृतवाणी का झरना फूट निकलता है, वही सच्चा अमृत है।"
हमारे जितने भी शास्त्र बने हैं, वे इसी अमृत से बने हैं इसलिए उनमें हर प्रकार के जागतिक लाभ के साथ-साथ आत्मलाभ कराने की भी शक्ति है। उन्हें शास्त्र नहीं, 'सत्शास्त्र' कहा जाता है और उनकी पूजा होती है। जीवन-निर्माण के महत्कार्य में सत्साहित्य नींव का मजबूत पत्थर है, जो भले दिखता न हो पर उसी के आधार पर सफल जीवनरूपी इमारत खड़ी हो सकती है। जैसा साहित्य हम पढ़ते हैं, वैसे ही विचार मन में चलते रहते हैं और उन्हीं विचारों से हमारा सारा व्यवहार प्रभावित होता है। अतः हमें ऐसे साहित्य का अध्ययन करना चाहिए जिससे हमारी शारीरिक, मानसिक, नैतिक, आध्यात्मिक – सर्वांगीण उन्नति हो।
सत्साहित्य की महत्ता को उजागर करती हुई नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के जीवन की एक घटना है। क्लंग की घाटी पर युद्ध में 100 अंग्रेजों का सामना आजाद हिन्द फौज के केवल 3 सैनिक कर रहे थे। सुभाष जी के पास समाचार भेजकर पूछा गया कि क्या सैनिक पीछे हटा लिये जायें ? वे असमंजस में पड़ गये परंतु घबराये नही। उनके जीवन में सत्शास्त्रों का बहुत प्रभाव था। जब भी कठिन परिस्थितियाँ आती थीं तो वे उनकी शरण जाते थे। उस दिन उन्होंने एक सत्साहित्य पढ़ा, जिसमें एक स्थान पर लिखा था - 'सिर पर संकटों के बादल मँडरा रहे हों, तब भी धैर्य नहीं खोना चाहिए।' यह पढ़कर उन्होंने उन तीनों सैनिकों को संदेश भेजाः "भारत माता के वीर सपूतो ! जब तक शत्रु का सफाया नहीं होता डटे रहो। परमात्मा हमारे साथ है।"
इन शब्दों ने सैनिकों के शरीर में जैसे जान ही फूँक दी। वे ऐसे जी-जीन से लड़े कि अंग्रेज सैनिकों के छक्के छूटने लगे। उनके हौंसले पस्त हो गये और वे चौकी छोड़ के भाग गये। यह परिणाम सत्साहित्य के कारण ही आया। इसलिए सत्साहित्य की तो जितनी महिमा गायी जाय उतनी कम है।
पूज्य बापू जी के गुरुदेव पूज्यपाद भगवत्प्राद श्री लीलाशाह जी महाराज का यह विश्वास था कि सत्साहित्य, धर्म एवं नीति के शास्त्र ही मानव-जीवन का निर्माण करने एवं जीवन को उन्नति के पथ पर ले जाने वाले हैं। साहित्य मनुष्य-जीवन, समाज एवं देश में नयी जागृति लाता है। लोगों को सच्ची राह बता के उन्नति के पथ पर चलने के लिए प्रेरित करता है। वे कहते थे कि "सच्चा साहित्य वही है जिसमें 'सत्यं शिवम् सुन्दरम्' के गीत गूँजते हों।"
सत्यम् अर्थात् जो निज स्वरूप का मार्ग बताये, शिवम् अर्थात् जो कल्याणकारी हो, सुंदरम् अर्थात् जो सुंदर जीवन जीने की कला बतायें।
पूज्य संत श्री आशारामजी बापू के कथनानुसार ऐसा साहित्य ही वास्तव में मानव-जीवन का अमूल्य खजाना है। इससे हमें बहुत अच्छा ज्ञान मिलता है, भगवान में प्रेम जागता है, आत्मकल्याण होता है। शरीर को निरोग बनाने, मन को प्रसन्न रखने और बुद्धि को दिव्य बनाने की अदभुत व्यवस्था हमारे सत्शास्त्रों में है। सत्साहित्य में महापुरुषों, गुरुभक्तों और भगवान के लाड़ले संतों की कथाओं व अनुभवों का वर्णन आता है, जिसका बार-बार पठन-मनन करके आप सचमुच महान बन जाओगे। जीवन में सत्साहित्य का महत्त्व बताते हुए युद्ध के मैदान में भगवान स्वयं कहते हैं-
न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः।
भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि।।
'(मेरे ज्ञान का जो कोई संसार में प्रचार करेगा) उससे बढ़कर मेरा प्रिय कार्य करने वाला मनुष्यों में कोई भी नहीं है तथा पृथ्वी भर में उससे बढ़कर मेरा प्रिय दूसरा कोई भविष्य में होगा भी नहीं।' (गीताः 18.61)
स्वामी विवेकानंद कहते थेः 'जिस घर में सत्साहित्य नहीं, वह घर नहीं वरन् श्मशान है।'
पूज्य बापू जी कहते हैं- "मेरे गुरुदेव अस्सी वर्ष की आयु में भी किताबों की गठरी बाँधकर नैनीताल की पहाड़ियों में जाते, सत्संग सुनाते, प्रसाद बाँटते और लोगों को सत्साहित्य पढ़ने को देते। उन्हीं महापुरुष के निष्काम कर्मयोग का फल आज हम लाखों लोगों को मिल रहा है। साधक दिन-रात एक करके सत्साहित्य को लोगों तक पहुँचाने की जो सेवा करते हैं, उससे उनके हृदय में निष्कामता का आनंद उभरने लगता है।"
पूज्य बापू जी के ओजपूर्ण पावन अमृतवचनों के संकलन से बनी पुस्तकें समाज के हर वर्ग के लोगों के सर्वांगीण विकास की कुंजियाँ संजोये हुए हैं। अत्यंत कम कीमत में मिलने वाला यह सत्साहित्य वैचारिक प्रदूषण मिटाने में अत्यधिक कारगर सिद्ध हुआ है। इसके प्रचार-प्रसार से कितने ही घर बरबाद होने से बच गये, कितने ही लोगों की आलसी-प्रमादी और पलायनवादी लोग कर्मनिष्ठ बन गये, व्यसनी-दुराचारी लोग सदाचारी व समाजसेवी हो गये, नास्तिक आस्तिक हो गये, पतन की राह जाने वाले नैतिक, आध्यात्मिक उन्नति की ओर चल पड़े.... इससे समाज, राष्ट्र एवं समग्र विश्व को कितना लाभ हो रहा है, वह लाबयान है ! वे धनभागी हैं, जो सांसारिक कार्यों से समय निकाल के भगवत्प्रसन्नता पाने हेतु पूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी को घर-घर पुण्यात्मा राष्ट्रभक्ति, राष्ट्रसेवा का अमित पुण्य लाभ भी घर बैठे ही ले रहे हैं। पूज्य श्री का संदेश अब हमें हर घर में पहुँचाना है, हर दिल को जगाना है !
गुरुपूर्णिमा महापर्व पर हम सब संकल्प लें कि मानव-समाज को उन्नति के मार्ग पर ले जाने वाले आश्रम के सत्साहित्य को त्यौहार, जन्मोत्सव, शादी-विवाह आदि शुभ प्रसंगों पर अपने सगे-संबंधियों, मित्रों या अन्य लोगों में वितरित करेंगे। 'घर-घर सत्साहित्य पहुँचाओ' अभियान चलायेंगे और पूज्य श्री की अमृतवाणी से ओतप्रोत सत्साहित्य को घर-घर तक पहुँचाने के भगीरथ सेवाकार्य में अधिक-से-अधिक सहभागी बनेंगे।
(यह सत्साहित्य सभी आश्रमों व समितियों के सेवा-केन्द्रों पर उपलब्ध है।)
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2011, पृष्ठ संख्या 8,9 अंक 223
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