मासिक साधना उपयोगी तिथियाँ

व्रत त्योहार और महत्वपूर्ण तिथियाँ

25 फरवरी - माघी पूर्णिमा
03 मार्च - रविवारी सप्तमी (शाम 06:19 से 04 मार्च सूर्योदय तक )
06 मार्च -
व्यतिपात योग (दोपहर 14:58 से 07 मार्च दिन 12:02 मिनट तक)
08 मार्च - विजया एकादशी (यह त्रि स्पृशा एकादशी है )
09 मार्च - शनि प्रदोष व्रत
10 मार्च - महा शिवरात्री (निशीथ काल मध्यरात्री 12:24 से 01:13 तक )
11 मार्च - सोमवती अमावस्या (
सूर्योदय से रात्री 1:23 तक )
11 मार्च - द्वापर युगादी तिथि
14 मार्च - षडशीति संक्रांति (पुण्यकाल शाम 4:58 से
सूर्योदय तक)
19 मार्च - होलाष्टक प्रारम्भ
20 मार्च - बुधवारी अष्टमी (
सूर्योदय से दोपहर 12:12 तक)
23 मार्च - आमलकी एकादशी
24 मार्च - प्रदोष व्रत
26 मार्च - होलिका दहन
27 मार्च - धुलेंडी , चैतन्य महाप्रभु जयंती
29 मार्च - संत तुकाराम द्वितीय
30 मार्च - छत्रपति शिवाजी जयन्ती

गुरुवार, 4 अक्तूबर 2012

श्री योगवासिष्ठ महारामायण - 29 (मुमुक्षु-व्यवहार प्रकरण)


पाँचवाँ सर्ग
पौरुष के प्रबल होने पर अवश्य फलप्राप्ति में एवं दैव की पुरुषार्थ से अभिन्नता में युक्ति और दृष्टान्तों का प्रदर्शन।
पूर्व में जो यह कहा था कि दैव पौरुष से अतिरिक्त नहीं है, दैव से पौरुष प्रबल है और पौरुष से ही पुरुषार्थ की सिद्धि होती है, उक्त सबका युक्ति से समर्थन करने के लिए प्रतिज्ञा करते हैं।
श्रीवसिष्ठजी ने कहाः जैसे नीला, पीला आदि रंगों की अभिव्यक्ति में प्रकाश ही मुख्य कारण है, वैसे ही शास्त्र के अनुसार कायिक, वाचिक और मानसिक व्यवहार करने वाले अधिकारी पुरुषों के सब पुरुषार्थों की सिद्धि में प्रवृत्ति ही मुख्य कारण है।।1।।
विद्या तृप्ति आदि के समान दृष्टफलक है, उसके साधन में शास्त्रीय नियम का क्या उपयोग है ? इस पर कहते हैं।
पुरुष जिसकी केवल मन से इच्छा करता है, शास्त्रानुसार कर्म से नहीं करता, वह उन्मत्त की चेष्टा ही करता है, वह पुरुषार्थ का साधन नहीं है, बल्कि मोह का साधन है। सारांश यह कि यद्यपि विद्या दृष्टफलक है, तथापि विद्या  साधन में अशास्त्रीय ही फल होता है, इस प्रकार औचित्य के बल से भी व्यवस्था की सिद्धि होती है। जो आदमी जैसा प्रयत्न करता है, वह वैसा ही फल पाता है। प्राक्तन (पूर्व जन्म का) स्वकर्म है दैव कहलाता है, उससे अतिरिक्त दैव कुछ नहीं है। पौरुष दो प्रकार का है-एक शास्त्रानुमोदित और दूसरा शास्त्रविरुद्ध। उनमें शास्त्रविरुद्ध कर्म अनर्थ का कारण है और शास्त्रानुमोदित कर्म परमार्थवस्तु की प्राप्ति का कारण है। कहीं पर सम और कहीं पर असम प्राक्तन और ऐहिक दो पुरुषार्थ भेड़ों की तरह परस्पर लड़ते हैं, उनमें जो कम बलवाला होता है, वह नष्ट हो जाता है। इसलिए पुरुष को शास्त्रीय प्रयत्न से सज्जन महात्माओं के संग के द्वारा वैसा उद्योग करना चाहिए जिससे कि इस जन्म का पौरुष पूर्व जन्म के पौरुष को शीघ्र जीत ले।।2-6।।
'त्रिभिऋणैऋणवान् जायते' इस श्रुति से मनुष्य, देवता आदि का ऋणि, सुना जाता है और 'तस्मादेषां तन्न प्रियमेतन्मनुष्या विद्युः' (इसलिए देवताओं को यह प्रिय नहीं है कि मनुष्य आत्मतत्त्वज्ञानी होवें) ऐसी भी श्रुति है, इसलिए वे देवता अवश्य विघ्न करेंगे, उनके विघ्न करने पर किया गया प्रयत्न ही विफल हो जायगा, ऐसी आशंका कर कहते हैं।
सम और विषम अपना और दूसरे का पुरुषार्थ – ये दोनों भेड़ों की तरह लड़ते हैं उन दोनों में जो अति बलवान होता है, वह जीत जाता है। भाव यह है कि दोषों के रहते ही देवता विघ्न कर सकते हैं, अपने प्रयत्न से दोषों पर विजय पाने से उनकी विघ्नशक्ति कुण्ठित हो जाती है।।7।।
शास्त्रीय मार्ग में यत्न कर रहे लोगों को भी कभी कभी रोगादि अनर्थ क्यों प्राप्त होते हैं ? ऐसी आशंका होने पर कहते हैं।
जहाँ पर शास्त्रानुमोदित पौरुष से भी विघ्नबाधा प्राप्त होती है, वहाँ पर अनर्थकारी अपने पौरुष को बलवान् समझना चाहिए।।8।।
उसको भी जीत लेना चाहिए यह भाव है।
अपने उत्कृष्ट पौरुष का अवलम्बन कर दाँतों से दाँतों को पीस रहे पुरुष को अपने शुभ पौरुष से विघ्न करने के लिए उद्यत पूर्व जन्म के अशुभ पौरुष को जीत लेना चाहिए। यह प्राचीन पौरुष मुझे प्रेरित करता है, इस प्रकार की बुद्धि को बलपूर्वक कुचल डालना चाहिए, क्योंकि वह प्रत्यक्ष प्रयत्न से अधिक बलवान नहीं है। तब तक पौरुष पूर्वक भली भाँति प्रयत्न करना चाहिए जब तक कि प्राक्तन (पूर्व जन्म का) अशुभ पौरुष स्वयं () (निःशेष) शान्त हो जाये।
'स्वयम्' विशेषण निःशेषतता का सूचक है, अन्य से शान्ति होने पर उसके (शामक अन्य के) हटने पर फिर उसका उद्भव हो सकता है वह न हो इसलिए 'स्वयम्' यह विशेषण दिया है।
इस जन्म के गुणों से (शुभ पौरुष से) पूर्वजन्म का दोष (अशुभ पौरुष) अवश्य नष्ट हो जाता है, इसमें कोई सन्देह नहीं है। आज के गुणों से (लंघन आदि से) कल के दोष का (अजीर्ण आदिका) क्षय इसमें दृष्टान्त है। पूर्व जन्म के दुरदृष्ट का ऐहिक शुभ कर्मों से सदा उद्योगशील बुद्धि द्वारा तिरस्कार कर अपने में संसार को तरने के लिए सम्पादनार्थ (मुक्तयर्थ) शम, दम, श्रवण आदि सम्पत्ति के लिए यत्न करना चाहिए। आलसी पुरुष गदहे से भी निकृष्ट है, अतएव उद्योगहीन होकर गर्दभ तुल्य नहीं बनना चाहिए, किन्तु स्वर्ग और मोक्ष की सिद्धि के लिए शास्त्रानुसार सदा यत्न करना चाहिए।।9-14।। जैसे विष्णु असुरों द्वारा प्रयुक्त माया रूप पिंजड़े से स्वयं बलपूर्वक निकल गये। अथवा जैसे सिंह मनुष्यों से बनाये गये बन्धन रूप पिंजड़े से स्वयं बलपूर्वक निकल जाता है, वैसे ही मनुष्यों को पौरुषरूप यत्न का अवलम्बन कर इस संसाररूप गर्त से स्वयं बलपूर्वक निकल जाना चाहिए। अपने शरीर को प्रतिदिन नश्वर देखें, पशुओं के साथ समानता को छोड़ दें अर्थात् पशुता का स्वीकार न करें, किन्तु सत्पुरुषों के योग्य साधु संगम और सत्शास्त्रों का अवलम्बन करे। जैसे कीड़ा घाव में पीव आदि द्रव पदार्थ का आस्वादन करता है, वैसे ही घर में स्त्री, अन्न, पान आदि द्रव और कोमल पदार्थों का आस्वादन लेकर सम्पूर्ण पुरुषार्थों के साधनभूत यौवन को व्यर्थ नहीं कर देना चाहिए। शुभ पुरुष प्रयत्न से शीघ्र शुभ फल प्राप्त होता है और अशुभ पुरुष प्रयत्न से अशुभ फल मिलता है। पूर्वजन्म के शुभ और अशुभ पुरुष प्रयत्नो के सिवा दैव नाम की कोई वस्तु नहीं है। जो मनुष्य प्रत्यक्ष प्रमाण का त्याग कर अनुमान प्रमाण का अवलम्बन करता है, वह अपनी बाहुओं को ये सर्प है, ऐसा समझकर उनसे भयभीत होकर भागता है। विश्वामित्र आदि श्रेष्ठ पुरुषों ने पुरुष प्रयत्न से ही पुरुषार्थ (परम लक्ष्य) प्राप्त किया था, इस बात को न जानने वाले अतएव मुझे दैव प्रेरित कर रहा है, ऐसा कहने वाले दुर्बुद्धियों का मुख देखकर लक्ष्मी लौट जाती है। इसलिए पहले पुरुष प्रयत्न से नित्यानित्यवस्तु विवेक आदि चार साधनों का अवलम्बन लेना चाहिए और आत्मज्ञानरूपी महान अर्थवाले शास्त्रों का विचार करना चाहिए। शास्त्रानुसार श्रवण, मनन आदि चेष्टाओं द्वारा परमार्थभूत आत्मतत्त्व का विचार न कर रहे अतएव उक्त पुरुषार्थसाधन से शून्य मूढ़ पुरुषों की अनन्त नरकों की हेतु होने के कारण अतिदुष्ट भोगेच्छा के लिए धिक्कार है। अर्थात् ऐसे पुरुष शोचनीय हैं।।15-22।।
'एव' पद योग्य जन्म का लाभ होने पर भी पुरुषार्थ की सिद्धि न करने पर फिर पुरुषार्थ सिद्धि की दुर्लभता का द्योतक है। श्रुति भी है - 'इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः' अर्थात् यदि अधिकारी मनुष्य ने आत्मतत्त्व को जान लिया, तो मनुष्य जन्म की ठीक सार्थकता है, यदि आत्मतत्त्व को नहीं जाना, तो बड़ा भारी विनाश है – अविच्छिन्न जन्म, मरण, नरक दि की परम्परा प्राप्त होती है।
इतने समय तक पुरुषार्थ करना चाहिए, इस प्रकार अवधिका ज्ञान न होने के कारण वह अनन्त है उसमें अति परिश्रम भी है, अतः उसमें कैसे प्रवृत्ति हो ? इस पर कहते हैं। पौरूष निरवाधिक नहीं है, साक्षात्कार का उदय ही उसकी अवधि है। वह प्रयत्न की भी अपेक्षा नहीं करता।।23।।
क्योंकि 'प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम्' (अनेक जन्मों से संचित निष्काम कर्म का फल गुरु द्वारा प्रदर्शित विचार से युक्त वेदान्तवाक्य से सुखपूर्वक प्राप्त किया जा सकता है) ऐसी स्मृति है।
यदि शंका हो कि उक्त 'प्रत्यक्षावगमम्' इत्यादि वाक्य 'पूर्णाहुत्या सर्वान् कामानवाप्नोति' (पूर्णाहूति से सम्पूर्ण कामों को प्राप्त करता है) इसके समान प्ररोचनामात्र है, क्योंकि अधिक श्रम होने पर ही अधिक फल प्राप्त होता है, ऐसा नियम है, तो उक्त नियम पर अन्वयव्यभिचार दर्शाते हैं।
बड़े भारी प्रयत्न से भी पत्थर से रत्न नहीं प्राप्त हो सकता और रत्न की परीक्षा में निपुण व्यक्तियों को परिश्रम के बिना भी प्रचुर लाभ होता दिखाई देता है। इस प्रकार व्यतिरेक व्यभिचार भी समझना चाहिए। जैसे जल से घड़ा परिमित है एवं जैसे लम्बाई चौड़ाई आदि परिमाण से वस्त्र परिमित है, वैसे ही पुरुषप्रयत्न भी परिमाणस्थ (आत्मतत्त्वसाक्षात्काररूपी फल की अवधि में स्थित) एवं परिमित है, अर्थात् उसकी अवधि (सीमा) तत्त्वसाक्षात्कार है। उक्त पुरुषप्रयत्न यदि सत् शास्त्र, सत्संग और सदाचार से युक्त होता है, तो अपना फल (तत्त्वसाक्षात्कार) देता है, यह उसका स्वभाव है। यदि वह सत्शास्त्र, सत्संग और सदाचार से रहित होता है, तो उससे फल की सिद्धि नहीं होती। पौरुष का यह स्वरूप है, इस प्रकार व्यवहार कर रहे किसी भी पुरुष का प्रयत्न भी विफल नहीं होता। दीनता और दरिद्रता से उत्पन्न दुःख से पीड़ित हुए नल, हरिश्चन्द्र आदि श्रेष्ठ पुरुष भी अपने पुरुषप्रयत्न से ही देवराज के सदृश हो गये हैं।।25-27।।
यदि बहुत परिश्रम की अपेक्षा नहीं है, तो पीछे पौरुष करेंगे, इसी समय उसकी क्या आवश्यकता है ? ऐसी शंका होने पर कहते हैं।
बाल्यावस्था से लेकर भलीभाँति अभ्यस्त शास्त्र, सत्संग आदि गुणों द्वारा पुरुषप्रयत्न से () स्वार्थ (तत्त्वसाक्षात्कार) प्राप्त होता है, सहसा किये गये शास्त्राभ्यास, सत्संग आदि से वह प्राप्त नहीं किया जा सकता।
जब तक आत्मसाक्षात्कार नहीं होता तभी तक पुरुषप्रयत्न करना अतीव आवश्यक है। आत्मतत्त्वसाक्षात्कार होने पर पुरुष के प्रयत्न की समाप्ति हो जाती है, इसलिए पुरुषप्रयत्न असीम नहीं है, किन्तु ससीम है।
वे तो कोमल काँटे के समान हैं। भाव यह कि जैसे कोमल काँटे से पैर में चुभा हुआ काँटा नहीं निकाला जा सकता वैसे ही सहसा अभ्यस्त शास्त्र आदि से तत्त्वसाक्षात्कार नहीं किया जा सकता। हम जीवन्मुक्त लोगों ने इस बात को प्रत्यक्षतः देखा है, उसका अनुभव किया है, सुना और साधनों से उपार्जित किया है, जो लोग उसे दैवाधीन कहते हैं, वे मन्दमति हैं और विनष्ट हैं।।28,29।।
यदि ऐसा है तो सभी लोग क्यों यत्न नहीं करते, इस पर कहते हैं।
अनर्थ (दुर्गति) का कारण होने या अर्थ (उन्नति) विघातक होने के कारण अनर्थकारी आलस्य यदि जगत में न होता, कौन पुरुष बड़ा धनी और विद्वान नहीं होता अर्थात् सभी धनी और विद्वान होते। आलस्य के कारण ही यह सागरपर्यन्त सम्पूर्ण पृथिवी निर्धनों और नरपशुओं से परिपूर्ण है। इसलिए आलस्य का परित्याग कर बाल्यावस्था से ही मनुष्य को सत्संग, शास्त्राभ्यास आदि में जुट जाना चाहिए, यही सर्वश्रेष्ठ मार्ग है।।30।।
यद्यपि अत्यन्त बाल्यावस्था से सत्संग आदि नहीं किये जा सकते फिर भी यौवनारम्भ से ही प्रयत्न करना उत्तम है, ऐसा कहते हैं।
चपल बालकों द्वारा की गई क्रीडाओं से अति चंचल बाल्यावस्था के बीत जाने पर गुरुसेव आदि में समर्थ भुजाओं से अलंकृत अवस्था से (यौवनावस्था से) लेकर पद-पदार्थ ज्ञान में निपुण (व्युत्पन्न) पुरुष गुरु, सतीर्थ्य, अपने से अधिक ज्ञाताओं के संग से अपने गुणों का (भक्ति, दया आदि का), दोषों का (राग-द्वेष आदि का) विचार (शान्ति आदि से अन्त में कल्याण होता है और राग आदि से अनर्थ की प्राप्ति होती है, इस प्रकार का पर्यालोचनरूप विचार) करें।।31।। श्रीवाल्मीकि जी ने कहाः महामुनि श्रीवसिष्ठजी के यों कहने पर दिन बीत गया और सूर्य भगवान अस्ताचल के शिखर पर गये। मुनिसभा महामुनि वसिष्ठजी को प्रणाम कर सायं सन्ध्योपासना, अग्निहोत्र आदि करने के लिए स्नानार्थ चली गई और रात्रि बीतने पर सूर्योदय होते-होते श्रीवसिष्ठजी के पास पुनः आ गई()।।32।।
इसकी व्याख्या यों भी है वाल्मीकि जी ने कहा, यह अरिष्टनेमी के प्रति देवदूत की उचित है, वाल्मीकि जी के उक्त प्रकार से भरद्वाज के प्रति कहने पर दिन अस्त हो गया, सूर्य भगवान् अस्ताचल के शिखर चले गये एवं मुनियों की सभा वाल्मीकि जी को नमस्कार कर सायंकालीन सन्ध्योपासना, अग्निहोत्र आदि करने के लिए स्नानार्थ चली गई और रात्रि के बीतने के अनन्तर सूर्योदय होने पर पुनः वाल्मीकि जी के पास आ गई। टीकाकार का कहना है कि यदि इस प्रकार अर्थ न किया जायेगा तो आगे तत्-तत् स्थलों में जो दशरथ सभा के उत्थान का वर्णन, आह्निक कर्मानुष्ठान वर्णन, रात्रि में राम आदि के साथ श्रुत अर्थ के चिन्तन का वर्णन, एवं प्रातः सूर्योदय आदि का वर्णन किया गया है, वह असंगत हो जायेगा।

पाँचवाँ सर्ग समाप्त
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