मासिक साधना उपयोगी तिथियाँ

व्रत त्योहार और महत्वपूर्ण तिथियाँ

25 फरवरी - माघी पूर्णिमा
03 मार्च - रविवारी सप्तमी (शाम 06:19 से 04 मार्च सूर्योदय तक )
06 मार्च -
व्यतिपात योग (दोपहर 14:58 से 07 मार्च दिन 12:02 मिनट तक)
08 मार्च - विजया एकादशी (यह त्रि स्पृशा एकादशी है )
09 मार्च - शनि प्रदोष व्रत
10 मार्च - महा शिवरात्री (निशीथ काल मध्यरात्री 12:24 से 01:13 तक )
11 मार्च - सोमवती अमावस्या (
सूर्योदय से रात्री 1:23 तक )
11 मार्च - द्वापर युगादी तिथि
14 मार्च - षडशीति संक्रांति (पुण्यकाल शाम 4:58 से
सूर्योदय तक)
19 मार्च - होलाष्टक प्रारम्भ
20 मार्च - बुधवारी अष्टमी (
सूर्योदय से दोपहर 12:12 तक)
23 मार्च - आमलकी एकादशी
24 मार्च - प्रदोष व्रत
26 मार्च - होलिका दहन
27 मार्च - धुलेंडी , चैतन्य महाप्रभु जयंती
29 मार्च - संत तुकाराम द्वितीय
30 मार्च - छत्रपति शिवाजी जयन्ती

मंगलवार, 9 अक्तूबर 2012

श्री योगवासिष्ठ महारामायण - 31 (मुमुक्षु-व्यवहार प्रकरण)


सातवाँ सर्ग
प्रचुर उदाहरण और प्रत्युदाहरणों तथा युक्तियों से पौरुष की प्रधानता का समर्थन।

दैव का निराकरण कर पहले जो पौरुषप्रधानता का समर्थन किया गया था, उसी को उदाहरण और प्रत्युदाहरण द्वारा दृढ़ करने वाले श्रीवसिष्ठजी उपपत्तिपूर्वक हितोपदेशद्वारा अधिकारियों को पुरुषार्थ की ओर आकृष्ट करते हैं।
श्रीवसिष्ठजी ने कहाः श्रीरामजी, रोगरहित, स्वल्प मानसिक पीड़ा से युक्त देह को प्राप्त कर आत्मा में इस प्रकार चित्त की एकाग्रता करे कि जिससे फिर जन्म ही न हो। जो पुरुष पौरुष से दैव को जीतने की इच्छा करता है, उसके इस लोक में और परलोक में सम्पूर्ण मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं। जो लोग उद्यम का परित्याग कर दैव पर निर्भर रहते हैं, वे आत्मशत्रु अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष का विनाश करते हैं। पुरुषार्थ और उसके साधनों की स्फूर्ति संवित्स्पन्द है उससे उनके साधन की इच्छा से जन्य प्रयत्न मनःस्पन्द है अर्थात् दृढ़संकल्प, उससे कर्मेन्द्रियों और अंगों के संचालन की प्रवृत्ति इन्द्रियस्पन्द है अर्थात् कार्यप्रवृत्ति या अनुष्ठान में रत होना। बुद्धि, मन और कर्मेन्द्रियों की उक्त चेष्टाएँ पौरुष के रूप हैं उक्त पुरुषप्रयत्नों से ही संकल्पित फल की प्राप्ति होती है। साक्षी चेतन में पहले जैसी विषयाभिव्यक्ति (विषय़ ज्ञान) होती है, वैसी ही मन में क्रिया होती है, मन के व्यापार के अनुसार कर्मेन्द्रियों में व्यापार होता है, कर्मेन्द्रियों के व्यापार के अनुरूप शारीरिक क्रिया के अनुसार ही फल की सिद्धि होती है। लोक में लौकिक या वैदिक फल के लिए जहाँ जैसे जैसे पुरुषप्रयत्न की आवश्यकता होती है वहाँ वैसे ही पुरुषप्रयत्न के उपयोग से फल की सिद्धि होती है यह बात बच्चों तक को विदित है। जैसे ध्यान आदि में मानसिक प्रयत्न ही प्रधान है, आसन तथा मौन उसके अंग हैं, स्तुति करने में वाचिक प्रयत्न प्रधान हैं, एकाग्रता और ध्येय देवता की अभिमुखता उसके अंग हैं, यात्रा आदि में कायिक प्रयत्न ही प्रधान है, वाणी और मन का नियन्त्रण उसके अंग हैं। कहीं पर दो दो प्रयत्न प्रधान रहते हैं, कहीं पर तीन प्रयत्न प्रधान रहते हैं, इस प्रकार सब जगह पौरुष ही देखा जाता है, दैव तो कहीं देखा नहीं गया, इसलिए वह असत् है। हे श्रीरामजी, पुरुषप्रयत्न से ही बृहस्पति देवताओं के गुरु बने और पुरुषार्थ से ही शुक्राचार्य ने दैत्यराजों का गुरुत्वपद प्राप्त किया था। दीनता, दरिद्रता आदि दुःखों से पीड़ित हुए भी अनेक महापुरुष अपने पौरुष से (प्रयत्न से) ही महेन्द्र के सदृश ऐश्वर्यशाली हो गये हैं। हरिश्चन्द्र, नल, युधिष्ठिर आदि का इतिहास इस बात का साक्षी है। महासम्पत्तियों का उपभोग करने वाले तथा उन विपुल वैभवों के अधिपति जिनका कि स्मरण करने में आश्चर्य होता है, नहुष आदि महापुरुष अपने ही पौरुषदोष से नरकगामी हुए, उत्कट पद से भ्रष्ट हुए। सभी प्राणी हजारों सम्पत्तियों और विपत्तियों को और विविध दशाओं को अपने भले बुरे पुरुषप्रयत्न से ही पार करते हैं। हे रामचन्द्रजी, शास्त्राभ्यास,गुरुउपदेश और अपना परिश्रम इन तीनों से ही पुरुषार्थ की सिद्धि देखी जाती है, लौकिक पुरुषार्थ अपने परिश्रम से ही सिद्ध होते हैं, यज्ञ, याग आदि अपने परिश्रम और शास्त्र की सहायता से सिद्ध होते हैं और ज्ञान अपने परिश्रम, शास्त्र की सहायता तथा गुरु के उपदेश से सिद्ध होता है, इस प्रकार की तीन सिद्धियाँ पुरुषार्थ से ही देखी जाती हैं, दैव से सिद्धियाँ कभी नहीं देखी गई। अपना अभ्युदय चाहने वाला पुरुष अशुभ कर्मों में संलग्न मन को प्रयत्न से शुभ कर्मों में लगाये, यह सम्पूर्ण शास्त्रों के सारांश का संग्रह है। वत्स, जो वस्तु कल्याणकारी है, तुच्छ नहीं है (सर्वोत्कृष्ट है), जो विनाश रहित (अविनाशी) है, उसी का प्रयत्न से सम्पादन करो, ऐसा उपदेश गुरुजन सदा देते हैं। जैसे-जैसे मैं प्रयत्न करूँगा, वैसे वैसे ही मुझे शीघ्र फल प्राप्त होगा, ऐसा निश्चय करके मैं प्रयत्न से शुभ फल का भाजन हुआ हूँ, दैव से मेरा कुछ भी उपकार नहीं हुआ। पौरुष से पुरुषों को अभीष्ट पदार्थ प्राप्त होते हैं और पौरुष से बुद्धिमान जनों के पराक्रम की वृद्धि होती है। दैव तो दुःखसागर मे डूबे हुए दुर्बल चित्त वाले लोगों के आँसू पोंछना मात्र है और कुछ नहीं है, भाव यह कि दुःखी लोगों को समझाने बुझाने और ढाढ़स बाँधने के लिए लोग दैव-दैव पुकारते हैं। लोक में प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से पुरुषप्रयत्न का फल अन्य देश में गमन आदि सब लोगों को सदा दिखाई देता है। यदि पुरुष पौरुष का अवलम्बन नहीं करे, तो उसका अन्य देश में गमन कैसे हो सकता है ? जो पुरुष भोजन करता है वही तृप्त होता है, जो भोजन नहीं करता वह कभी भी तृप्त नहीं हो सकता, जो चलता है वही अन्य देश में पहुँचता है, गमन न करने वालों की कदापि अन्यदेश में गति नहीं हो सकती, जो वक्ता है, वही बोल सकता है, जो अवक्ता है वह क्या बोलेगा ? इससे सिद्ध है कि पुरुषों का पुरुषप्रयत्न ही सफल है, दैव नहीं। पौरुष से ही बुद्धिमान पुरुष बड़े भीषण संकटों को बात ही बात में पार कर जाते हैं, न कि पौरुषरहित (अकर्मण्यतारूप) दैव पर निर्भर होकर। जो पुरुष जैसा-जैसा प्रयत्न करता है, उसे वैसा-वैसा फल प्राप्त होता है, इस लोक में जो हाथ पर हाथ रखकर चुपचाप बैठा रहता है, उसे तनिक भी फल नहीं मिल सकता। हे राम, पुरषार्थ से (पौरुष से) शुभ फल मिलता है और अशुभ पुरुषार्थ से अशुभ फल मिलता है, तुम्हें जैसे फल की अभिलाषा हो वैसे पुरुषार्थ का अवलम्बन कर उस फल के भागी बनो। पुरुषार्थी पुरुषों को देश और काल के अनुसार पुरुषप्रयत्न से कभी शीघ्र और कभी कुछ विलम्ब से जिस फल की प्राप्ति होती है, उसी को अज्ञानी उद्यमहीन व्यक्ति 'दैव' कहते हैं। न तो 'दैव' का नयनों से दर्शन होता है, न वह कहीं स्वर्ग आदि अन्य लोक में ही स्थित है। पुरुषार्थी का स्वर्गलोक में स्थित कर्मफल ही दैवनाम से पुकारा जाता है। इस लोक में पुरुष पैदा होता है, बढ़ता है, फिर वृद्ध होता है, पर उस पुरुष में जैसे वृद्धावस्था, यौवन और बाल्यावस्था दिखाई देती हैं, वैसे दैव नहीं दिखाई देता। अपने अभीष्ट को प्राप्त कराने वाली कार्यमात्रतत्परता को विद्वान लोग पौरुष कहते हैं, उसी से सब कुछ प्राप्त किया जाता है। एक स्थान से दूसरे स्थान की प्राप्ति पैरों के पुरुषार्थ से होती है, हाथ का किसी वस्तु को पकड़ना हाथ के पौरुष से होता है और इसी प्रकार अन्यान्य अंगों के अन्यान्य व्यापार (चेष्टाएँ) पौरुष से ही होते हैं, दैव से नहीं। अनभीष्ट पदार्थ की प्राप्ति कराने वाले कार्य में जो संलग्नता है, वह उन्मत्त की चेष्टा है, उससे कोई भी शुभ फल प्राप्त नहीं होता, अशुभ (नरकपात आदि) फल ही प्राप्त होता है। देहचालनपरम्परारूप गुरुसेवा और श्रवण आदि क्रिया से तथा सज्जन संगति और शास्त्रपरिशीलन आदि से तीक्ष्ण हुई बुद्धि से जो स्वयं अपनी आत्मा का उद्धार किया जाता है, वही स्वार्थसाधकता है। अज्ञानकृत विषमता की निवृत्ति से उपलक्षित अनन्त आनन्दरूप अपने परमार्थ को जो जानते हैं और जिनसे उक्त आनन्द प्राप्त किया जाता है, उन शास्त्र और महात्माओं की प्रणिपातपूर्वक सेवा करनी चाहिए। बार-बार सज्जन संगति का फल उनके तुल्य शील स्वभाव की प्राप्ति है और शास्त्राभ्यास का फल शास्त्र तात्पर्यज्ञान है। बुद्धि से सत् शास्त्राभ्यासरूप गुण होता और सत् शास्त्र के अभ्यास से बुद्धि की वृद्धि होती है। जैसे वर्षाकाल में तालाब और कमल परस्पर की शोभा बढ़ाते हैं, वैसे ही चिरकाल के अभ्यास से मति और मति से शास्त्राभ्यास की वृद्धि होती है। भाव यह कि मनुष्य जैसे जैसे गुरुसेवा और शास्त्राभ्यास में तत्पर होता है वैसे वैसे उसका बोध बढ़ता है और जैसे जैसे बोध की अभिवृद्धि होती है वैसे वैसे गुरु और शास्त्र में विश्वास बढ़ता है। उनकी वृद्धि होने पर सुख की वृद्धि होती है, तदनन्तर उत्तरोत्तर भूमिका में आरूढ़ होता है।।1-29।।
तत्त्वबोध की वृद्धि के लिए बहुत काल तक यत्न करना चाहिए ऐसा कहने के लिए उक्त बात को ही पुनः कहते हैं।
बाल्यावस्था से लेकर पूर्णरूप से अभ्यस्त शास्त्र एवं सत्संग आदि गुणों से पौरुष द्वारा अपना हितकारी स्वार्थ सिद्ध होता है। भगवान विष्णु ने पौरुष से ही दैत्यों के ऊपर विजय प्राप्त की, पौरुष से ही लोकों कि क्रियाएँ नियत की और पौरुष से ही लोकों की रचना की, दैव से नहीं। हे रघुनन्दन, इस जगत् में केवल पुरुषप्रयत्न ही पुरुषार्थ का हेतु है। यहाँ आप चिरकाल तक वैसा पौरुष कीजिए जैसे कि हे सौम्य, आप वृक्ष, सर्प आदि योनियों को प्राप्त न हों।।30-32।।

सातवाँ सर्ग समाप्त
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