पहला
सर्ग
अज्ञात आत्मा ही
स्वयं दृश्य की सृष्टि करता है इत्यादि का प्रतिपादन।
मुमुक्षु
व्यवहारप्रकरण के अनन्तर पूर्वोक्त साधनों से सम्पन्न अधिकारी के लिए 'तावद्
विचारयेत् प्राज्ञो यावद् विश्रान्तिमात्मनि। संप्रयात्यपुनर्नाशां शान्तिं
तुर्यपदामिघाम्।।' (बुद्धिमान पुरुष को तब तक विचार करना चाहिए जब तक कभी नष्ट न
होने वाली सप्तम भूमिकाप्राप्तरूप तथा आत्मा में विश्रान्तिरूप शान्ति नहीं
प्राप्त होती।) इस प्रकार तत्त्व के साक्षात्कारपर्यन्त विचार का कर्तव्यरप से
विधान किया है। वैराग्यप्रकरण तथा मुमुक्षुव्यवहारप्रकरण में वर्णित सम्पूर्ण
साधनों से सम्पन्न सर्वोत्तम अधिकारी श्रीरामचन्द्रजी के लिए उक्त विचार के प्रकार
का 'अथोपदिश्यते सम्यगेवं ज्ञानक्रमोऽधुना।' यों प्रतिज्ञापूर्वक विस्तार से वर्णन
करने के लिए प्रवृत्त हुए भगवान श्रीवसिष्ठजी सृष्टिप्रकार के वर्णन द्वारा अद्वैत
ब्रह्म का प्रतिपादन करने के लिए आरब्ध (आरंभ किये गये) उत्पत्ति प्रकरण का,
सुखपूर्वक बोध के लिए, पहले संक्षेप में तात्पर्य दर्शाने की इच्छा से जैसे
'तद्वेदं तर्ह्यव्याकृतमासीत्' इत्यादि सृष्टिप्रतिपादक श्रुति का 'अहं
ब्रह्मास्मि' इत्यादि महावाक्य के बोध में पर्यवसान है वैसे ही इस प्रकरण का भी
'दृष्टान्तस्यैकदेशेन बोध्यबोधोदये सति। उपादेयतया ग्राह्यो महावाक्यर्थनिर्णयः।।'
पूर्वोक्त रीति से महावाक्य के बोध में पर्यवसान दिखलाते हैं-
ब्रह्म ही जब
'अहं ब्रह्मास्मि' इत्यादि महावाक्य से उत्पन्न अखण्डाकार वृत्ति से अत्यन्त
प्रदीप्त आत्मप्रकाश द्वारा स्वतत्त्व का साक्षात्कार कर लेता है, तब वह अपने
वास्तविक नित्य, मुक्त और पूर्णस्वरूप से प्रकाशित होता है।
भाव यह कि वह
अपनी मुक्ति के लिए 'अहं ब्रह्मास्मि' आदि महावाक्यों से जन्य अखण्डाकार वृत्ति से
अतिरिक्त किसी साधन की अपेक्षा नहीं करता।
शंका – सो कैसे?
समाधान – चूंकि
स्वप्न में विविध पदार्थों की नाईं यह देह, इन्द्रिय आदि तथा आकाश आदि बन्धरूप
दृश्य प्रत्यगात्मभूत ब्रह्म में ही आविर्भूत होकर प्रकाशित होता है। जैसे स्वप्न
बन्ध की निवृत्ति के लिए प्रबोध से अतिरिक्त साधन की अपेक्षा नहीं होती है वैसे ही
आत्मतत्त्व के साक्षात्कार के लिए महावाक्यजन्य अखण्डाकार वृत्ति से अतिरिक्त साधन
की अपेक्षा नहीं होती, यह भाव है। श्रुति भी है यद् ब्रह्मविद्यया सर्व भविष्यन्तो
मनुष्या मन्यन्ते किमु तद् ब्रह्मावेद् यस्मात्तत्सर्वमभवत्' (ब्रह्मविद्या से
ब्रह्म श्रीपरमात्मा) जिससे ज्ञात होता है वह ब्रह्मविद्या है उससे हम 'सब' हो
जायेंगे, ऐसा मनुष्य मानते हैं, ब्रह्म ने क्या जाना जिससे कि वह सर्व हुआ) ऐसा
प्रश्न कर उत्तर दिया है, 'ब्रह्म वा इदमग्रआसीत् तदात्मानमेवावेदहमस्मीति
तस्मात्तत्वसर्वमभवत्' (यह ब्रह्म ही सृष्टि के पूर्व था, उसने 'अहं ब्रह्मास्मि'
यों अपने को जाना उससे वह सर्व हो गया) इस श्रुति में ब्रह्म स्वयं स्वतत्त्व के
बोध से बन्धनशून्य और पूर्ण हो गया इस कथन से ब्रह्म ही स्वतत्त्वबोध से पहले
द्वैत, प्रिय-अप्रिय दर्शन परिच्छेदरूप बन्ध का अनुभव सा करता है। इससे बन्ध का
मिथ्यात्व प्रत्यग् आत्मा का ब्रह्मत्व अतिस्पष्टरूप से ज्ञात होता है। जैसे वहाँ
पर महावाक्य के अर्थ के उपपादक 'तन्नमरूपाभ्यामेव व्याक्रियत' (वह अव्याकृत आत्मा
नाम और रूप से व्याकृत हुआ अर्थात् ऐसे व्यक्तिभाव को प्राप्त हुआ जिसमें नाम-रूप
विशेष के निश्चय की मर्यादा है), 'स एष इह प्रविष्ट आनखोभ्यः' (आत्मा देह में
नखाग्रपर्यन्त व्याप्त है) इत्यादि पूर्ववर्ती सृष्टि और प्रवेश के प्रतिपादक
अर्थवादभूत वाक्यों का – अज्ञातब्रह्ममात्रोपादानक (केवल अज्ञात ब्रह्म ही जिनका
उपादान है) जगत् और जीव की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश इन तीनों कालों में ब्रह्म
से अतिरिक्त सत्ता नहीं है, अतः वे मिथ्या ही हैं – यों उपपादन द्वारा अपने
प्रधानभूत महावाक्य के तात्पर्य के विषय अद्वैत ब्रह्म में पर्यवसान है वैसे ही
यहाँ पर भी समझना चाहिए, यह भाव है।
शंका – वैसा हो
उससे हमें क्या प्रयोजन है ?
समाधान - 'तद्'
इत्यादि से। 'उस ब्रह्म को इस समय का जो हमारे समान अधिकारी श्रवण आदि उपायों से
जिस प्रकार यथार्थरूप से मैं ही ब्रह्म हूँ, यों साक्षात्कार करता है, वह
पूर्वोक्त पूर्ण, नित्य, मुक्त, ब्रह्मज्योतिस्वरूप मोक्षफल का भी जीते जी अनुभव
करता है। श्रुति भी है – तद् यो यो देवानां प्रत्यबुध्यत स एव तदभवत्तद्यथर्षीणां
तथा मनुष्याणां तद्धैतत्पश्यन् ऋषिर्वामदेवः प्रतिपेदेऽहं मनुरभवं सूर्यश्च'
(देवता, ऋषि और मनुष्यों में जिस जिसने यथोक्त विधि से आत्मा का यथार्थ ज्ञान
प्राप्त किया वही आत्मा (ब्रह्म) हो गया। 'ब्रह्म ही मैं हूँ' यों साक्षात्कार कर
रहे ऋषि वामदेवदजी को यह ज्ञान हुआ कि 'मैं मनु हुआ और मैं सूर्य हुआ'(╬)।।1।।
╬
संस्कृत टीकाकारों ने उक्त श्लोक के अनेक अर्थ किये हैं उनमें से कुछ नीचे लिखे
जाते हैं। अथवा जो अज्ञात होने के कारण मुमुक्षुओं की जिज्ञासा का विषय है,
सम्पूर्ण लोगों को जिसका आत्मरूप से प्रत्यक्ष है, वह ब्रह्म वाचक शब्दसमूह और
उससे प्रकाशित होने वाले अर्थसमूह से 'त्रयं वा इदं नाम रूपं कर्म' (नाम, रूप और
कर्म ये तीन) इत्यादि श्रुति में प्रदर्शि द्वैतप्रपंच से अपृथक अपने को देखता हुआ
अपने में स्वप्न की नाईं, बन्धन, शोक मोह आदि से दुःखी प्रतीत होता है। जो अधिकारी
उस प्रकार से प्रतीत होते हुए भी ब्रह्म को केवल आत्मा का ही परिशेष बतलाने वाले
'नेति नेति' इत्यादि वाक्य द्वारा द्वैतनिषेध से अवशिष्ट जानता है, वही ब्रह्म को
यथार्थरूप से जानता है। आरोपित नाम, रूप आदि को देखने वाला पुरुष उसे नहीं जान,
सकता यह भाव है।
अथवा -
'वाग्' से वचन (बोलना), गमन आदि क्रियाप्रधान कर्मेन्द्रियाँ लक्षित होती हैं और
'भाः' से प्रकाशप्रधान ज्ञानेन्द्रियाँ लक्षित होती हैं। उक्त द्वारभूत
ज्ञानेन्द्रि और कर्मेन्द्रियों से जो वस्तुतः ब्रह्म को भी देखता है वह स्वयं
ब्रह्म होता हुआ भी आत्मा में स्वप्न की नाईं अब्रह्मभूत अन्यथा प्रतीत होता है,
कारण कि बहिर्मुख पुरुष को तत्त्वदर्शन नहीं हो सकता, 'पराचि खानि व्यतृणत्
स्वयंभूस्तस्मातपराङ् पश्यति नान्तरात्म् (परमात्मा ने इन्द्रियों को अनात्मविषयक
बना कर उनकी हिंसा की, इसलिए जीव उनसे अनात्मपदार्थों को ही देखता है) इत्यादि
परमार्थपरक वाक्यों से उत्पन्न होने वाले ज्ञान से सबका अधिष्ठान सन्मात्र जानता
है, बाह्य इन्द्रियों की विषयप्रवृत्ति से मुक्त तथा प्रत्यङमुख हुआ वह ब्रह्म का
भी पुरुषार्थ के लिए होता है। यों सृष्टिविस्तार के बहाने प्रत्यम् दृष्टि के
विकास कराने में ही इस ग्रन्थ का तात्पर्य है, यह भाव है। अथवा आगे कही जाने वाली
उपदेश वाणियों से तथा दृष्टान्त, आख्यान और युक्तिरूप प्रकाशों से यह कहा जाता है
कि ब्रह्मज्ञ ही परमार्थरूप से ब्रह्म है। ब्रह्मनाम का दूसरा कोई पदार्थ व्यवहित
दूर प्रदेश में आत्मा से अतिरिक्त है, ऐसी भ्रान्ति नहीं करनी चाहिए। जो यह दृश्य
प्रपंच है, वह स्वप्न की नाईं परमात्मा में अध्यस्त हुआ प्रतीत होता है, वह भी
परमार्थ सत्य अन्य पदार्थ है, ऐसी भ्रान्ति को स्थान नहीं देना चाहिए। पूर्वोक्त
ब्रह्मभाव और जगदभाव में जो विवेकी अथवा अविवेकी 'मैं ब्राह्मण हूँ, मैं क्षत्रिय
हूँ, मैं देवदत्त हूँ', यों स्वाभाविक लौकिक प्रसिद्ध मिथ्या स्वशब्दों से उत्पन्न
या 'ब्रह्मैवाहम्' (मैं ब्रह्म ही हूँ) 'चिदेवाहम्' (मैं चित्त ही हूँ) इत्यादि
शास्त्रीय सत्य अर्थवाले स्वशब्दों से उत्पन्न ज्ञान से जैसा अपना स्वरूप जानता है
वैसा ही पुनः पुनः अनुभव करता है। संसारी आत्मा को देखने वाले को संसाररूप फल
प्राप्त होता है और ब्रह्मात्मदर्शी को ब्रह्मभाव प्राप्त होता है, इसलिए जीव को
ब्रह्मात्मदर्शी होना चाहिए, यह भाव है। अथवा यदि किसी को शंका हो कि 'यथास्थितं
ब्रह्मतत्त्वं सत्ता नियतिरूच्यते' तथा 'अस्त्यनन्तविलासानामाश्रयः सर्वसंश्रयः'
(योगवासिष्ठ 10/1 तथा 11 मुमुक्षु व्य.प्र.) इत्यादि से पूर्व में ब्रह्म का उपदेश
हो ही चुका है। वहीं पर ब्रह्म का उपदेश देने पर शम, दम आदि के अभाव में चित्त की
अस्थिरता होने पर चित्त की स्थिरता के साधन, शम, दम आदि और उनकी पुष्टि के लिए
पौरुष का उपदेश दिया जा चुका है अब कोई भी उपदेष्टव्य वस्तु बची नहीं। यदि कहिये
कि एक बार उपदिष्ट वाक्यों से उत्पन्न ज्ञान से ब्रह्म का भान नहीं होता, तो
सैंकड़ों बार उसका उपदेश देने पर भी वैसा का वैसा ही रहेगा। फिर पिष्टपेषण की नाईं
उसके पुनः पुनः उपदेश से क्या फल होगा ? इस पर कहते हैं। जो ब्रह्मवेत्ता श्रोता
पुरुष एक बार उपदिष्ट वाक्यों के अर्थप्रकाश से 'मैं ही ब्रह्म हूँ, यों जानता है
उसके ज्ञान का स्वप्न की नाईं प्रायः बाध हो जाता है, वह दृढ़ नहीं रहता या जैसे
निद्रावशीभूत पुरुष अप्रसिद्ध अपने नक्षत्रनाम से धीरे धीरे पुकारे जा रहे वाक्य
को ठीक ठीक नहीं समझ पाता वैसे ही एक बार उपदिष्ट वाक्य के अर्थप्रकाश से भी 'मैं
ही ब्रह्म हूँ', ऐसा ज्ञान नहीं होता। वही पुरुष हे देवदत्त ! हे यज्ञदत्त ! यों
चिरकाल के व्यवहार से प्रसिद्ध अपने नाम के सम्बोधन से उत्पन्न ज्ञान से जो जानता
है वही जानता है वैसा असंदिग्ध आत्मबोध ही अविद्या के उच्छेद में हेतु है, यह अर्थ
है। वैसे दृढ़ निश्चय से युक्त अपरोक्ष अनुभव के लिये युक्तियों से फल की प्राप्ति
होने तक पुनः पुनः उपदेश का अभ्यास करना चाहिए। अथवा-जैसे ब्रह्म को न जानने वाला
पुरुष जाग्रत काल की भय आदि की चिरकालिक वासनाओं से वासित होकर स्वप्न में
अविद्यावश निन्दा करना, धमकाना आदि भीषण वाणियों से भय से काँपना, भागना, गड्ढे
में गिरना आदि से युक्त होकर दुःखी प्रतीत होता है, या जैसे उपासक पुरुष जाग्रदकाल
की देहभाव वासना से वासित होकर स्वप्न में देवता के तुल्य, राजा के तुल्य स्तुति,
प्रशंसा आदि की वाणियों से और क्रीड़ा, विमान पर चढ़ना, आकाशविहार करना आदि
प्रतिभा से युक्त प्रतीत होता है वैसे ब्रह्मवेत्ता भी चिरकाल से भली भाँति
अभ्यस्त श्रवण आदि से वासित होकर स्वप्न में यह सब ब्रह्म ही है', 'यह सब आत्मा ही
है', 'मैं ही यह सब हूँ', इस प्रकार के परमार्थ का प्रतिपादन करने वाली वाणियों से
और वास्तविक ब्रह्मभाव की प्रतिभा से दीप्त होता है, फलावस्था में भी स्वप्न की
नाईं परलोकफल भी दृढ़ अभ्यस्त वासना के अनुसार होता है, इसका आगे लीलोपाख्यान आदि
में उपपादन किया जायेगा। शंका – इसमें क्या प्रमाण है ? समाधान –
स्वप्न की नाईं परलोक फल भी वासना के अनुसार होता है, इस बात का 'जो स्वयं ही (न
कि अन्य किसी की अपेक्षा से) ज्ञान कराते हैं, वे स्वशब्द हैं अर्थात् श्रुतियाँ
उनसे उत्पन्न स्वतः प्रमाणभूत ज्ञान से निश्चय होता है। 'अख यत्रैनं ध्नन्तीव
जिनन्तीव हस्तीव विच्छाद् यति गर्तमिव पतति यदेव जाग्रद् भयं पश्यति तदत्राविद्यया
मन्तेऽथो यत्र देव इव राजे-वाहमेवेदं सर्वोऽस्मीति मन्यते सोऽस्य परमो लोकः
(स्वप्न में इस स्वप्नदर्शक पुरुष को शत्रु या अन्य चोर मारते से हैं, वशीभूत सा
करते हैं, हाथी सा इसको भगाता है, गड्ढे में गिरता सा है, जो हाथी आदिरूप जाग्रत
भय को देखता है, उसी को स्वप्न में भी देखता है, स्वप्न में भय के बिना भी मिथ्या
ही उत्पन्न हुई अविद्या से भय मानता है। जिस काल में देवता के समान, राजा के समान
मैं ही सब हूँ, ऐसा मानता है। जो यह सर्वात्मभाव है वही इसका परम लोक है), 'तद्य
इह व्याघ्रो वा सिंहो वा यद् यद् भवन्ति तदा भवन्ति' (वे इस लोक में कर्म से
प्राप्त जिस-जिस व्याघ्र आदि जाति को उत्पन्न होते हैं), 'यच्चित्तस्तन्मयो भवति
गुह्यमेतत्सनातनम्' मन कृतेनायात्यस्मिन् शरीरे' (जिस वस्तु का चिन्तन करता है,
तन्मय हो जाता है, यह परम गुह्य है और संकल्प द्वारा ही इस शरीर में आता है)
इत्यादि श्रुतियाँ तथा 'यंयं वापि स्मरन् भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्। तं तमेवैति
कौन्तेय सदा तद्भावभावितः।। तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुश्मर युद्ध च।। (जिस
पदार्थ का स्मरण करते हुए शरीर का त्याग करता है, उसी भाव को प्राप्त होता है।
इसलिए तुम सर्वदा मेरा स्मरण करो) इत्यादि स्मृतियाँ है। अभ्यासावस्था में जो
पुरुष संसारी आत्मा को या ब्रह्मभाव को जानता है, वह फलावस्था में भी उसको जानता
है, इसलिए नित्य निरन्तर ब्रह्मानुभववासना को ही दृढ़ करना चाहिए, यह उत्पत्ति
प्रकरण का तात्पर्यार्थ है इत्यादि।
इस प्रकार
उत्पत्ति प्रकरण के संक्षिप्त अर्थके प्रदर्शन द्वारा अवान्तर विषय के दिखलाने पर
'प्रपंच मिथ्या है' इत्याकारक ज्ञानरूप अवान्तर प्रयोजन से संबन्ध रखने वाले
पूर्वोक्त दूषण का परिहार भी अर्थात् हो गया, ऐसा कहते हैं। पीछे संक्षेप से
प्रदर्शित और आगे विस्तार से कहे जाने वाले 'अध्यस्त पदार्थ का अधिष्ठान से पृथक
अस्तित्व नहीं है' इस न्याय से या अध्यारोपाअपवादन्याय से अध्यासक्रम से दृश्यमान
इस प्रपंचरूप सृष्टि के ब्रह्म रूप होने पर या सृष्टि के अपवादक्रम से ब्रह्ममात्र
शेष रहने परः तदेतद्भगवान् ब्रूहि किमिदं परिणश्यति। किमिदं जायते भूयः किमिदं
परिवर्द्धते।। इत्यादि से 'यह क्या है, किसका है और कहाँ पर स्थित है' यों आपने
पीछे (1/12/17) जो सत् के नाशादि के असंभव का दूषण दिया, वह स्वतः ही निराकृत हो
गया, क्योंकि सत् का नाश नहीं माना गया है, विनाशी की सत्ता नहीं मानी गई है,
इसलिए आपने जो दोष दिया, उसका यह विषय ही नहीं है, यह भाव है।।2।।
इस प्रकार
अवान्तर विषय और प्रयोजन दिखला कर विस्तारपूर्वक कथन की प्रतिज्ञा करते हैं।
हे बुध (╪), मैं
पीछे संक्षेप से दिखलाये गये सम्पूर्ण पदार्थों को प्रमाणों और अनुभव के अनुसार,
वस्तु के अनुसार और स्वभाव के अनुसार क्रमशः विस्तारपूर्वक कहता हूँ, आप सावधान
होकर सुनिये।।3।।
╪
'यथावस्तु' का परीक्षा द्वारा जैसी वस्तु है उसके अनुसार, 'यथाक्रम' का साधन और
युक्तियों के निरूपणपूर्वक और 'यथास्वभाव' का जैसा श्रोताका स्वभाव है अर्थात्
श्रोता की बुद्धि की परिपक्वता के अनुसार, यह अर्थ करना चाहिए। अथवा 'यथावस्तु' से
सृष्टि से पूर्व अवस्था का कथन है, क्योंकि उस समय सम्पूर्ण सन्मात्र ही था।
'यथाज्ञानम्' से सृष्टि के आरम्भ की उन्मुखता का कथन है, 'यथाक्रमम्' से स्थूलरूप
से सृष्टि के क्रम का कथन है 'यथास्वभावम्' जगत् के आरोप की दशा में भी वह
अविकृतस्वभाव रहता है, इसका कथन है और 'सर्वम्' से ज्ञान से प्राप्त होने वाले
पूर्णभाव का कथन है, 'तस्मात्तत् सर्वमभवत्' इस श्रुति में पूर्णभाव में सर्वशब्द
देखा जाता है। 'बुध' इससे उत्तम अधिकार का स्मरण कराना श्रवण में आदर उत्पन्न करने
के लिए है।
'स्वप्न की नाईं
आत्मा में आविर्भूत हुआ प्रतीत होता है' ऐसा जो पीछे कहा गया है, उसका तात्पर्य
स्पष्ट करते हैं।
जीवभाव
को प्राप्त होकर जो जगत् को देखता है, वह स्वप्न की नाईं देखता है अर्थात् जैसे
स्वप्नदर्शन विषय का बाध होने पर भी बाधित नहीं होता, वैसे ही जगद् दर्शन भी बाधित
नहीं होता। भाव यह कि ज्ञान की सत्यता में तात्पर्य है। 'अहम्' यों प्रत्यक् आत्मा
के तादात्म्य से और 'त्वम्' यों अनात्मभाव से भासित हो रहा प्रपंचरूप भी
स्वप्नसंसाररूप दृष्टान्त में भली भाँति सम्बद्ध है। भाव यह कि उसके मिथ्यात्व में
तात्पर्य है। अथवा देह की स्वप्नतुल्यता भले ही हो पर बाह्य नामरूपात्मक जगन्मात्र
की स्वप्नतुल्यता कैसे हो सकती है ? इस शंका पर कहते हैं। केवल बाह्यरूप आदि ही
नहीं भासता है, किन्तु मैं रूप को देखता हूँ, यों त्रिपुटीभूत 'अहम्' अर्थ से
संवलित त्वमर्थरूप प्रकाशित होता है वह साक्षिमात्रजन्य होने से
स्वप्नसंसारदृष्टान्त में दार्ष्टान्तिक होता ही है। अध्यस्तविषयक ज्ञान में सत्य
पदार्थ विषय नहीं होता है। भ्रम में अध्यस्त का ही भान होता है और कुछ भी किसी तरह
भासित नहीं होता – इस सिद्धान्त के अनुसार बाह्य प्रमाणों के व्यवहारों में अर्थ
के विसंवादमात्र से भी व्यावहारिक प्रमाण्य का विघात नहीं होता है, यह भाव है।।4।।
जिस प्रकरण में प्रायः मुमुक्षुओं के व्यवहार का वर्णन है, उसके अर्थात्
मुमुक्षुव्यवहारप्रकरण के अनन्तर में इस उत्पत्ति प्रकरण का वर्णन करता हूँ।।5।।
यदि
शंका हो कि मैं संसाररूप बन्धन की निवृत्ति का उपाय चाहता हूँ, मेरा दृश्य को
मिथ्या सिद्ध करने वाले इस उत्पत्ति प्रकरण को सुनने से क्या लाभ ? इस पर कहते
हैं।
हे
श्रीरामजी, जब तक दृश्य है, तभी तक यह संसाररूप बन्धन है। दृश्य की निवृत्ति होने
से बन्धन नहीं रह सकता। यह दृश्य जिस प्रकार उत्पन्न होता है, उसे आप क्रम से
सुनिये।।6।।
केवल
दृश्य के अभावमात्र से बन्धन की निवृत्ति कही है, पर यह ठीक नहीं जँचता, क्यों कि
उत्पत्ति, वृद्धि, नाश, स्वर्ग, नरक आदि बन्धन आत्मा के धर्मरूप से प्रतीत होते
हैं, अतः उनका आत्मकोटि में अन्तर्भाव ठहरा, ऐसी स्थिति में दृश्य की निवृत्ति
होने पर भी बन्ध की निवृत्ति नहीं होगी, इस शंका पर कहते हैं।
इस
संसार में जो उत्पन्न होता है, वही वृद्धि, क्षय, स्वर्ग और नरक को प्राप्त होता
है एवं वही बन्ध और मोक्ष को प्राप्त होता है। उत्पत्ति, वृद्धि, विनाश, आदि धर्म
आत्मा के नहीं हैं। अपने स्वरूप का परिज्ञान न होने से ही उसको उत्पत्ति आदि का भ्रम
होता है, यह तात्पर्य है।।7।। चूँकि अपने स्वरूप के अज्ञान से ही बन्ध है, अतः
अपने स्वरूप के बोध के लिए आगे के ग्रन्थ से दृश्य प्रपंच का असंभव कहता हूँ।
उत्पत्ति आदि का सम्बन्ध दृश्य संसार से है, आत्मा से नहीं। आत्मा तो दृश्य प्रपंच
की उत्पत्ति से पहले जैसा था वैसा ही रहता है। अणुमात्र भी उसमें विकार नहीं
आता।।8।।
भगवती
श्रुति भी कहती हैः
न
निरोधो न चोतपत्तिर्न बद्धो न च साधकः। न मुमुक्षुर्न वै मुक्तिरित्येषा
परमार्थता।।
(न
उत्पत्ति है और न प्रलय है, उत्पत्ति और प्रलय न होने से ही न बद्ध (संसारी जीव)
है, न साधक है, न मोक्षार्थी है और न मुक्त है, यह परमार्थ बात है।)
यही इस
प्रकरण का प्रतिपाद्य अर्थ है, यह बात आगे कहे जाने वाले विस्तार की भूमिका के रूप
में इस सर्ग में कही जाती है, ऐसा कहते हैं।
हे
राघव, आप पहले प्रकरण के उपोदघात के लिए इस सर्ग में कहे जाने वाले अर्थ को
सुनिये, तदुपरान्त मैं आपसे आपकी इच्छा के अनुसार इसको विस्तारपूर्वक कहूँगा।।9।।
'पूर्वमेव
हि यो यथा' इससे उक्त अर्थ की उपपत्ति के लिए प्रलयावस्था में अवशिष्ट आत्मस्वरूप
को कहने के लिए कारण में पूर्वसृष्टि के लय के प्रकार को दृष्टान्तपूर्वक कहते
हैं।
जो यह
चराचर सम्पूर्ण जगत् दिखलाईदेता है, वह सुषुप्ति में स्वप्न की नाईं कल्पान्त में
(प्रलययकाल में) यह नष्ट हो जाता है।।10।। तदुपरान्त अमूर्त होने से क्रियारहित
परिच्छेद (माप) से शून्य होने से अथाह (असीम), निर्धर्मिक (धर्मरहित) होने से
संज्ञारहित और अज्ञान से आवृत्त होने से अभिव्यक्ति से शून्य अथवा प्रपंच के
संस्कार का आधार होने से अभिव्यक्ति से रहित केवल सत् नामक ही कोई वस्तु शेष रहती
है, वह रूपरहित होने से न तो तेज है और न प्रकाशरूप होने से तम ही है।।11।।
विद्वानों ने व्यवहार के लिए (►) उस सदरूप सर्वव्यापक आत्मा के
ऋत, आत्मा, पर, ब्रह्म, सत्य (◄) इत्यादि अनेक नामों की कल्पना
कर रक्खी है।।12।।
► यहाँ पर उपदेश के योग्य शिष्य आदि को उपदेश देना
व्यवहार है, उस व्यवहार के लिए।
◄ यह सर्वश्रेष्ठ प्रमाणरूप श्रुति से जाना जाता है,
अतः ऋत कहलाता है - 'यच्चाऽऽप्नोति यदादत्ते यच्चाति विषयानिह। यच्चास्य संततो
भावस्तस्मादात्मेति शब्दते।।' (चूँकि सम्पूर्ण पदार्थों को व्याप्त करता है, उनका
ग्रहण करता है, भोग करता है और कभी नष्ट नहीं होता, इसलिए यह आत्मा कहा जाता है)
वेदव्यासी की इस उक्ति के अनुसार आत्मा, सत्यता के उत्कर्ष की अवधि होने से पर,
स्वयं बृहत् होने से या जगत के आकार को बढ़ाने वाला होने से ब्रह्म, विद्वानों को
शास्त्रानुसार उसका अनुभव होता है, अतः सत्य कहलाता है।
अब
सृष्टि के आरम्भ में उसका मिथ्याभूत समष्टिजीवभाव कहते हैं।
चैतन्यस्वभाव
वही आत्मा अज्ञान से अन्य-सा, जड़-सा अर्थात् आकाश आदि के क्रम से उत्पन्न
लिंगसमष्टिरूप होकर उसमें प्रवेश करने से 'वही हूँ' इस अभिमान से उसकी नाईं प्रतीत
होता हुआ भावी जीवनाम से गर्हित बनाई गई जीवता को भ्रान्ति से प्राप्त सा होता
है।।13।।
इस
प्रकार केवल ज्ञानशक्ति से होने वाली सृष्टि को कहकर अब क्रियाशक्ति से युक्त
ज्ञानशक्ति से साध्य सृष्टि को कहते हैं।
तदनन्तर
क्रियाशक्ति की प्रधानता से सम्पन्न प्राण के धारण से चंचलता को प्राप्त हुआ वह
भौतिक लिंगात्मा संकल्प और विकल्प के मनन से जड़तावश मन्द होकर मन बन जाता है।
जैसे निश्चल आकारवाला समुद्र चंचल आकारवाले तरंगभाव को प्राप्त होता है, वैसे ही
वह मनरूप बन जाने से अपने महान परमात्मभाव को भूलकर मन के संकल्प, विकल्प आदि
धर्मों को अपने धर्म समझने लगता है। इस प्रकार समष्टि मनोभाव को प्राप्त हुआ
हिरण्यर्भनामक ब्रह्म स्वयं ही (दूसरे द्वारा बोध पाये बिना ही) पूर्ववासना के
अनुसार विराट्-भाव को, भुवन आदि भाव को और वहाँ पर स्वेदज, उद्भिज्ज, अण्डज और
जरायुज रूप चार प्रकार के जीवभावों का नित्य संकल्प करता रहता है। उस सत्यसंकल्प
से इस प्रकार इन्द्रजाल की नाईं वह विशाल सृष्टि फैलाई जाती है।।14-16।।
यों हजारों
अध्यारोपों से भी अधिष्ठान की पारमार्थिकता का विनाश नहीं किया जा सकता, यह
दर्शाने के लिए दृष्टान्त देते हैं।
जैसे
सुवर्ण के बने हुए कटक (कड़ा) रूप सुवर्ण से कटक शब्द का अर्थ पृथक नहीं किया जा
सकता, वैसे ही परब्रह्म में जगत्-शब्दार्थ है, अर्थात् जगत् शब्द का अर्थ परब्रह्म
से पृथक नहीं किया जा सकता, क्योंकि दृष्टान्त की नाईं दोनों में भेद नहीं है।
जैसे कटकरूपता सुवर्ण के स्वभाव के ही अन्तर्गत है कटकस्वभाव के अन्तर्गत नहीं है,
वैसे ही परिच्छेद से रहित यह जगत् शब्दार्थ भी अनन्तस्वरूप ब्रह्म के स्वभाव के ही
अन्तर्गत है नाशवान् अपने स्वभाव के अन्तर्गत नहीं है।।17-18।।
यदि यह
स्वतः नहीं है तो सत् की नाईं कैसे प्रतीत होता है ? इस शंका पर कहते हैं।
जैसे
मरुस्थल में मृगतृष्णा की नदी असत् चंचल तरंगों का सत् के नाईं विस्तार करती है
वैसे ही मन से यह इन्द्रजाल सरीखा जगत् सत् न होता हुआ भी सत् के समान बनाया जाता
है।।19।।
अविद्या के अनुरूप नामों से अविद्या को दर्शाते हैं।
सर्वज्ञ
विद्वानों ने जिसके अविद्या, संसार, बन्धन, माया, मोह, महत्, तम(▲)
इत्यादि अनेक नामों की कल्पना की है। हे चन्द्रवदन, पहले मैं आपसे उस माया (बन्ध)
का स्वरूप कह रहा हूँ, उसे आप सावधान होकर सुनिये। उसके श्रवण के अनन्तर आप मोक्ष
के स्वरूप को समझ जायेंगे।।20,21।।
▲ विद्या से नाश्य होने के कारण वह अविद्या कही जाती
है, ऊपर नीचे और तिरछे गमन की हेतु होने से संसार, अस्वतन्त्रता की जननी होने से
बन्धन, मिथ्या होने से माया, भ्रम की हेतु होने से मोह, दुस्तर होने से महत् और
स्वरूप का आवरण करने वाली होने से तम कही जाती है।
ज्ञान
द्वारा क्रमशः नष्ट होने और प्राप्त होने योग्य बन्ध और मोक्ष का स्वरूप बतलाते
हैं।
वस्तु,
दृश्य प्रपंच का अस्तित्व द्रष्टा का बन्ध कहा जाता है। दृश्य के कारण ही द्रष्टा
बन्धन में पड़ा है और दृश्य के हट जाने से मुक्त हो जाता है। असत्य स्वरूप त्वम्
'अहम्' (मैं) इत्यादि जगत् दृश्य कहलाता है जब तक यह दृश्य रहता है तब तक मोक्ष
नहीं हो सकता।।22,23।।
कोई
शंका करे कि यदि दृश्य का अभाव ही मोक्ष है, तो तत्-तत् काल में उपस्थित हुए दृश्य
के 'यह नहीं है, यह नहीं है' इत्यादि निराकरण से ही रोग के निराकरण से आरोग्य की
नाईं मोक्ष सिद्ध हो जायेगा, उसके निराकरणार्थ तत्त्वज्ञानप्राप्ति के लिए कष्ट
उठाने की क्या आवश्यकता है ? इस पर कहते हैं।
यह
(दृश्य) नहीं है, यह (दृश्य) नहीं है, इत्यादि व्यर्थ प्रलापों से इसका विनाश नहीं
होता बल्कि संकल्प के हेतु 'यह दृश्य नहीं है' इत्यादि प्रलापों से दृश्यरूप
व्याधि बढ़ती है। भाव यह है कि दृश्य रहते 'यह दृश्य नहीं है' यह प्रलाप बाधित हो
जाता है, अतः वह विद्यमान दृश्य के विरोधी अन्य दृश्य के उत्पाद-संकल्प से उसके
उत्पादन द्वारा पूर्व दृश्य का निराकरण करता है, ऐसा कहना होगा, ऐसी परिस्थिति में
एक दृश्य के निराकरण के लिए दो दृश्यों की उत्पत्ति हो जाने से दृश्य बढ़ता ही
है।।24।। हे विचारशील पुरुषों, दृश्य जगत् के विद्यमान रहते सैंकड़ों तर्कों से और
तीर्थयात्रा तथा नियम आदि से भी दृश्यरूपी व्याधि की निवृत्ति नहीं होती, केवल
इतना ही नहीं, किन्तु दूसरी दृश्य व्याधि प्राप्त हो जाती है। भाव यह कि इस
दृश्यरूपी व्याधि की अनादर से उपेक्षा नहीं करनी चाहिए, बल्कि विचार द्वारा इसका
बाध करना चाहिए।।25।।
और
दूसरी बात यह भी है कि यदि दृश्य स्वतः सत् माना जाय, तो सत् का बाध न होने से कभी
भी मोक्ष नहीं हो सकेगा, ऐसा कहते हैं।
यदि
जगत् की वास्तविक सत्ता है, तो किसी के जगत् की निवृत्ति नहीं होगी, क्योंकि असत्
पदार्थ की सत्ता नहीं होती और सत् का अभाव नहीं होता, यह अकाट्य नियम है।।26।।
यदि कोई
कहे कि यह द्रष्टा पुरुष तप, ध्यान आदि के बल से दृश्यशून्य तथा दृश्य के समावेश
के अयोग्य परमाणु के उदर आदि में जाकर रहता हुआ दृश्य से छुटकारा पा जायेगा, ऐसी
अवस्था में मोक्ष का अभाव कैसे होगा ? इस पर कहते हैं।
आत्मा
का तप आदि से भी परिज्ञान नहीं हो सकता। चिद्रूप आत्मा जिसको ज्ञात नहीं हुआ, वह
द्रष्टा जहाँ कहीं भी (परमाणु के मध्य में भी) रहेगा वहाँ परमाणु के उदर में भी
उसको दृश्य की प्रतीति होगी ही। भाव यह है कि जिसको आत्मतत्त्व का परिज्ञान नहीं
है, वह जीव ही दृश्य का बीज है, परमाणु के उदर में भी भ्रान्ति से विशालता की
प्रतीति में विरोध न होने से वहाँ पर भी उसके दृश्यरूप बन्धन का निवारण नहीं हो
सकता।।27।।
उक्त का
ही उपसंहार करते हैं।
इसलिए
दृश्य जगत् है और उसका तप, ध्यान और जप द्वारा जहाँ पर वह रहा वहीं पर उसे मिटा दिया
और अन्य देश की प्राप्ति से उसका त्याग कर दिया, वह कथन बासी भात आदि के सड़े जल
से तृप्ति करने की नाईं है। हे श्रीरामचन्द्रजी, यदि दृश्यरूप जगत् है, तो उसका
परमाणु के भीतर और चैतन्यरूपी आदर्श में भी वैसा ही प्रतिबिम्ब पड़ता है। भाव यह
कि दृश्यरूप जगत् जैसे विशाल प्रदेश में विद्यमान है, वैसे ही परमाणु में एवं चेतन
आत्मा में भी, बिना संकोच के, उसका प्रतिबिम्ब पड़ता है। दर्पण चाहे कहीं पर भी
स्थित हो, उसमें जैसे पर्वत, समुद्र, पृथिवी, नदी के जल का प्रतिबिम्ब पड़ता है,
वैसे ही चैतन्यरूपी आदर्श में (आत्मा में) भी पड़ता है। उसके अनन्तर उस प्रतिबिम्ब
में पुनः दुःख प्राप्त होता है – जरा, मृत्यु और जन्म प्राप्त होते हैं। जैसे
जाग्रत अवस्था में स्थूल तथा स्वप्न में सूक्ष्म भाव और अभाव का ग्रहण और सुषुप्ति
में उनका त्याग होता है, वैसे ही यह अस्थिर संसार रहता है।।28-31।।
ज्ञान
की अपेक्षा न करने वाली निर्विकल्प समाधि से दृश्य के मार्जन की शंका कर कहते हैं।
इस
दृश्य जगत् का मैंने परिमार्जन कर लिया और यहाँ पर मैं समाधि में स्थित हूँ, समाधि
में संसार के स्मरण का यह कभी क्षय न होने वाल बीज है। भाव यह है कि जिसका स्मरण
नहीं हुआ, उसका मार्जन नहीं हो सकता और उसका स्मरण होने पर तो समाधि का ही भंग हो
जायेगा।।32।।
अतएव
निर्विकल्प समाधि से भी दृश्य का मार्जन नहीं हो सकता, ऐसा कहते हैं।
इस
दृश्य प्रपंच के रहते निर्विकल्प समाधि नहीं हो सकती। निर्विकल्प समाधि होने पर ही
तो चित्त के रहने पर चेतनता और चित्त का बाध होने पर तुर्यपद की उपपत्ति होती है।
दृश्य के रहते तो निर्विकल्प समाधि का अवसर ही कहाँ ?।।33।।
समाधि
भले ही हो फिर भी संसार की निवृत्ति नहीं हो सकती, ऐसा कहते हैं।
जैसे
सुषुप्ति के (गाढ़ी नींद के) पश्चात् दुःखमय यह सारा जगत् प्राप्त हो जाता है,
वैसे ही समाधि टूटने पर यह दुःखमय सम्पूर्ण जगत् ज्यों का त्यों भासमान प्रत्यक्
आत्मा में प्राप्त हो जाता है, इसलिए हे श्रीरामचन्द्रजी, फिर भी जब
अनर्थ-प्राप्ति की संभावना रही तो क्षणमात्र की समाधि से क्या सुख ? इसलिए समाधि
से कौन सा प्रयोजन सिद्ध होता है ? यदि निर्विकल्प समाधि में कभी अव्युत्थान को
प्राप्त हो, तो ज्ञान के बिना भी अक्षय सुख प्राप्त हो गया, ऐसा यदि कोई माने, तो
वह निर्मल पद को कभी क्षीण न होने वाली सुषुप्ति के तुल्य मानता है (▼)।।34-36।।
▼ 'अक्षयसुषुप्ताभ' से मूढ़ता का कभी उच्छेद न होने से
उसमें अपुरुषार्थता सूचित होती है।
उक्त
अन्य के आशय का उत्तर देते हैं।
इस
मनरूप दृश्य के रहते समाधि में भले ही कोई कितना ही प्रयत्न क्यों न करे ? फिर भी
क्या उसे दृश्य प्राप्त नहीं होता, अवश्य प्राप्त होता है, क्योंकि जहाँ-जहाँ इसका
चित्त जाता है, वहाँ-वहाँ चित्त से उत्पन्न होने वाले जगतभ्रम का भी निवारण नहीं
किया जा सकता।।37।।
दूसरी
बात यह भी है कि यदि द्रष्टा अज्ञानी होने से आत्मभिन्न पाषाण आदि की ही समाधि में
जबरदस्ती भावना (चिन्तना) करे, तो वह समाधि के अन्त में फलकाल में भी पुनः दृश्यता
को प्राप्त होता है। जिसमें केवल आत्मा का ही शेष रहता है, वह समाधि उसको प्राप्त
नहीं होती है, ऐसा कहते हैं।
यदि
अज्ञानी द्रष्टा समाधि में समाधि के बल से लब्ध दुःखशून्य पाषाणता का चिन्तन करता
रहता है तो समाधि के अन्त में उसको पुनः दृश्यता प्राप्त होती है।।38।।
समाधि
द्वारा प्राप्त दुःखशून्य पाषाणता के प्राप्त होने पर भी स्थर्यकी कोई आशा नहीं
है, ऐसा कहते हैं।
किसी को
भी समाधिबल से प्राप्त दुःखशून्य पाषाणता के तुल्य निर्विकल्प समाधियाँ स्थिरता को
प्राप्त नहीं होती, यह बात सभी समाधिनिष्ठ पुरुषों द्वारा अनुभूत है।।39।।
यदि कोई
शंका करे कि जिनकी समाधि रूढ़ (परिपक्व) नहीं हुई हो, उन्हें भले ही स्थिरता
प्राप्त न हो, किन्तु जिनकी समाधि परमात्मभावापत्तिपर्यन्त रूढ़ है, उन्हें तो
स्थिरता प्राप्त होगी, इस पर कहते हैं।
परिपक्वता
को प्राप्त होने पर भी पाषाणता के तुल्य अचेतन समाधियाँ शान्त, चिद्रूप, अज तथा
अक्षयरूप नहीं हो सकती यानी उक्त पाषाणतुल्य समाधियाँ सम्पूर्ण संसार की निःशेष
शान्तिरूप मोक्ष नहीं हो सकती।।40।।
इसलिए
जिस बात को हम पहले कह आये हैं, वही सिद्ध हुई, ऐसा कहते हैं।
इसलिए
यदि यह दृश्य सत् है, तो यह कभी शान्त नहीं होगा, इसलिए तप, जप और ध्यान से दृश्य
की निवृत्ति हो जायेगी, यह अज्ञानियों की केवल कल्पना ही है।।41।।
अविद्यायुक्त
द्रष्टा में दृश्य की स्थिति का दृष्टान्त द्वारा साधन करते हैं।
जैसे
कमलगट्टे के अन्दर वह बीज विद्यमान है, जिसमें होने वाली कमलिनी का लतारूप अन्तर्हित
है, वैसे ही अज्ञानी द्रष्टा में वह दृश्य-बुद्धि रहती है, जिसमें भावी संसार
अन्तर्हित है। जैसे पदार्थों में रस रहता है, तिल आदि में तेल रहता है और फूलों
में सुगन्ध रहती है, वैसे ही द्रष्टा में दृश्य बुद्धि रहती ही है। कपूर आदि चाहे
कहीं पर क्यों न हों, फिर भी जैसे उनसे सुगन्ध निकलती है, वैसे ही द्रष्टा चाहे
कहीं पर क्यों न हो, फिर भी उसमें दृश्य रहता ही है। जैसे आपके हृदय में स्थित
मनोराज्यबुद्धि केवल आपके अनुभव से ही देखी जाती है और जैसे स्वप्न तथा संकल्प
आपही के अनुभव से ही देखे जाते हैं, वैसे ही दृश्य जगत् भी स्वानुभव से ही आपके
हृदय में प्रतीत होता है। इसलिए जैसे चित्त द्वारा कल्पित पिशाच बालक को मार देता
है, वैसे ही दृश्य रूपिका (╨) (पिशाची) इस द्रष्टा को मार
देती है यानी स्वरूप से भ्रष्ट कर देती है।।42-46।।
╧ स्त्री
के वेष से पुरुषों को मोहित करके मारती हुई पिशाचियाँ रूपिका कहलाती हैं।
यदि
सम्पूर्ण दृश्य हृदय में हैं, तो अभी सबको उसका अनुभव क्यों नहीं होता इस पर कहते
हैं।
जैसे
बीज के भीतर स्थित अंकुर देश और काल से अपने को प्रकाशित करता है, वैसे ही
दृश्यबुद्धि भी देश और काल से अपने स्वरूप को प्रकाशित करती है। जैसे अचिन्त्य
कार्यवैचित्र्यशक्तिरूप चमत्कार बीज आदि के भीतर रहता ही है, वैसे ही
चिन्मात्रस्वरूप आत्मा के ही उदर में चिद् और अचित् से सम्बद्ध अतीत, अनागत जगत की
सत्ता रहती है।।4748।।
पहला
सर्ग समाप्त
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