पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से
भगवान श्रीकृष्ण ने भागवत में कहा कि मेरी उपासना के आठ स्थान हैं। उनमें से किसी में भी लग गये तो भगवदरस, भगवत्प्रीति, भगवत तृप्ति, भगवन्माधुर्य में प्रवेश मिल जाता है।
अर्चायां स्थण्डिलेऽग्नौ वा सूर्ये वाप्सु हृदि द्विजे।
द्रव्येण भक्तियुक्तोऽर्चेत् स्वगुरुं माममायया।।
'भक्तिपूर्वक निष्कपट भाव से अपने पिता एवं गुरूरूप मुझ परमात्मा की पूजा की सामग्रियों के द्वारा मूर्ति में, वेदी में, अग्नि में, सूर्य में, जल में, हृदय में अथवा ब्राह्मण में – चाहे किसी में भी आराधना करे।' (श्रीमद् भागवतः11.27.9)
मूर्तिः मुझ चैतन्य को पाने-जानने के लिए पूजा की सामग्रियों द्वारा देवी-देवता, भगवान, ब्रह्मज्ञानी गुरु आदि की जो मूर्ति है उसमें मेरी पूजा की जा सकती है। मेरी मूर्ति की सेवा पूजा करना और उसको एकटक देखते हुए एकाग्र होना, यह भी मेरी उपासना है।
वेदीः वेदी में आहूति देकर (यज्ञ के द्वारा) वातावरण में शुभ संकल्प फैलाना, ॐ इन्द्राय स्वाहा, इदं इन्द्राय इदं न मम। 'यह इन्द्र के लिए है, मेरा नहीं।' ॐ वरूणाय स्वाहा, इदं वरूणाय इदं न मम। "यह वरूण के लिए है, मेरा नहीं।" 'यह कुबेर के लिए है, मेरा नहीं...' इस प्रकार ममता हटायें। तो ममता हटाने की रीति जो यज्ञों में बतायी गयी, वह भी मेरी उपासना है।
'मेरा नहीं है'.... तो एक तो 'मैं' और दूसरा 'मेरा' ये दोनों माया है। 'वस्तु मेरी नहीं है, फिर शरीर को जो 'मैं' मानता हूँ वह 'मैं' मैं नहीं हूँ। शरीर के बाद भी जो ठहरता है, वह चैतन्य मेरा परमात्मा है।' – इस ढंग की समझ से विधि के द्वारा मेरी पूजा होती है।
अग्निः भगवान बोलते हैं कि अग्नि देवता के ध्यान के द्वारा घृतमिक्षित हवन-सामग्रियों से आहुति देकर की हुई पूजा भी मेरी पूजा है।
सूर्यः अर्घ्यदान, उपस्थान (उपासना, पूजा के निमित्त निकट जाना, सामने आना) तथा आँखें बंद करके सूर्यनारायण का ध्यान करना, इससे बुद्धि भी विकसित होती है और भगवत्साधना भी मानी जाती है।
जलः भगवान कहते हैं कि जलतत्त्व भी मेरा ही स्वरूप है। जल में तर्पण आदि से मेरी उपासना करनी चाहिए। जब मुझे कोई भक्त हार्दिक श्रद्धा से जल चढ़ाता है, तब मैं उसे बड़े प्रेम से स्वीकार करता हूँ। वह भक्त जल में एकदृष्टि (परमात्मदृष्टि) करता है अथवा 'गंगे च यमुने चैव...' कह के पुण्यनदियों का आवाहन करके उस जल से स्नान करता है, 'केशवाय नमः, नारायणाय नमः...' कहकर आचमन लेता है, पंचामृत आदि बनाता है तो जल में यह जो भगवदभाव है, आदरभाव है उससे शांति, पुण्याई होती है। यह भी मेरी पूजा का एक तरीका है।
हृदयः हृदय में मेरी पूजा करें। श्वासोच्छ्वास के साथ मेरा नाम जप करें।
बोलेः भगवान हृदय में हैं तो हृदय बड़ा और भगवान छोटे !
अरे ! भगवान हृदय में उतने लगते हैं लेकिन भगवान की सत्ता अनंत ब्रह्माण्डों में व्याप्त है। बीज छोटा लगता है पर उसमें संस्कार कैसे हैं कि बड़ा वटवृक्ष भी छुपा है उसमें ! एक बीज में कितने वृक्ष छिपे हैं, सारे विज्ञानी मिलकर उसका गणित नहीं लगा सकते, ब्रह्माजी भी नहीं लगा सकते। ऐसे ही एक मनुष्य से कितने मनुष्यों की परम्परा चलेगी, ब्रह्माजी नहीं बता सकते। हरि अनंत हैं तो हरि की हर चीज भी तो अनंत की खबर दे रही है। एक बीज का अंत हो जायेगा क्या ? एक गुठली बोयी आम की, उससे आम का वृक्ष बना और कल्पना करो कि हजार फल लगे उसमें। अब हजार फल खा लो और गुठलियाँ बो दो। फिर हजार पेड़ हुए। उन हजार पेड़ों की गुठलियाँ बो दो, अब उनकी संख्या कितने तक पहुँच सकती है ? एक आम का या एक वटवृक्ष का बीज कितने बीज दे सकता है, इसका कोई अंत है क्या? तो जैसे यह बीज है वैसे ही अनंत की हर चीज अनंत की खबर है। तो आप अपने को जन्मने-मरने वाला मत मानिये। जन्मने-मरने वाले शरीर को जो सत्ता दे रहा है, आप उस चैतन्य को 'मैं' रूप जानिये। इसलिए यह उपासना बताते हैं भगवान।
तो भगवान कहते हैं कि हृदय में मेरा ध्यान करे – चतुर्भुजी रूप का, द्विभुजी रूप का अथवा श्वास अंदर जाय तो उसको देखे, बाहर आये तो गिनती करे, इस प्रकार अंतरंग ध्यान करे। सुख आया, दुःख आया, काम आया, क्रोध आया.... इनको देखे, इनके साथ जुड़े नहीं तो यह भी एक प्रकार की मेरी अंतरंग उपासना है। एक-से-एक प्रभावशाली उपासनाएँ हैं भगवान की।
ब्राह्मणः ब्राह्मणों में मेरी भावना करे, उनमें मेरे स्वरूप को देखे। जो सदाचारी, संयमी ब्राह्मण हैं, वे भगवत्स्वरूप हैं। जो ब्रह्म को जानने का यत्न करते हैं और जिनका खानपान, व्यवहार सात्त्विक है, ऐसे ब्राह्मण देवता में भी मेरा भाव करे और उनके सदगुण ले।
सदगुरुः आठवाँ पूजा-स्थान बताते हुए भगवान बोलते हैं कि इन सब पूजाओं की पराकाष्ठा यह है कि जिन्होंने मुझ सच्चिदानन्द को पाया है, जिनको मेरा साक्षात्कार हुआ है, अवतार लेकर जिनको मैं पूजता हूँ, ऐसे आत्मवेत्ता सदगुरु तो मेरा स्वरूप ही हैं। सदगुरू मेरे भी आदरणीय-पूजनीय होते हैं। मैं अवतार लेकर उनका चेला बनता हूँ। ऐसे सदगुरु की आज्ञा में जिसने तन को, मन को, जीवन को लगा दिया, वह तो मेरे साथ एकाकारता कर लेता है।
पूर्ण गुरु किरपा मिली, पूर्ण गुरु का ज्ञान....
सदगुरू के वचन में शबरी लग गयी, पूरणपोड़ा लग गया और वे भगवान के साथ एकाकार हो गये। तारक सदगुरु मिल गये तो आप सारी उपासनाओं की ऊँचाई पर आ जाओगे। संत कबीर जी भी कहते हैं-
सदगुरु मेरा सूरमा, करे शब्द की चोट।
मारे गोला प्रेम का, हरे भरम की कोट।।
'मैं मराठा हूँ... मैं माई हूँ.... मैं भाई हूँ... मैं दुःखी हूँ..... मैं सुखी हूँ....' – यह भ्रम हो गया है। सुख-दुःख होते हैं मन को, मैं उनको जानने वाला हूँ। ऐसा दृश्य दिखे, ऐसा दिखे, ऐसा दिखे....' वह तो मन को दिखेगा, तेरे को क्या मिलेगा ? तो कभी-कभी मान्याताएँ और सामाजिक वातावरण ऐसा हमको उलझा देता है कि लगता है भगवान को पाना बड़ा कठिन है।
लोग सोचते हैं कि 'बापू जी ने बड़ी तपस्या की। महात्मा बुद्ध ने बड़ी तपस्या की।' नहीं पता था इसलिए बड़ी गधा-मजदूरी की, इधर-उधर भटके थे, पता चला तो यूँ है। मेरे बड़े बापू (भगवत्पाद साँईं श्री लीलाशाहजी महाराज) को जो मेहनत करनी पड़ी, उसका सौवाँ हिस्सा मुझे मेहनत नहीं करनी पड़ी। लेकिन फिर भी जो मुझे अनजाने में पापड़ बेलने पड़े, उसका हजारवाँ हिस्सा भी तुम्हें मेहनत नहीं करनी पड़ती और मौज मार रहे हो ! (सामने बैठे सत्संगियों से) तुम्हारे लिए क्या कठिन है ?सारी तपस्याओं से जो न मिले वह ऐसे ही मिल रहा है हँसते-खेलते, सुनते।
हँसिबो खेलिबो धरिबो ध्यान, अहर्निश कथिबो ब्रह्मज्ञान।
खावे पीवे न करे मन भंगा, कहे नाथ मैं तिसके संगा।।
क्या कठिन है ? नहीं तो रावण सोने की लंका बनाने में सफल हो गया, हिरण्यकशिपु सोने का हिरण्यपुर बनाने में सफल हो गया, ऐसा उनका तप था लेकिन शरीर, मन और बुद्धि तक ही तो पहुँचे ! यह तपोमय बुद्धि, एकाग्रता तो उन्हें मिली किंतु स्वतः सिद्ध जो सुख है वह नहीं मिला। साठ हजार वर्ष तप करके जो पाया उसका आखिर नाश हो गया। अगर इन दोनों सज्जनों को साक्षात्कारी गुरु मिले होते और उनके नजरिये से चले होते तो साल दो साल में ऐसी चीज पाते की जिसका कभी नाश नहीं हो सकता। सदगुरु मिले तो चालीस दिनों में मैंने जो पाया है, उसका कभी नाश नहीं हो सकता। तो भगवान सदगुरू की महिमा बताते हुए कहते हैं कि ऐसे सदगुरु की आराधना, पूजा मेरी एकदम सीधी और सहजता में मेरी प्राप्ति कराने वाली पूजा है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2011, पृष्ठ संख्या 17,18,19 अंक 222
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भगवान श्रीकृष्ण ने भागवत में कहा कि मेरी उपासना के आठ स्थान हैं। उनमें से किसी में भी लग गये तो भगवदरस, भगवत्प्रीति, भगवत तृप्ति, भगवन्माधुर्य में प्रवेश मिल जाता है।
अर्चायां स्थण्डिलेऽग्नौ वा सूर्ये वाप्सु हृदि द्विजे।
द्रव्येण भक्तियुक्तोऽर्चेत् स्वगुरुं माममायया।।
'भक्तिपूर्वक निष्कपट भाव से अपने पिता एवं गुरूरूप मुझ परमात्मा की पूजा की सामग्रियों के द्वारा मूर्ति में, वेदी में, अग्नि में, सूर्य में, जल में, हृदय में अथवा ब्राह्मण में – चाहे किसी में भी आराधना करे।' (श्रीमद् भागवतः11.27.9)
मूर्तिः मुझ चैतन्य को पाने-जानने के लिए पूजा की सामग्रियों द्वारा देवी-देवता, भगवान, ब्रह्मज्ञानी गुरु आदि की जो मूर्ति है उसमें मेरी पूजा की जा सकती है। मेरी मूर्ति की सेवा पूजा करना और उसको एकटक देखते हुए एकाग्र होना, यह भी मेरी उपासना है।
वेदीः वेदी में आहूति देकर (यज्ञ के द्वारा) वातावरण में शुभ संकल्प फैलाना, ॐ इन्द्राय स्वाहा, इदं इन्द्राय इदं न मम। 'यह इन्द्र के लिए है, मेरा नहीं।' ॐ वरूणाय स्वाहा, इदं वरूणाय इदं न मम। "यह वरूण के लिए है, मेरा नहीं।" 'यह कुबेर के लिए है, मेरा नहीं...' इस प्रकार ममता हटायें। तो ममता हटाने की रीति जो यज्ञों में बतायी गयी, वह भी मेरी उपासना है।
'मेरा नहीं है'.... तो एक तो 'मैं' और दूसरा 'मेरा' ये दोनों माया है। 'वस्तु मेरी नहीं है, फिर शरीर को जो 'मैं' मानता हूँ वह 'मैं' मैं नहीं हूँ। शरीर के बाद भी जो ठहरता है, वह चैतन्य मेरा परमात्मा है।' – इस ढंग की समझ से विधि के द्वारा मेरी पूजा होती है।
अग्निः भगवान बोलते हैं कि अग्नि देवता के ध्यान के द्वारा घृतमिक्षित हवन-सामग्रियों से आहुति देकर की हुई पूजा भी मेरी पूजा है।
सूर्यः अर्घ्यदान, उपस्थान (उपासना, पूजा के निमित्त निकट जाना, सामने आना) तथा आँखें बंद करके सूर्यनारायण का ध्यान करना, इससे बुद्धि भी विकसित होती है और भगवत्साधना भी मानी जाती है।
जलः भगवान कहते हैं कि जलतत्त्व भी मेरा ही स्वरूप है। जल में तर्पण आदि से मेरी उपासना करनी चाहिए। जब मुझे कोई भक्त हार्दिक श्रद्धा से जल चढ़ाता है, तब मैं उसे बड़े प्रेम से स्वीकार करता हूँ। वह भक्त जल में एकदृष्टि (परमात्मदृष्टि) करता है अथवा 'गंगे च यमुने चैव...' कह के पुण्यनदियों का आवाहन करके उस जल से स्नान करता है, 'केशवाय नमः, नारायणाय नमः...' कहकर आचमन लेता है, पंचामृत आदि बनाता है तो जल में यह जो भगवदभाव है, आदरभाव है उससे शांति, पुण्याई होती है। यह भी मेरी पूजा का एक तरीका है।
हृदयः हृदय में मेरी पूजा करें। श्वासोच्छ्वास के साथ मेरा नाम जप करें।
बोलेः भगवान हृदय में हैं तो हृदय बड़ा और भगवान छोटे !
अरे ! भगवान हृदय में उतने लगते हैं लेकिन भगवान की सत्ता अनंत ब्रह्माण्डों में व्याप्त है। बीज छोटा लगता है पर उसमें संस्कार कैसे हैं कि बड़ा वटवृक्ष भी छुपा है उसमें ! एक बीज में कितने वृक्ष छिपे हैं, सारे विज्ञानी मिलकर उसका गणित नहीं लगा सकते, ब्रह्माजी भी नहीं लगा सकते। ऐसे ही एक मनुष्य से कितने मनुष्यों की परम्परा चलेगी, ब्रह्माजी नहीं बता सकते। हरि अनंत हैं तो हरि की हर चीज भी तो अनंत की खबर दे रही है। एक बीज का अंत हो जायेगा क्या ? एक गुठली बोयी आम की, उससे आम का वृक्ष बना और कल्पना करो कि हजार फल लगे उसमें। अब हजार फल खा लो और गुठलियाँ बो दो। फिर हजार पेड़ हुए। उन हजार पेड़ों की गुठलियाँ बो दो, अब उनकी संख्या कितने तक पहुँच सकती है ? एक आम का या एक वटवृक्ष का बीज कितने बीज दे सकता है, इसका कोई अंत है क्या? तो जैसे यह बीज है वैसे ही अनंत की हर चीज अनंत की खबर है। तो आप अपने को जन्मने-मरने वाला मत मानिये। जन्मने-मरने वाले शरीर को जो सत्ता दे रहा है, आप उस चैतन्य को 'मैं' रूप जानिये। इसलिए यह उपासना बताते हैं भगवान।
तो भगवान कहते हैं कि हृदय में मेरा ध्यान करे – चतुर्भुजी रूप का, द्विभुजी रूप का अथवा श्वास अंदर जाय तो उसको देखे, बाहर आये तो गिनती करे, इस प्रकार अंतरंग ध्यान करे। सुख आया, दुःख आया, काम आया, क्रोध आया.... इनको देखे, इनके साथ जुड़े नहीं तो यह भी एक प्रकार की मेरी अंतरंग उपासना है। एक-से-एक प्रभावशाली उपासनाएँ हैं भगवान की।
ब्राह्मणः ब्राह्मणों में मेरी भावना करे, उनमें मेरे स्वरूप को देखे। जो सदाचारी, संयमी ब्राह्मण हैं, वे भगवत्स्वरूप हैं। जो ब्रह्म को जानने का यत्न करते हैं और जिनका खानपान, व्यवहार सात्त्विक है, ऐसे ब्राह्मण देवता में भी मेरा भाव करे और उनके सदगुण ले।
सदगुरुः आठवाँ पूजा-स्थान बताते हुए भगवान बोलते हैं कि इन सब पूजाओं की पराकाष्ठा यह है कि जिन्होंने मुझ सच्चिदानन्द को पाया है, जिनको मेरा साक्षात्कार हुआ है, अवतार लेकर जिनको मैं पूजता हूँ, ऐसे आत्मवेत्ता सदगुरु तो मेरा स्वरूप ही हैं। सदगुरू मेरे भी आदरणीय-पूजनीय होते हैं। मैं अवतार लेकर उनका चेला बनता हूँ। ऐसे सदगुरु की आज्ञा में जिसने तन को, मन को, जीवन को लगा दिया, वह तो मेरे साथ एकाकारता कर लेता है।
पूर्ण गुरु किरपा मिली, पूर्ण गुरु का ज्ञान....
सदगुरू के वचन में शबरी लग गयी, पूरणपोड़ा लग गया और वे भगवान के साथ एकाकार हो गये। तारक सदगुरु मिल गये तो आप सारी उपासनाओं की ऊँचाई पर आ जाओगे। संत कबीर जी भी कहते हैं-
सदगुरु मेरा सूरमा, करे शब्द की चोट।
मारे गोला प्रेम का, हरे भरम की कोट।।
'मैं मराठा हूँ... मैं माई हूँ.... मैं भाई हूँ... मैं दुःखी हूँ..... मैं सुखी हूँ....' – यह भ्रम हो गया है। सुख-दुःख होते हैं मन को, मैं उनको जानने वाला हूँ। ऐसा दृश्य दिखे, ऐसा दिखे, ऐसा दिखे....' वह तो मन को दिखेगा, तेरे को क्या मिलेगा ? तो कभी-कभी मान्याताएँ और सामाजिक वातावरण ऐसा हमको उलझा देता है कि लगता है भगवान को पाना बड़ा कठिन है।
लोग सोचते हैं कि 'बापू जी ने बड़ी तपस्या की। महात्मा बुद्ध ने बड़ी तपस्या की।' नहीं पता था इसलिए बड़ी गधा-मजदूरी की, इधर-उधर भटके थे, पता चला तो यूँ है। मेरे बड़े बापू (भगवत्पाद साँईं श्री लीलाशाहजी महाराज) को जो मेहनत करनी पड़ी, उसका सौवाँ हिस्सा मुझे मेहनत नहीं करनी पड़ी। लेकिन फिर भी जो मुझे अनजाने में पापड़ बेलने पड़े, उसका हजारवाँ हिस्सा भी तुम्हें मेहनत नहीं करनी पड़ती और मौज मार रहे हो ! (सामने बैठे सत्संगियों से) तुम्हारे लिए क्या कठिन है ?सारी तपस्याओं से जो न मिले वह ऐसे ही मिल रहा है हँसते-खेलते, सुनते।
हँसिबो खेलिबो धरिबो ध्यान, अहर्निश कथिबो ब्रह्मज्ञान।
खावे पीवे न करे मन भंगा, कहे नाथ मैं तिसके संगा।।
क्या कठिन है ? नहीं तो रावण सोने की लंका बनाने में सफल हो गया, हिरण्यकशिपु सोने का हिरण्यपुर बनाने में सफल हो गया, ऐसा उनका तप था लेकिन शरीर, मन और बुद्धि तक ही तो पहुँचे ! यह तपोमय बुद्धि, एकाग्रता तो उन्हें मिली किंतु स्वतः सिद्ध जो सुख है वह नहीं मिला। साठ हजार वर्ष तप करके जो पाया उसका आखिर नाश हो गया। अगर इन दोनों सज्जनों को साक्षात्कारी गुरु मिले होते और उनके नजरिये से चले होते तो साल दो साल में ऐसी चीज पाते की जिसका कभी नाश नहीं हो सकता। सदगुरु मिले तो चालीस दिनों में मैंने जो पाया है, उसका कभी नाश नहीं हो सकता। तो भगवान सदगुरू की महिमा बताते हुए कहते हैं कि ऐसे सदगुरु की आराधना, पूजा मेरी एकदम सीधी और सहजता में मेरी प्राप्ति कराने वाली पूजा है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2011, पृष्ठ संख्या 17,18,19 अंक 222
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