मासिक साधना उपयोगी तिथियाँ

व्रत त्योहार और महत्वपूर्ण तिथियाँ

25 फरवरी - माघी पूर्णिमा
03 मार्च - रविवारी सप्तमी (शाम 06:19 से 04 मार्च सूर्योदय तक )
06 मार्च -
व्यतिपात योग (दोपहर 14:58 से 07 मार्च दिन 12:02 मिनट तक)
08 मार्च - विजया एकादशी (यह त्रि स्पृशा एकादशी है )
09 मार्च - शनि प्रदोष व्रत
10 मार्च - महा शिवरात्री (निशीथ काल मध्यरात्री 12:24 से 01:13 तक )
11 मार्च - सोमवती अमावस्या (
सूर्योदय से रात्री 1:23 तक )
11 मार्च - द्वापर युगादी तिथि
14 मार्च - षडशीति संक्रांति (पुण्यकाल शाम 4:58 से
सूर्योदय तक)
19 मार्च - होलाष्टक प्रारम्भ
20 मार्च - बुधवारी अष्टमी (
सूर्योदय से दोपहर 12:12 तक)
23 मार्च - आमलकी एकादशी
24 मार्च - प्रदोष व्रत
26 मार्च - होलिका दहन
27 मार्च - धुलेंडी , चैतन्य महाप्रभु जयंती
29 मार्च - संत तुकाराम द्वितीय
30 मार्च - छत्रपति शिवाजी जयन्ती

शनिवार, 30 जुलाई 2011

हरि सेवा कृत सौ बरस, गुरु सेवा पल चार....


1703 ईसवी में अलवर शहर से 8 कि.मी. के अंतर पर डेहरा गाँव में एक दिव्य आत्मा का अवतरण हुआ, नाम रखा गया – रणजीत। संसाररूपी रण को सचमुच जीतने वाला वह होनहार बालक रणजीत हीरा था। उनके चित्त में विवेक जगता कि 'खाना-पीना, रहना-सोना, मिलना-जुलना, आखिर बूढ़े होना और मर जाना.... बस, इसके लिए मनुष्य-जीवन नहीं मिला। मनुष्य जीवन किसी ऊँची अनुभूति के लिए मिला है।' अब सदगुरू तो थे नहीं उनके, फिर भी वे सुना सुनाया राम-राम रटते थे। इससे पाँच वर्ष की उम्र में उनकी ऐसी मति गति हो गयी कि मन में भगवत्प्रेम और बुद्धि में भगवत्प्रकाश छाने लगा।

एक दिन जब वे रामनाम-कीर्तन में मस्त थे, तब वैरागी-तपस्वी वेदव्यासनंदन शुकदेवजी ने उन्हें अपनी गोद में लेकर प्यार किया। इससे उनके हृदय में प्रभुप्रेम की प्रबल धारा प्रवाहित हो गयी। छः वर्ष की उम्र में उनकी पढ़ाई शुरू करवा दी गयी। मुल्ला-मौलवियों ने बहुत प्रयास किया लेकिन बालक रणजीत उन मुल्ला-मौलवियों और पढ़ाने वाले उस्तादों के सामने देखता रहे, कुछ पढ़े ही नहीं। उस्तादों ने खूब समझाया, बदले में उन्होंने उनको एक ही बात सुनायी-

आल जाल तू कहा पढ़ावे।

कृष्णनाम लिख क्यों न सिखावे।।

जो सबको कर्षित-आकर्षित, आनंदित करता है, सबका अंतरात्मा होकर बैठा है उस परमात्मा का नाम आप मुझे क्यों नहीं पढ़ाते ?

जो तुम हरि की भक्ति पढ़ाओ।

तो मोकू तुम फेर बुलाओ।।

जो भगवान की भक्ति पढ़ा सकते हो तो मुझे बुलाना, नहीं तो यह आल-जाल मेरे को मत पढ़ाओ। जोर मारने वाले थक गये।

आठ वर्ष की उम्र में इनके पिता मुरलीधर अचानक लापता हो गये, फिर उनका पता न चल सका। माता कुंजी देवी पतिपरायण थीं। उनके चित्त को बहुत क्षोभ हुआ। ये आठ वर्ष के बालक माँ को ढाँढस बँधाते कि 'मैया ! यह सब पति-पत्नी, लेना-देना – यह संसार का खिलवाड़ है, आत्मा अमर है।' वे उस रामस्वरूप परमात्मा की भक्ति की बात करते।

पति एवं सास-ससुर के चले जाने के बाद कुंजी देवी के लिए डेहरा में रहना असहनीय हो गया। जिससे वे पति के चाचा से अनुमति लेकर बालक रणजीत के साथ दिल्ली अपने मायके चली गयी। दिल्ली जाते समय वे रास्ते में 'कोट कासिम' में बालक रणजीत के पिता की बुआ के घर पर रूके।

बालक रणजीत को देखकर बुआजी बड़ी प्रसन्न हुई और बालक के स्नेहपाश में ऐसी बँध गयीं कि कुंजी देवी को समझाकर रणजीत को अपने घर रख लिया। थोड़े दिन वहाँ रहने के बाद बालक अपनी माँ के पास दिल्ली आ गया।

यहाँ भी मुल्ला-मौलवी और फारसी तथा संस्कृत के विद्वानों को रखा गया कि बालक कुछ पढ़ ले। परंतु बालक रणजीत ने तो ऐसी विश्रांति पढ़ी थी और भगवान के नाम में ऐसे रत रहते थे कि सारी पढ़ाइयाँ जहाँ से सीखी जाती हैं, उस परम पद में अनजाने में ध्यानस्थ हो जाते थे। एक दिन रणजीत ने कहाः

हमें आज से पढ़ना नाँहीं।

जिकर न होय फिकर के माँही।।

यह सुनकर मुल्ला-मौलवी हैरत में आ गये।

सुन मुल्ला हैरत में आया।

इस लड़के पर रब की छाया।।

बहुत प्रयत्न करने के बाद आखिर मुल्ला-मौलवियों को कहना पड़ा कि "इस पर तो अल्लाह की, रब की छाया है। अल्लाह के सिवाय इसको कोई सार नहीं लगता। यह सारों के सार में संतुष्ट है। यह तो 'भगवान की पढ़ाई के बिना की और सारी पढ़ाई झूठी है, झूठी माया में फँसाने वाली है।' – ऐसी बात कहता है। हमारे दिल को भी इस बालक की बात सुनकर, इसके दीदार करके बड़ा आराम मिलता है।"

इस प्रकार 12 वर्ष की उमर हुई। ज्ञान,ध्यान और प्रभुप्रेम की प्रसादी से उनकी निर्णयशक्ति और सूझबूझ तो ऐसी निखरी कि दिखने में तो 12 वर्ष का बालक लेकिन बड़े-बड़े विद्वान उनको देखकर नतमस्तक हो जाते थे !

रणजीत की आँखों से कभी तो भगवा की बात करते-करते आँसुओं की धारा बहे, कभी वे उनके प्रेम में, प्रेम समाधि में शांत हो जायें। इस प्रकार उनकी 16 से 19 वर्ष की उम्र भगवदविरह, भगवच्चर्चा और एकांत मौन में बीती। अंदर में होता कि 'जब तक गुरु नहीं तब तक पूर्ण गति नहीं है।' तो सदगुरु के लिए तड़प पैदा हुई कि 'ऐसे दिन कब आयेंगे कि मुझे साकार रूप में सदगुरु प्राप्त होंगे ?'

ऐसी विरह अगिन तन लागी।

गई भूख अरू निद्रा भागी।।

सतगुरु कू ढूंढन ही लागे।

ढूंढे विरकत तपसी नागे।।

अब भोजन रूचे नहीं और नींद आये नहीं। कभी साधु-संतों को देखें तो उनसे मिलने जायें। 19 वर्ष की उम्र हुई। ढूँढते-ढूँढते आखिर वह पावन दिन आया। मुजफ्फरनग (उ.प्र) के पास गंगा यमुना के दोआबे पर स्थित मोरनातीसा नामक स्थल पर उन्हें एक महात्मा के दर्शन हुए, जिन्हें देखते ही उनके मन में प्रेम, श्रद्धा और शांति की ऐसी प्रबल तरंगे उठीं की उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ जैसे उनकी वर्षों की खोज आज पूरी हो गयी है।

देखते ही देखते दिल खो गया।

जिसको खोजता था उसी का हो गया।।

वे महात्मा और कोई नहीं बल्कि वही शुकदेव जी महाराज थे, जिन्होंने बालक रणजीत को गोदी में बिठाकर प्यार किया था। जिन सदगुरु की खोज थी वे मिल गये। रणजीत ने प्रेममय हृदय और आँसुओं से भरे नेत्रों से सदगुरु के चरणकमलों में माथा टेकते हुए स्वयं को गुरुचरणों में समर्पित कर दिया। महात्मा शुकदेव जी ने उन्हें विधिवत दीक्षा दी और उनका पारमार्थिक नाम श्याम चरनदास रख दिया। गुरु और शिष्य के बीच दीक्षा-शिक्षा पाँच प्रहर चली। शुकदेव जी महाराज उनको विभिन्न उपासनाएँ, विभिन्न दृष्टियाँ बताते रहे। अंत में विरक्त शुकदेव जी महाराज ने कहाः "अब तुम दिल्ली में दादा जी के पास जाओ, वहीं अभ्यास करो।" संसार के काम, क्रोध, लोभ, मोह, राग-द्वेष, मेरे-तेरे के वातावरण में यह युवक एक दिन भी रहना नहीं चाहता था। अपनी भावनाओं को दबाकर सदगुरु की आज्ञा मान के वे दिल्ली के लिए चल तो दिये परंतु उनकी दशा बहुत दयनीय थी। वे गुरु के वियोग में हर क्षण रोते रहते।

एक रात ध्यान में दर्शन देकर विरक्त-शिरोमणि शुकदेवजी ने कहाः "हम तो अरण्यों में कभी कहीं, कभी कहीं विचरण करते हैं। शरीर से हम तुमको साथ में नहीं रख सकते लेकिन आत्मभाव से मैं तुम्हारे साथ ही रहूँगा। जब तुम तीव्रता से याद करोगे तो मैं तुम्हे दर्शन देने को प्रकट हो जाऊँगा।"

कहा कि जब जब ध्यान करैहो।

ऐसे ही तुम दर्शन पैहो।।

अरू हम तुम कभू जुदे जु नाही।

तुम मों में मैं तुम्हरे मांही।।

शुकदेव जी महाराज की यह उदारता भरी आशीष पाकर रणजीत को थोड़ा संतोष हुआ। दिल्ली में एक जगह पसंद करके वहाँ गुफा बना के वे धारणा-ध्यान करने लगे और पाँच-पाँच, सात-सात प्रहर ध्यान मग्न रहने लगे।

वे एक प्रहर लोगों के बीच सत्संग की सुवास फैलाते। दिल्ली की भिन्न-भिन्न जगहों में उन्होंने अपने भिन्न-भिन्न कार्यक्रमों द्वारा लोक-जागृति की। इस प्रकार कुछ वर्ष बीते और इन महापुरुष के चित्त की शांति से त्रिकाल-ज्ञान प्रकट होने लगा। वे बार-बार कहते थे कि 'मैं तो बुरे से बुरा था पर मेरे सदगुरु शुकदेवजी ने मुझ पर कृपा करके मेरा बेड़ा पार कर दिया।

किसू काम के थे नहीं, कोई न कौड़ी देह।

गुरु सुकदेव कृपा करी, भई अमोलक देह।।

वाणी उनकी ऐसी थी किः

पितु सूँ माता सौ गुना, सुत को राखै प्यार।

मन सेती सेवन करै, तन सूँ डाँट अरू गार1

मात सूँ हरि सौ गुना, जिन से सौ गुरुदेव।

प्यार करें औगुन हरैं, चरनदास सुकदेव।।

1. गाली.

पिता से माता सौ गुना अधिक बच्चे को प्यार करती है। मन से उसको चाहते हुए भी उसकी भलाई के लिए बाहर से डाँटती है, ऐसे ही माता से भी दस हजार गुना अधिक प्यार देने वाले सदगुरु मन से तो स्नेह करते हैं और बाहर से डाँटते हैं। इसलिए हे साधक ! उनकी डाँट तेरा हित करेगी। कभी भी अपने सदगुरु से कतराना नहीं, गुरु तो दूर जाना नहीं। गुरु के प्रसाद को पावन अंतःकरण में ठहराये बिना रुकना नहीं।

हरि सेवा कृत सौ बरस, गुरु सेवा फल चार।

तौ भी नहीं बराबरी, बेदन कियो बिचार।।

भगवान की सेवा सौ वर्ष करे और जाग्रत सदगुरु की सेवा केवल चार पल करे तो भी सदगुरु-सेवा के फल की बराबरी नहीं हो सकती, ऐसा वेदों ने विचार करके कहा है।

इस प्रकार का उनका सारगर्भित उपदेश लोगों के हृदय में लोकेश्वर की प्रीति और लोकेश्वर को पाये हुए महापुरुष के ज्ञान की प्यास जगा देता था।

जैसे शुकदेव जी महाराज उस ब्रह्म-परमात्मा में एकाकार होकर निमग्न रहते थे, वैसी ही अवस्था को चरनदासजी ने पाया और चरनदास जी के कई भक्तों ने भी पाया।

गुरु की सेवा साधु जाने,

गुरु सेवा कहाँ मूढ पिछानै।

यह चरनदास महाराज की कृति है।

गुरूकृपा हि केवलं शिष्यस्य परं मंगलम्।

तो चरनदासजी को भी गुरुकृपा का महाप्रसाद प्राप्त हुआ। मुझे भी गुरुकृपा का प्रसाद प्राप्त हुआ है वरना मेरी औकात नहीं थी कि अपने मन से इतनी ऊँचाइयों का अनुभव कर लूँ। ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं- 'हे गुरूकृपा ! हे मातेश्वरी ! तू सदैव मेरे हृदय में निवास करना।'

गुरूसेवा परमातम दरशै,

त्रैगुण तजि चौथा पद परशै।

सत्त्व, रज, तम – इन तीन गुणों और जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति – इन तीन अवस्थाओं से परे चौथे परमार्थ-पद का दर्शन गुरूसेवा करा देती है। चरनदास जी के शिष्यों ने अपनी रचनाओं में उनकी अलौकिक प्रतिभा व जीवन के विषय में विस्तार से गाया है। उनकी शिष्या सहजोबाई ने तो यहाँ तक कहा कि

चरनदास पर तन मन वारूँ।

गुरू न तजूँ हरि कूँ तजि डारूँ।।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2011, पृष्ठ संख्या 15, 16, 17 अंक 223

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शुक्रवार, 29 जुलाई 2011

सेवा तो सेवा ही है !......


(पूज्य बापू जी की पावन अमृतवाणी)

सेवक को जो मिलता है वह बड़े-बड़े तपस्वियों को भी नहीं मिलता। हिरण्यकशिपु तपस्वी था, सोने का हिरण्यपुर मिला लेकिन सेविका शबरी को जो साकार, निराकार राम का सुख मिला वह हिरण्यकशिपु ने कहाँ देखा, रावण ने कहाँ पाया ! मुझे मेरे गुरुदेव और उनके दैवी कार्य की सेवा से जो मिला है, वह बेचारे रावण को कहाँ था ! सेवक को जो मिलता है उसका कोई बयान नहीं कर सकता लेकिन सेवक ईमानदारी से सेवा करे, दिखावटी सेवक तो कई आये, कई गये। बहाने बनाने वाले सेवक घुस जाते हैं न, तो गड़बड़ी करते हैं।

'ऋषि प्रसाद' में जो सच्चे हृदय से सेवा करेगा तो उसका उद्देश्य होगा कि हम क्या चाहते हैं वह नहीं, वे क्या चाहते हैं और उनका कैसे मंगल हो – सेवक का यह उद्देश्य होता है। आप क्या चाहते हो और आपका कैसे मंगल हो – यह मेरी सेवा का उद्देश्य होना चाहिए। आपको पटाकर दान-दक्षिणा ले लूँ तो सेवा के बहाने मैं जन्म-मरण के चक्कर में जा रहा हूँ। सेवा में बड़ी सावधानी चाहिए। जो प्रेमी होता है, जिसके जीवन में सदगुरुओं का सत्संग होता है, मंत्रदीक्षा होती है, भगवान का और मनुष्य-जीवन का महत्त्व समझता है वही सेवा से लाभ उठाता है। बाकी के सेवा से लाभ क्या उठाते हैं, सेवा से मुसीबत मोल लेते हैं। 'मैं फलाना हूँ, मैं फलाना हूँ...' करके वासना बढ़ाते हैं और संसार में डूब मरते हैं। जो सेवा संसार में डुबा दे, वह सेवा नहीं है। वह तो मुसीबतक बुलाने वाली चालाकी है। जो संसार की आसक्ति मिटाकर' अपने लिए कुछ नहीं चाहिए। अपना शरीर भी नहीं रहेगा। हम दूसरों के काम आयें।' तो अपने-आप...

अपनी चाह छोड़ दे, दूसरे की भलाई में ईमानदारी से लग जाये तो उसके दोनों हाथों में लड्डू ! यहाँ भी मौज, वहाँ भी मौज !

पूरे हैं वो मर्द जो हर हाल में खुश हैं।

तो माँ की, पति की, पत्नी की, समाज की सेवा करे लेकिन बदला न चाहे तो उसका कर्मयोग हो जायेगा, उसकी भक्ति में योग आ जायेगा, उसके ज्ञान में भगवान का योग आ जायेगा। उसके जीवन में सभी क्षेत्रों में आनंद है।

'क्या करें, मुझे सफलता नहीं मिलती...' तो टट्टू ! तू सफलता के लिए ही करता है, वाहवाही के लिए करता है। जिसमें जितना वाहवाही का स्वार्थ होता है उतना ही वह विफल होता है और जितना दूसरे की भलाई का उद्देश्य होता है उतना ही वह सफल होता है। 'मैं सफल नहीं होता हूँ, मैं सफल नहीं होता हूँ...' होगा भी नहीं। स्वार्थी आदमी क्या सफल होंगे ! स्वार्थ में कितने ही सफल दिखें, फिर भी अंदर से अशांत होंगे। शराब पीकर और क्लबों में जाकर सुख ढूँढेंगे। क्या खाक तुमने सेवा की।

सेवा तो शबरी की है, सेवा तो राम जी की है, सेवा तो श्रीकृष्ण की है, सेवा तो कबीर जी की है और सेवा तो ऋषि प्रसादवालों की है, अन्य सेवकों की है। यह सोचकर बड़े पद पर बैठ गया कि बड़ी सेवा करेंगे तो यह बेईमानी है। सेवक को किसी पद की जरूरत नहीं है। सारे पद सच्चे सेवक के आगे-पीछे घूमते हैं। कोई बड़ा पद लेकर सेवा करना चाहता हो, बिल्कुल झूठी बात है। सेवा में जो अधिकार चाहता है वह वासनावान होकर श्रेष्ठ जगत का मोही हो जायेगा। लेकिन सेवा में जो अपना अहं मिटाकर तन से, मन से, विचारों से दूसरे की भलाई, दूसरे का मंगल करता है और मान मिले, चाहे अपमान मिले उसकी परवाह नहीं करता, ऐसे हनुमान जी जैसे सेवक की 'हनुमान जयंती' मनायी जाती है। हनुमानजी देखो तो जहाँ छोटा बनना है छोटे और जहाँ बड़ा बनना है बड़े बन जाते हैं। सेवक अपने स्वामी का, गुरु का, संस्कृति का काम करे तो उसमें लज्जा किस बात की ! सफलता की अहंकार क्यों करे, मान-अपमान का महत्त्व क्या है !

'ऋषि-प्रसाद' बाँटने वाले को मान-अपमान थोड़े ही प्रभावित करता है ! मान मिला वहाँ ऋषि प्रसाद का सदस्य बनाने गया, मान नहीं मिला तो नहीं गया तो वह सेवक नहीं है, वह तो मान का भोगी है। चाहे मान मिले या अपमान मिले, यश मिले या अपयश मिले, सेवा तो सेवा ही है !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2011, पृष्ठ संख्या 27,29 अंक 223

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गुरुवार, 28 जुलाई 2011

भगवान को अपना माने बिना तुम्हारी खैर नहीं !....


(पूज्य बापू जी की हृदय स्पर्शी अमृतवाणी)

भगवान को अपना माने बिना तुम्हारी खैर नहीं ! जिसको भगवान अपने नहीं लगते उसको माया ऐसा बिलो देती है, ऐसा मथ देती है कि तौबा-तौबा ! आया काम तो सारे शरीर को मथ के निचोड़ डालेगा। आया क्रोध तो सारे शरीर को मथ के सिर में गर्मी चढ़ा देगा। आया लोभ तो बस, रूपया-रूपया दिखेगा, डॉलर-डॉलर दिखेगा। खूब तेज भगायी गाड़ी.... कहाँ जा रहे हैं ? नौकरी पर जा रहे हैं। फिर क्या ? डॉलर आ गये। कुछ खरीद लिया, बेच दिया। फिर क्या ? फिर क्या ? ओहो ! जिंदगी बिलो डाली।

जवान व्यक्ति कहता है जीवन मजे से भरपूर है परंतु बुद्धिमान व्यक्ति कहता है (संसारी) जीवन में दुःख ही दुःख भरा है। यह संसार सपने जैसा है, मूर्ख इसमें सुख खोजने जाता है। जो भगवान को अपना और अपने को भगवान का नहीं मानता उसको माया ऐसा बिलो देती है, ऐसा बिलो देती है कि दही में से तो मक्खन निकलता है पर इसके मथने से तो मुसीबतें निकलती हैं। फिर घोड़ा, गधा, कुत्ता, बिलार बन जाते हैं। अजनाभ खंड के एक छत्र सम्राट भरत, जिनके नाम से इस देश का नाम भारत पड़ा, उन्हें हिरण प्यारा लगा और मरने के बाद वे हिरण बन गये, राजा नृग गिरगिट हो गये, राजा अज अजगर बन गये... माया ऐसा मथ डालती है !

माया ऐसी नागिनी जगत रही लिपटाय।

जो तिसकी सेवा करे वा को ही वो खाय।।

जो जितना भगवान को चाहता है माया उतनी उसकी सेवा करके हाथ जोड़कर अलग से ठहरती है कि कहीं भगवान के दुलारे को दुःख न हो, कष्ट न हो। माया उसके अनुकूल हो जाती है, कष्ट नहीं देती है और जो माया को जितना चाहता है, माया उतना ही उसको बिलो देती है।

कोई खानदानी महिला हो और उसको कोई अपनी औरत की नजर से देखे तो जूते खायेगा कि नहीं खायेगा ? खायेगा। फिर लक्ष्मी तो है भगवान की, ऐसे ही माया है तो भगवान की और कोई उसे अपनी बनाना चाहे तो जूते खायेगा कि नहीं खायेगा ? खायेगा। धोबी जैसे कपड़े उठा-उठा के, घुमा-घुमा के पटकता है, ऐसे ही माया फिर उसको घुमा-घुमा के फेंक देती है गधे की योनि में, कुत्ते की योनि में, भैंसे की योनि में..... कि 'अब बन जा भैंसा, बन जा कुत्ता, बन जा मगर बन जा कुछ-का-कुछ..... अरे, मैं भगवान की सती-साध्वी और तू मुझे अपना बनाने को आया ! मालिक बनता है मेरा !' भगवान तुम्हारे हैं, तुम भगवान के हो। लक्ष्मीपति भगवान हैं माया के पति। तुम माया के पति बनने गये, माया के स्वामी बनने गये तो दे धोखम-धोखा !

कराटे वाले कैसी पिटाई कर देते हैं, कैसे मारपीट करते हैं कि पता भी न चले, खून भी न निकले और मार खाने वाले तौबा पुकार लेते हैं। माया तो उससे भी ज्यादा पिटाई करती है। कराटेवालों की पिटाई के बाद तो दो दिन में थोड़ा आराम हो जाय पर यह माया तो चौरासी लाख जन्मों तक बराबर पिटाई करती रहती है। मरते समय भी इसी की चिंता लगी रहती है कि 'मेरे लड़कों का क्या होगा, मेरे कारखाने का क्या होगा, मेरी दुकान का क्या होगा ?'

इन्सान की बदबख्ती अंदाज से बाहर है।

कमबख्त खुदा होकर बंदा नजर आता है।।

है तो भगवान का अंश, है तो 'चेतन अमल सहज सुख रासी' परंतु माया में ऐसा फँसा है कि तौबा हो रही है। ऐसे-ऐसे बिलोया जाता है कि बस फिर वही-का-वही। समर्थ रामदास कहते हैं कि मरता तो कोई है पर शोक दूसरे करते हैं और शोक करने वाले बेवकूफों को पता नहीं कि हम भी ऐसे ही जायेंगे। कभी-कभी तो किसी को श्मशान में छोड़कर जाते ही कोई खुद मर जाता है।

कोई आज गया, कोई गल गया,

कोई जावन को तैयार खड़ा।

यही रीति है संसार की। इसमें किसी का इन्कार चलता ही नहीं। तो अब क्या करें ?

जहाँ मौत की दाल नहीं गलती उस चैतन्य देव को जान लो, उसमें प्रीति करो, उसको पहचान लो बस।

कैसे पहचानें ? भगवान कहते हैं-

तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।

ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते।।

'उन निरंतर मेरे ध्यान आदि में लगे हुए और प्रेमपूर्वक भजने वाले भक्तों को मैं वह तत्त्वज्ञानरूप योग देता हूँ, जिससे वे मुझको ही प्राप्त होते हैं।'

(गीताः 10.10)

एक मनुष्य सूरज को देख सकता है तो सारी मनुष्य-जाति सूरज को देख सकती है। एक मनुष्य आकाश को देख सकता है तो सभी मनुष्य आकाश को देख सकते हैं। एक मनुष्य पृथ्वी गोल है यह जान सकता है तो सभी मनुष्य ऐसा जान सकते हैं। ऐसे ही एक मनुष्य अपने आत्मा-परमात्मा को जान सकता है तो सभी मनुष्य जान सकते हैं। फिर काहे को निराश होना ! काहे को हताश होना ! काहे को उस महान लाभ से वंचित रहना, दुर्लभ समझना !

एक व्यक्ति देश का प्रधानमंत्री बन गया तो दूसरा व्यक्ति पहले के हटने तक दंड-बैठक करे परंतु एक को साक्षात्कार हो गया तो दूसरे सब्र तैयार हो जायें, दंड बैठक की जरूरत नहीं है। प्रधानमंत्री की कुर्सी एक है किंतु आत्मा तो आप सबके पास वही-का-वही है। आत्मा भी एक है किंतु कुर्सी परिच्छिन्न है और आत्मा व्यापक है, ब्रह्म है।

जैसे – आकाश एक है और उसमें कई घड़े हैं। अब एक घड़ा अपने भीतर के आकाश-तत्त्व को जान ले तो क्या जब तक वह न फूटेगा, तब तक दूसरे घड़े अपने भीतर के आकाश-तत्त्व को नहीं जान सकेंगे ? नहीं पा सकेंगे ? अरे ! एक ने जाना तो दूसरे उत्साहित होंगे। दूसरे घड़े भी अपने आकाश-तत्त्व को जान ले तो दूसरे व्यक्ति भी अपने परमात्म-तत्त्व को पा सकते हैं।

एक प्रधानमंत्री बनता है तो दूसरे के प्रधानमंत्री होने की सम्भावना पाँच साल तक दब जाती है किंतु यहाँ एक को साक्षात्कार हो जाता है तो हजारों की सम्भावनाएँ जागृत हो जाती हैं। साक्षात्कार जब होगा तब होगा पर उसका आनंद, झलक और सच्चाई सहित रसमय जीवन तो अभी हो रहा है। बिल्कुल सच्ची बात है, पक्की बात है। किसी ने कोई पद पाया है तो उस पद का रस तो जब तक वह हटेगा या मरेगा नहीं तब तक दूसरा नहीं पा सकेगा परंतु परमात्म-पद, परमात्म-रस आपने पाया है तो आपके होते ही कइयों को उसका स्वाद, रस, उत्साह, मदद मिलती है। इसीलिए यह रास्ता जोड़ने वाला है, इस रास्ते में संवादिता है। भोग में विवादिता है, भोग का रास्ता तोड़ने वाला है। विषय विकारी सुख सीमित हैं और परमात्मा असीम है। विषय-विकारी सुख अनित्य हैं और परमात्मा नित्य है, जीवात्मा भी नित्य है।

जब तक नित्य (जीवात्मा) को नित्य (परमात्मा) का सुख, नित्य का ज्ञान, नित्य की मुलाकात नहीं होगी, तब तक अनित्य का कितना भी मिला, कुछ भी हाथ में आने वाला नहीं है।

अगले जन्म के पैसे, बेटे, पत्नी कहाँ गयी ? पति कहाँ गये ? ऐसा ही इस बार भी होने वाला है। अपने परमात्मा पति को जान लो। फिर पति के लिए पत्नी वफादार हो जायेगी, पत्नी के लिए पति वफादार हो जायगा। ईश्वर में टिकते हैं न, तो संसार का व्यवहार भी अच्छी तरह से होता है। उसमें भी कुशलता आ जाती है। संसार के सारे प्रमाणपत्र पाकर भी आदमी इतना कुशल नहीं होता, जितना परमात्म-विश्रान्ति को पाने से कुशल हो जाता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, पृष्ठ संख्या 4,5, 10. अंक 212, अगस्त 2010

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बुधवार, 27 जुलाई 2011

सेवा सजा नहीं, पूजा है


गुरु अर्जुनदेव जी के एक शिष्य से कोई अपराध हो गया था तो दूसरे शिष्य गुरुजी से कहने लगे कि "यह अपराधी है, इसको सजा मिलनी चाहिए।"

गुरुजी शांत बैठे थे, सबकी बातें सुन रहे थे। एक शिष्य बोलाः "इसको आज पूरे दिन लंगर (भंडारे का स्थान) के बर्तन माँजने की सजा दीजिये।"

दूसरा शिष्य बोलाः "पूरा दिन कुएँ से पानी भरकर लायेगा और आश्रम की साफ-सफाई करेगा, तब पता चलेगा इसे !"

तीसरा शिष्य बोलाः "पूरे दिन बगीचे में कटाई-छँटाई, क्यारियों में पानी देने की सेवा दी जाय, यही इसके लिए सजा है।"

सबकी बातें सुनने के बाद गुरुजी ने कहाः "पहली बात यह बताओ कि तुमसे सलाह माँगी किसने ? यह अपराधी मेरा है कि तुम्हारा है ? दूसरी बात, तुम इसके लिए बुरा क्यों सोचते हो ? तीसरी बात, तुम लोग कहते हो कि इसको सजा मिलनी चाहिए। कोई कहता है कि पूरा दिन इसको बगीचे के काम में लगा दो, दूसरा कहता है रसोईघर के बर्तन माँजने में लगा दो। तो तुम सेवा को सजा मानते हो !

चाहे लंगर की सेवा हो, चाहे बगीचे की हो – कोई भी सेवा हो, सेवा को सजा मानने की ऐसी तुम्हारी नीची सोच कैसे हो गयी ! लगता है तुम लोग मेरे शिष्य नहीं हो। तुम लोगों ने सेवा को सजा कैसे कह दिया ! सेवा को तो पूजा बना लेना चाहिए।"

गीता जी में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-

स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धं विन्दति मानवः।

'उस परमेश्वर की अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा पूजा करके मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त हो जाता है।' (गीताः 18.46)

फिर गुरुजी ने अपराधी शिष्य को कहा कि "तुम एक सप्ताह तक कोई सेवा नहीं करोगे पर तुमको भोजन दिया जायेगा।" और जो सेवा को सजा कह रहे थे, उनको कहा कि "एक सप्ताह तक तुम सब लोग मौन रखोगे। एक शब्द भी नहीं बोलोगे और तुम सभी भगवन्नाम जप खूब बढ़ा दो !"

किसमें किसका हित है, यह गुरु ही जानते हैं। इसलिए गुरु सभी शिष्यों के साथ एक जैसा व्यवहार करते नहीं दिखते, बल्कि जिसका जिसमें भला है वैसा ही उसके साथ व्यवहार करते हैं।

स्रोतः लोक कल्याण सेतु, अंक 163, पृष्ठ संख्या 12, जनवरी 2011

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मंगलवार, 26 जुलाई 2011

हर दोष से छूटना संभव, केवल......(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)


अपने हृदय से ये सब बातें निकाल दें कि 'हम जितात्मा नहीं बन सकते... हम पापी हैं.. हम बीड़ी-सिगरेट पीते हैं, शराब पीते हैं..... हम गृहस्थी हैं.....क्या करें !'

अपने में दोषों का आरोपण करके अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मत चलाइये। दोष अपने में मानेंगे तो दोष बलवान हो जायेंगे और आप दुर्बल हो जायेंगे, फिर आप थके-हारे एवं निराश होकर बैठ जायेंगे।

वास्तव में महादोषी व्यक्ति भी उस परमात्मा का अंश है, अकाल पुरुष का सनातन सपूत है। 'दोष हैं तो मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ एवं प्रकृति में हैं और ये सब बदलने वाले हैं। मुझमें दोष नहीं हैं।' ऐसा समझकर बदलने वाले को बदलने वाला जान लें और उसके साथ तादात्म्य कर बैठने की जो गलती है, उसे निकालने के लिए पक्का संकल्प करके कटिबद्ध हो जायें तो आप जितात्मा हो सकते हैं।

श्रीरामकृष्ण परमहंस के पास एक शराबी आया करता था। उनको देखे बिना उसे चैन नहीं पड़ता था लेकिन वह शराब के बिना वह रह भी नहीं सकता था। उसके कुटुम्बियों ने देखा कि उसे संत के प्रति श्रद्धा हो गयी है। आसक्ति वैसे तो महादुर्जय है, उसे मिटाना कठिन है, लेकिन वही आसक्ति यदि सच्चे संत के प्रति हो जाये तो वह संसारसागर से तारने वाली हो जाती है।

कुटुम्बियों ने रामकृष्ण के श्रीचरणों में प्रार्थना कीः "बाबाजी ! वे हमारे कुटुम्ब के बड़े हैं लेकिन शराब बहुत पीते हैं। सुबह होते ही सबसे पहले बस, बोतल खोलते हैं। वे आपके पास आते हैं। कृपया आप उन्हें जरा मना कीजिये कि वे शराब न पियें।"

श्री रामकृष्ण ने उस व्यक्ति को बुलाकर पूछाः

"क्या तुम शराब पीते हो ?"

"जी महाराज ! आप बोलें तो मैं भोजन न करूँ, पानी न पीऊँ... आप जो बोलेंगे मैं वह सब कर सकता हूँ, केवल शराब मत छुड़वाइयेगा। महाराज ! उसके बिना मैं नहीं जी सकता।"

"ठीक है भाई ! तू भले शराब पी, लेकिन एक काम कर।"

"जब भी शराब पीने की इच्छा हो तो पहले माँ काली को भोग लगा कर तू पिया कर। मेरी इतनी बात तो तू मानेगा न ?"

"जी महाराज ! यह तो मैं कर लूँगा लेकिन पीने में कोई रोक नहीं है न ?"

"नहीं, पीने में कोई रोकटोक नहीं है।"

वह शराब की बोतल छुपाकर ले गया मंदिर में। मन-ही-मन बोलाः 'माता जी ! आपको भोग लगाने के लिए शराब लाया हूँ।' ऐसा कहकर वह ज्यों ही बोतल निकालने लगा, त्यों ही कोई दर्शनार्थी आ गया। चुपचाप बोतल अंदर रख ली। थोड़ी देर बाद मंदिर खाली देखकर पुनः बोतल निकालने लगा तो फिर कोई आ गया। ऐसा करते-करते काफी समय बीत गया। सोचा, 'बाद में आयेंगे।' बाद में आया तो फिर वही हाल ! ऐसा करते-करते तीन दिन हो गये। गया रामकृष्ण परमहंस के पास और बोलाः

"महाराज ! आपने यह क्या जादू कर दिया है ? तीन दिन से शराब नहीं पी सका।"

"तीन दिन से नहीं पी !"

"नहीं महाराज ! माता जी को भोग लगता ही नहीं तो मैं कैसे पीता ! यह आपने क्या कर दिया !"

"भैया जब तुम तीन दिन तक बिना शराब के रह गये तो 30 दिन तक भी रह सकते हो, 30 महीने तक भी रह सकते हो और 30 साल तक भी रह सकते हो। हिम्मत करो और भगवन्नाम का जप करो।"

रामकृष्ण परमहंस ने उसको हिम्मत दे दी और उसकी शराब सदा के लिए छूट गयी। वह शराबी में से अनन्य भक्त हो गया रामकृष्ण परमहंस का।

नजरों से वे निहाल हो जाते हैं,

जो संतों की निगाहों में आ जाते हैं।

आपका दृढ़ संकल्प एवं महापुरुषों की करूणा आपको अनके दोषों से बचाकर निर्दोष नारायण तत्त्व की ओर अग्रसर करने में सहायक होती है।

स्रोतः लोक कल्याण सेतु, फरवरी 2011, पृष्ठ संख्या 12, 13 अंक 164

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गुरु बिन ब्रह्मानंद तो क्या सांसारिक सुख भी दुर्लभ !


परमेश्वर का साक्षात्कार एकमात्र गुरु से सम्भव है। जब तक गुरु की कृपा से हमारी अंतःशक्ति नहीं जागती, अंतःज्योति नहीं प्रकाशती, अंतर का दिव्य ज्ञानचक्षु नहीं खुलता तब तक हमारी जीवदशा नहीं मिटती। अतः अंतःविकास के लिए, दिव्यत्व की प्राप्ति के लिए हमें मार्गदर्शक की यानी पूर्ण सत्य के ज्ञाता एवं शक्तिशाली सदगुरु की अत्यंत आवश्यकता है। जैसे प्राण बिना जीना सम्भव नहीं, उसी तरह गुरु बिना ज्ञान नहीं, शक्ति का विकास नहीं, अंधकार का नाश नहीं, तीसरे नेत्र का उदय नहीं। गुरु की जरूरत मित्र से, पुत्र से, बंधु से और पत्नी से भी अधिक है। गुरु की जरूरत द्रव्य से, कल-कारखानों से, कला से और संगीत से भी अधिक है। अधिक क्या कहूँ, गुरु की जरूरत आरोग्य और प्राण से भी ज्यादा है। गुरु की महिमा रहस्यमय और अति दिव्य है। वे मानव को नया जन्म देते हैं, ज्ञान की प्रतीति कराते हैं, साधना बताकर ईश्वरानुरागी बनाते हैं।

गुरु वे हैं जो शिष्य की अंतःशक्ति को जगाकर उसे आत्मानंद में रमण करते हैं। गुरु की व्याख्या यह है – जो शक्तिपात द्वारा अंतःशक्ति कुण्डलिनी को जगाते हैं, यानी मानव-देह में पारमेश्वरी शक्ति को संचारित कर देते हैं, जो योग की शिक्षा देते हैं, ज्ञान की मस्ती देते हैं, भक्ति का प्रेम देते हैं, कर्म में निष्कामता सिखा देते हैं, जीते जी मोक्ष देते हैं, वे परम गुरु शिव से अभिन्नरूप हैं। वे शिव, शक्ति, राम, गणपति, माता-पिता हैं। वे सभी के पूजनीय परम गुरु शिष्य की देह में ज्ञानज्योति को प्रज्जवलित करते हुए अनुग्रहरूप कृपा करते हैं और लीलाराम होकर रहते हैं। गुरु के प्रसाद से नर नारायण रूप बनकर आनंद में मस्त रहता है। ऐसे गुरू महामहिमावान हैं, उनको साधारण जड़ बुद्धिवाले नहीं समझ सकते।

साधारणतया गुरुजनों का परिचय पाना, उन्हें समझना महाकठिन है। किसी ने थोड़ा चमत्कार दिखाया तो हम उसे गुरु मान लेते हैं, थोड़ा प्रवचन सुनाया तो उसे गुरु मान लेते हैं, किसी ने मंत्र दिया या तंत्र विधि बतलायी तो उसे गुरु मान लेते हैं। इस तरह अनेक जनों में गुरुभाव करके अंतःसमाधान से हम वंचित रह जाते हैं। अंत में हमारी श्रद्धा भंग हो जाती है और फिर हम गुरुत्व को भी पाखण्ड समझने लगते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि हम सच्चे गुरुजनों से दूर रह जाते हैं। पाखण्डी गुरु से धोखा खाकर हम सच्चे गुरु की अवहेलना करने लग जाते हैं।

साक्षात्कारी गुरु को साधारण समझकर उनको त्यागो मत। गुरु की महानता तब समझ में आती है जब तुम पर गुरुदेव की पूर्ण कृपा होती है। गुरु अपने शिष्यों को एक ऊँचे स्तर पर ले जा के, सत्यस्वरूप बताकर शिव में मिला के शिव ही बना देते हैं।

ऐसे गुरुजनों को गुरु मानकर, उन तत्त्ववेत्ताओं से दीक्षा पाना क्या परम सौभाग्य नहीं हैं ! उनके दिये हुए शब्द ही चैतन्य मंत्र हैं। वे चितिमय परम गुरु मंत्र द्वारा, स्पर्श द्वारा या दृष्टि द्वारा शिष्य में प्रवेश करते हैं। इसीलिए गुरु-सहवास (सान्निध्य), गुरु-आश्रमवास, गुरु सेवा, गुरु गुणगान, गुरुजनों से प्रेमोन्मत्त स्थिति में बाहर बहने वाले चिति-स्पन्दनों का सेवन शिष्य को पूर्ण सिद्धपद की प्राप्ति करा देने में समर्थ हैं, इसमें क्या आश्चर्य !

स्वामी मुक्तानंद

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2011, पृष्ठ संख्या 13, अंक 222

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सोमवार, 25 जुलाई 2011

सफलता का मूलमंत्र

विदुरजी द्वारा बताये इस मूलमंत्र को यदि हम अपने जीवन में उतार लें तो हमारे परम सौभाग्य का मार्ग खुलते देर नहीं लगेगी।
उत्थानं संयमो दाक्ष्यमप्रमादो धृतिः स्मृतिः।
समीक्ष्य च समारम्भो विद्धि मूलं भवस्य तु।।
'उद्योग, संयम, दक्षता, सावधानी, धैर्य, स्मृति और सोच-विचारकर कार्यारम्भ करना-इन्हें मूलमंत्र समझिये।' (महाभारतः उद्योग पर्वः 39.38)

उद्योग का स्थूल अर्थ है उत्तम। अपने कार्य में तत्पर रहना चाहिए। व्यक्ति को कर्तव्यपरायण अर्थात् कर्मठ होना चाहिए। जो काम जिस समय करना है उसे उसी समय कर डालना चाहिए, चाहे कार्य छोटा ही क्यों न हो।

काल करै सो आज कर, आज करै सो अब।
पल में परलय होयगी, बहुरि करेगा कब।।

व्यक्ति को मानसिक परिश्रम के साथ शारीरिक परिश्रम भी करना चाहिए। प्रायः मानसिक परिश्रम करने वाले व्यक्ति शारीरिक परिश्रम करना छोड़ देते हैं, जिससे कई बीमारियाँ उन्हें आ घेरती हैं। अतः शारीरिक परिश्रम करना ही चाहिए, फिर वह चाहे व्यवसाय, दौड़ सेवा आदि कोई भी माध्यम क्यों न हो। आलसी प्रमादी न होकर कर्तव्यपरायण होना चाहिए।

जो सांसारिक सफलता पाने को ही उद्योग मानते हैं, वे अति तुच्छ मति के होते हैं। वास्तविक उद्योग क्या है ? शरीर से दूसरों की सेवा, कानों से सत्संग-श्रवण, आँखों से संत-भगवंत के दर्शन, मन से परहित चिंतन, बुद्धि से भगवान को पाने का दृढ़ निश्चय और हृदय में भगवत्प्रेम की अविरत धारा यही वास्तविक उद्योग है।

दूसरा गुण है संयम। जिसमें इन्द्रियों का संयम, वाणी का संयम, संकल्प-विकल्पों का संयम मुख्य है। इसमें दीर्घ ॐकार का जप बड़ा लाभदायी है, श्वासोच्छ्वास की गिनती बड़ी हितकारी है।

जिसके जीवन में संयम नहीं है वह पशु से भी गया बीता है। उसका मनुष्य-जीवन सफल नहीं होता। पशुओं के लिए चाबुक होता है परंतु मनुष्य को बुद्धि की लगाम है। सरिता भी दो किनारों से बँधी हुई संयमित होकर बहती है तो वह गाँवों को लहलहाती हुई अंत में अपने परम लक्ष्य समुद्र को प्राप्त हो जाती है। ऐसे ही मनुष्य-जीवन में संयम के किनारे हों तो जीवन-सरिता की यात्रा परमात्मारूपी सागर में परिसमाप्त हो सकती है।

दक्षता जीवन का अहम पहलू है। जितना आप कार्य को दक्षता से करते हैं, उतनी आपकी योग्यता निखरती है। यदि आप कोई कार्य कर रहे हैं तो उसमें पूरी कुशलता से लग जाईये। लेकिन व्यावहारिक दक्षता के साथ-साथ आध्यात्मिक दक्षता भी जीवन में आवश्यक है। दो कार्यों के बीच में थोड़ी देर शांत होना चाहिए।

सावधान यह सबसे महत्त्वपूर्ण सदगुण है। जीवन में दक्षता आने पर सावधानी सहज रूप से बनी रहती है। कहावत है कि सावधानी हटी तो दुर्घटना घटी और सावधानी बढ़ी तो दुर्घटना टली। कार्य में लापरवाही सर्वनाश ही लाती है। जिस प्रकार यदि जहाज का पायलट सावधान है तो यात्रियों को गंतव्य तक पहुँचा देगा और यदि उसने असावधानी दिखायी तो उसकी लापरवाही यात्रियों की मृत्यु का कारण बन जायेगी। किसी बाँध के निर्माण में यदि इंजीनियर ने लापरवाही की तो हजारों-लाखों लोगों के जान-माल और लाखों-करोड़ों रूपयों की हानि होगी। जीवन में लापरवाही जैसा और कोई दुश्मन नहीं है।

किसी भी कार्य को करते समय धैर्य रखो। उतावलेपन से बने बनाये काम भी बिगड़ जाते हैं। मन को समझाना चाहिएः

बहुत गयी थोड़ी रही, व्याकुल मन मत हो।
धीरज सबका मित्र है, करी कमाई मत खो।।

कोई भी कार्य सोच-समझकर करना ही बुद्धिमानी है। कहा गया हैः

बिना विचारे जो करै, सो पाछे पछताय।
काम बिगाड़े आपनो, जग में होत हँसाय।।

कार्य के प्रारम्भ और अंत में आत्मविचार भी करना चाहिए। हर इच्छापूर्ति के बाद जो अपने-आपसे ही प्रश्न करे कि 'आखिर इच्छापूर्ति से क्या मिला ?' वह दक्ष है। ऐसा करने से वह इच्छानिवृत्ति के उच्च सिंहासन पर आसीन होने वाले दक्ष महापुरुष की नाईं निर्वासनिक नारायण में प्रतिष्ठित हो जायेगा। साथ ही यह स्मृति हमेशा बनाये रखनी चाहिए कि 'जीवन में जो भी सुख-दुःख आते हैं वे सब बीत रहे हैं, इन सबको जानने वाला मैं साक्षी चैतन्य आत्मा सदैव हूँ।'

उपरोक्त सात सदगुणों को जीवन में अपनाना ही सफलता का मूलमंत्र है।

स्रोतः लोक कल्याण सेतु, मई 2011, पृष्ठ संख्या 6,7 अंक 167
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मंगलवार, 5 जुलाई 2011

संयम का पाठ

बुद्ध के पास उनका एक शिष्य आया और बौखलाए स्वर में बोला, 'जमींदार राम सिंह ने मेरा अपमान किया है। आप अभी चलें। उसे सबक सिखाना होगा।' बुद्ध बोले, 'प्रियवर, सच्चे बौद्ध का अपमान करने की शक्ति किसी में नही होती। तुम इस बात को भुला दो। जब प्रसंग भुला दोगे तो अपमान कहां बचा रहेगा।' शिष्य ने कहा, 'उसने आपके प्रति भी अपशब्दों का प्रयोग किया था। आप चलिए तो सही। आपको देखते ही वह शर्मिंदा हो जाएगा और क्षमा मांग लेगा। इससे मैं संतुष्ट हो जाऊंगा।'बुद्ध कुछ विचार कर बोले, 'अच्छा यदि ऐसी बात है तो मै अवश्य ही रामजी के पास चलकर उसे समझाने का प्रयास करूंगा।' शिष्य ने आतुर होकर कहा, 'चलिए, नहीं तो रात घिर आएगी।' बुद्ध ने कहा, 'रात घिरेगी तो क्या! रात के पश्चात दिन भी तो आएगा। यदि तुम वहां चलना आवश्यक ही समझते हो तो मुझे कल याद दिलाना। कल चलेंगे।' दूसरे दिन बात आई गई हो गई। शिष्य अपने काम में लग गया और बुद्ध अपनी साधना में लीन हो गए। दोपहर होने पर भी शिष्य ने बुद्ध से कुछ नहीं कहा तो बुद्ध ने स्वयं ही शिष्य से पूछा, 'आज रामजी के पास चलना है?' शिष्य ने कहा 'नहीं मैने जब घटना पर फिर से विचार किया तो मुझे इस बात का आभास हुआ कि भूल मेरी ही थी। अब रामजी के पास चलने की कोई जरूरत नहीं है।'

बुद्ध ने मुस्कराकर कहा, '
अगर हम तुरंत प्रतिक्रिया देने से बचें तो हमारे भीतर की कटुता समाप्त हो जाती है।'