(पूज्य बापू जी की हृदय स्पर्शी अमृतवाणी)
भगवान को अपना माने बिना तुम्हारी खैर नहीं ! जिसको भगवान अपने नहीं लगते उसको माया ऐसा बिलो देती है, ऐसा मथ देती है कि तौबा-तौबा ! आया काम तो सारे शरीर को मथ के निचोड़ डालेगा। आया क्रोध तो सारे शरीर को मथ के सिर में गर्मी चढ़ा देगा। आया लोभ तो बस, रूपया-रूपया दिखेगा, डॉलर-डॉलर दिखेगा। खूब तेज भगायी गाड़ी.... कहाँ जा रहे हैं ? नौकरी पर जा रहे हैं। फिर क्या ? डॉलर आ गये। कुछ खरीद लिया, बेच दिया। फिर क्या ? फिर क्या ? ओहो ! जिंदगी बिलो डाली।
जवान व्यक्ति कहता है जीवन मजे से भरपूर है परंतु बुद्धिमान व्यक्ति कहता है (संसारी) जीवन में दुःख ही दुःख भरा है। यह संसार सपने जैसा है, मूर्ख इसमें सुख खोजने जाता है। जो भगवान को अपना और अपने को भगवान का नहीं मानता उसको माया ऐसा बिलो देती है, ऐसा बिलो देती है कि दही में से तो मक्खन निकलता है पर इसके मथने से तो मुसीबतें निकलती हैं। फिर घोड़ा, गधा, कुत्ता, बिलार बन जाते हैं। अजनाभ खंड के एक छत्र सम्राट भरत, जिनके नाम से इस देश का नाम भारत पड़ा, उन्हें हिरण प्यारा लगा और मरने के बाद वे हिरण बन गये, राजा नृग गिरगिट हो गये, राजा अज अजगर बन गये... माया ऐसा मथ डालती है !
माया ऐसी नागिनी जगत रही लिपटाय।
जो तिसकी सेवा करे वा को ही वो खाय।।
जो जितना भगवान को चाहता है माया उतनी उसकी सेवा करके हाथ जोड़कर अलग से ठहरती है कि कहीं भगवान के दुलारे को दुःख न हो, कष्ट न हो। माया उसके अनुकूल हो जाती है, कष्ट नहीं देती है और जो माया को जितना चाहता है, माया उतना ही उसको बिलो देती है।
कोई खानदानी महिला हो और उसको कोई अपनी औरत की नजर से देखे तो जूते खायेगा कि नहीं खायेगा ? खायेगा। फिर लक्ष्मी तो है भगवान की, ऐसे ही माया है तो भगवान की और कोई उसे अपनी बनाना चाहे तो जूते खायेगा कि नहीं खायेगा ? खायेगा। धोबी जैसे कपड़े उठा-उठा के, घुमा-घुमा के पटकता है, ऐसे ही माया फिर उसको घुमा-घुमा के फेंक देती है गधे की योनि में, कुत्ते की योनि में, भैंसे की योनि में..... कि 'अब बन जा भैंसा, बन जा कुत्ता, बन जा मगर बन जा कुछ-का-कुछ..... अरे, मैं भगवान की सती-साध्वी और तू मुझे अपना बनाने को आया ! मालिक बनता है मेरा !' भगवान तुम्हारे हैं, तुम भगवान के हो। लक्ष्मीपति भगवान हैं माया के पति। तुम माया के पति बनने गये, माया के स्वामी बनने गये तो दे धोखम-धोखा !
कराटे वाले कैसी पिटाई कर देते हैं, कैसे मारपीट करते हैं कि पता भी न चले, खून भी न निकले और मार खाने वाले तौबा पुकार लेते हैं। माया तो उससे भी ज्यादा पिटाई करती है। कराटेवालों की पिटाई के बाद तो दो दिन में थोड़ा आराम हो जाय पर यह माया तो चौरासी लाख जन्मों तक बराबर पिटाई करती रहती है। मरते समय भी इसी की चिंता लगी रहती है कि 'मेरे लड़कों का क्या होगा, मेरे कारखाने का क्या होगा, मेरी दुकान का क्या होगा ?'
इन्सान की बदबख्ती अंदाज से बाहर है।
कमबख्त खुदा होकर बंदा नजर आता है।।
है तो भगवान का अंश, है तो 'चेतन अमल सहज सुख रासी' परंतु माया में ऐसा फँसा है कि तौबा हो रही है। ऐसे-ऐसे बिलोया जाता है कि बस फिर वही-का-वही। समर्थ रामदास कहते हैं कि मरता तो कोई है पर शोक दूसरे करते हैं और शोक करने वाले बेवकूफों को पता नहीं कि हम भी ऐसे ही जायेंगे। कभी-कभी तो किसी को श्मशान में छोड़कर जाते ही कोई खुद मर जाता है।
कोई आज गया, कोई गल गया,
कोई जावन को तैयार खड़ा।
यही रीति है संसार की। इसमें किसी का इन्कार चलता ही नहीं। तो अब क्या करें ?
जहाँ मौत की दाल नहीं गलती उस चैतन्य देव को जान लो, उसमें प्रीति करो, उसको पहचान लो बस।
कैसे पहचानें ? भगवान कहते हैं-
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते।।
'उन निरंतर मेरे ध्यान आदि में लगे हुए और प्रेमपूर्वक भजने वाले भक्तों को मैं वह तत्त्वज्ञानरूप योग देता हूँ, जिससे वे मुझको ही प्राप्त होते हैं।'
(गीताः 10.10)
एक मनुष्य सूरज को देख सकता है तो सारी मनुष्य-जाति सूरज को देख सकती है। एक मनुष्य आकाश को देख सकता है तो सभी मनुष्य आकाश को देख सकते हैं। एक मनुष्य पृथ्वी गोल है यह जान सकता है तो सभी मनुष्य ऐसा जान सकते हैं। ऐसे ही एक मनुष्य अपने आत्मा-परमात्मा को जान सकता है तो सभी मनुष्य जान सकते हैं। फिर काहे को निराश होना ! काहे को हताश होना ! काहे को उस महान लाभ से वंचित रहना, दुर्लभ समझना !
एक व्यक्ति देश का प्रधानमंत्री बन गया तो दूसरा व्यक्ति पहले के हटने तक दंड-बैठक करे परंतु एक को साक्षात्कार हो गया तो दूसरे सब्र तैयार हो जायें, दंड बैठक की जरूरत नहीं है। प्रधानमंत्री की कुर्सी एक है किंतु आत्मा तो आप सबके पास वही-का-वही है। आत्मा भी एक है किंतु कुर्सी परिच्छिन्न है और आत्मा व्यापक है, ब्रह्म है।
जैसे – आकाश एक है और उसमें कई घड़े हैं। अब एक घड़ा अपने भीतर के आकाश-तत्त्व को जान ले तो क्या जब तक वह न फूटेगा, तब तक दूसरे घड़े अपने भीतर के आकाश-तत्त्व को नहीं जान सकेंगे ? नहीं पा सकेंगे ? अरे ! एक ने जाना तो दूसरे उत्साहित होंगे। दूसरे घड़े भी अपने आकाश-तत्त्व को जान ले तो दूसरे व्यक्ति भी अपने परमात्म-तत्त्व को पा सकते हैं।
एक प्रधानमंत्री बनता है तो दूसरे के प्रधानमंत्री होने की सम्भावना पाँच साल तक दब जाती है किंतु यहाँ एक को साक्षात्कार हो जाता है तो हजारों की सम्भावनाएँ जागृत हो जाती हैं। साक्षात्कार जब होगा तब होगा पर उसका आनंद, झलक और सच्चाई सहित रसमय जीवन तो अभी हो रहा है। बिल्कुल सच्ची बात है, पक्की बात है। किसी ने कोई पद पाया है तो उस पद का रस तो जब तक वह हटेगा या मरेगा नहीं तब तक दूसरा नहीं पा सकेगा परंतु परमात्म-पद, परमात्म-रस आपने पाया है तो आपके होते ही कइयों को उसका स्वाद, रस, उत्साह, मदद मिलती है। इसीलिए यह रास्ता जोड़ने वाला है, इस रास्ते में संवादिता है। भोग में विवादिता है, भोग का रास्ता तोड़ने वाला है। विषय विकारी सुख सीमित हैं और परमात्मा असीम है। विषय-विकारी सुख अनित्य हैं और परमात्मा नित्य है, जीवात्मा भी नित्य है।
जब तक नित्य (जीवात्मा) को नित्य (परमात्मा) का सुख, नित्य का ज्ञान, नित्य की मुलाकात नहीं होगी, तब तक अनित्य का कितना भी मिला, कुछ भी हाथ में आने वाला नहीं है।
अगले जन्म के पैसे, बेटे, पत्नी कहाँ गयी ? पति कहाँ गये ? ऐसा ही इस बार भी होने वाला है। अपने परमात्मा पति को जान लो। फिर पति के लिए पत्नी वफादार हो जायेगी, पत्नी के लिए पति वफादार हो जायगा। ईश्वर में टिकते हैं न, तो संसार का व्यवहार भी अच्छी तरह से होता है। उसमें भी कुशलता आ जाती है। संसार के सारे प्रमाणपत्र पाकर भी आदमी इतना कुशल नहीं होता, जितना परमात्म-विश्रान्ति को पाने से कुशल हो जाता है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, पृष्ठ संख्या 4,5, 10. अंक 212, अगस्त 2010
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