इक्कीसवाँ सर्ग
प्रत्यक्ष
नरकसमूह सम्पूर्ण अंगोवाली तथा मनुष्यों के नरकपतन की हेतु स्त्रियों की निन्दा।
जिन
स्त्री शरीरों में युवकों को रमणीयता की भ्रान्ति होती है, उनके स्वरूप को
विवेचनपूर्वक दर्शाने के लिए इस सर्ग का आरम्भ करते हैं।
श्रीरामचन्द्रजी
ने कहाः मुनिवर, नस और हड्डियों के ग्रथन से शोभित मांसमयी स्त्री के रथ, गाड़ी
आदि के समान चंचल शरीररूपी पिंजड़े में, जिसे युवक रमणीय-सा समझते हैं, वह कौन
वस्तु है अर्थात् कुछ नहीं है।।1।।
उक्त
अर्थ को ही विस्तार से विशद करते हुए युवकों को जिन नेत्रों में हावभावरूप विलास
की भ्रान्ति होती है, विवेक के होने पर उन नेत्रों की असारता (निन्दनीयता) दिखलाते
हैं।
हे
प्रियजन, त्वचा, मांस, रक्त और अश्रुजल को अलग करके नेत्र को देखो, यदि वह रमणीय
है तो उस पर आसक्ति करो। यदि रमणीय नहीं है, तो क्यों व्यर्थ ही उस पर मोहित होते
हो, अर्थात नेत्र, त्वचा, मांस, रक्त और आँसू इनसे अतिरिक्त वस्तु नहीं है, इन्हीं
के समुदाय का नाम नेत्र है, भला बतलाओ तो, त्वचा आदि में गर्हितता के सिवा रमणीयता
क्या है ?।।2।। स्त्री का शरीर क्या है ? उसका कुछ अंश केश है, कुछ अंश रक्त है और कुछ अंश मांस आदि
हैं, इन सबमें रम्यता कहाँ हैं ? ये सब नितान्त
घृणास्पद और हेय हैं, इस कारण विवेकसम्पन्न प्राज्ञ पुरुष को स्त्री के शरीर से
क्या काम है ? अर्थात् वह उसे निन्दनीय ही समझते हैं,
रमणीयता का लेश भई उसमें नहीं देखते।।3।। हे बन्धुगण, बहुमूल्य वस्त्र और कस्तूरी,
केसर आदि के लेप से (उबटन, तेल आदि के मर्दन से) जो सम्पूर्ण मनुष्यों के शरीर कभी
बार-बार सुशोभित हुए थे, उन्हें समय पाकर गीध, सियार आदि मांसाहारी जीव नोच दबोच
कर खाते हैं। यही उनका अंतिम परिणाम है।।4।। जिस स्तनमण्डल पर सुमेरू पर्वत के
शिखर से बहने वाले गंगाजल के प्रवाह के सदृश मोतियों के हार की शोभा देखी गई थी और
देखी जाती है, वही स्त्रीस्तन समय पाकर शीघ्र श्मशान-भूमि में एवं ग्राम और नगर से
दूर निर्जन स्थानों में भात के छोटे पिण्ड के समान कुत्तों का ग्रास बनता
है।।5,6।। जैसे
वन में चरने वाले ऊँट या गदहे के अंग रक्त, मांस और हड्डियों द्वारा बने हैं, वैसे
ही स्त्री के अंग भी उन्हीं उपकरणों द्वारा बने हैं, फिर उसी के लिए इतना आग्रह
(आदर) क्यों ? अर्थात् गदहे का शरीर जिस सामग्री से
बना है, स्त्री का शरीर भी तुच्छ और घृणित सामग्री से बना है, अतः वह भी उक्त
जीवों के समान ही घृणित है।।7।। केवल अविचार से ही लोगों ने स्त्री में रमणीयता की
कल्पना कर रक्खी है, परन्तु मेरे मत से स्त्रीशरीर में अविचारजनित रमणीयता भी नहीं
है, क्योंकि स्त्री में जो रमणीयता की प्रतीति होती है, उसका कारण एकमात्र मोह है।
सीप में जो चाँदी की कल्पना होती है, वहाँ पर सीपरूप अधिष्ठान और अज्ञान दोनों
रहते हैं, किन्तु यहाँ पर अधिष्ठान का अभाव है, अतएव यह केवल अज्ञानजनित ही
है।।8।। हे मुनीश्वर, मद से अनेक प्रकार का आनन्द देने वाली और पतन, दंगा, फसाद
आदि विविध अनर्थ करानेवाली मदिरा में और काम से विविध आनन्द देने वाली और स्वयं
काम विकार से युक्त स्त्री में क्या अन्तर है ? यह भाव है कि स्त्री काम द्वारा विविध प्रकार के उल्लासों को
देती है, और स्वयं कामविकार से युक्त रहती है और मदिरा मादकशक्ति द्वारा विविध
प्रकार के उल्लासों को देती है और स्वयं जव आदि के विकार से या स्खलन, कलह आदि
विकार से युक्त है, इसलिए दोनों समान हैं, अर्थात् जैसे श्रेय चाहने वाले पुरुष के
लिए मदिरा हेय है, वैसे ही स्त्री भी हेय है।।9।। मुनि जी, ललनारूपी आलान में
(हाथी को बाँधने के स्तम्भ में) मदरूपी मोह से सोये जैसे मनुष्यरूपी हाथी परिपक्व
(अंकुश के पक्ष में कठोर) शमरूपी अंकुश के प्रहारों से विवेक (हाथी के पक्ष में
जागरण) को प्राप्त नहीं होते हैं। अर्थात् जैसे बन्धन-स्तम्भ में मद से सुप्तप्राय
हाथी कठोर अंकुश के प्रहारों से नहीं जागता, वैसे ही स्त्री के समीप मोहवश
सुप्तप्राय मनुष्य तीव्र शम, दम आदि से विवेक को प्राप्त नहीं होते।।10।। जैसे
काजल को धारण करने वाली अग्नि की ज्वाला, दाहक होने के कारण छूने के अयोग्य है और
नेत्रों को प्रिय लगने वाली अग्नि की ज्वाला तिनकों को जला डालती है, वैसे ही केश
और काजल को धारण करने वाली, छूने के अयोग्य, नेत्रों को सुखदायक (मनोहर) पापरूपी
अग्नि की ज्वालारूप स्त्रियाँ मनुष्य को जला डालती हैं।।11।। वासनाओं से पूर्ण
होने के कारण आपाततः सरस मालूम पड़ने वाली लेकिन वास्तव में तो नीरस यहाँ स्थित
स्त्रियाँ अतिदूरवर्तिनी यमपुरी में भीषण रूप से धधक रहीं नरकाग्नियों की उत्तम
लकड़ियाँ हैं।।12।।
स्त्री
लम्बी रात्रि के समान व्यर्थ है। जैसे रात्रि के चारों और व्याप्त अन्धकार ही
केशों का जूड़ा है, चंचल तारे ही नेत्र हैं, पूर्ण चन्द्रबिम्ब ही मुख है, विकसित
पुष्पराशि ही मन्द हास है, श्रृंगार आदि लीला से उसमें पुरुष चंचल रहते हैं, सोये
रहने के कारण धर्म, विवेक, वैराग्य आदि का विनाश होता है और वह लोगों की बुद्धि को
गाढ़ मोह में डालती है, वैसे ही स्त्री के भी चारों और बिखरे हुए अन्धकार के समान
श्याम केशों को जूड़ा रहता है, चंचल कनीनिकाओं से युक्त नेत्र होते हैं, पूर्ण
चन्द्रमा के समान आह्लादक होने से अपनी और आकृष्ट करने वाला मुख रहता है, पुष्पराशि
के समान विशद हास रहता है, श्रृंगारादि की लीला से पुरुष उसमें विशेष रूप से आसक्त
रहते हैं, वह धर्म विवेक, वैराग्य आदि कार्यों की विघातक है और बुद्धि को मोहित
करने में तो वह बेजोड़ है, अतः सचमुच स्त्री लम्बी रात्रि के समान केवल आयु का नाश
करती है, उससे किसी प्रयोजन की सिद्धि नहीं होती।।13,14।।
स्त्री
केवल पुरुषार्थ का ही नाश नहीं करती, किन्तु अनर्थकारिणी भी है, ऐसा कहते हैं।
स्त्री
विष की लता के समान युवावस्था से रसीली (लता के पक्ष में फूलों से मनोहर) हाथरूपी
पत्तों से (कल्लों से) सुशोभित, भ्रमरूपी नेत्रों के हावभाव से पूर्ण, फूलों के
गुच्छे रूपी स्तनों को धारण करने वाली फूलों के केसर के समान गौर वर्णवाली
मनुष्यों की हत्या के सदृश अधःपतन में तत्पर और कामोन्माद से अपना सेवन करने वाले
लोगों को मूर्छा, मरण आदि विवशता को प्राप्त कराती है। आशय यह है कि जैसे विष की
लता फूलों से मनोहर लगती है, नये नये लाल पत्तों से सुशोभित रहती है, भँवरों से
व्याप्त रहती है, फूलों के गुच्छों को धारण करती है, फूलों के केसर से पीतवर्ण हो
जाती है, मनुष्यों को मार डालती है और जो लोग कामजनित उन्माद से उसका सेवन करते
हैं उन्हें मूर्छा, मृत्यु के वश में कर देती है, वैसे ही स्त्री भी युवावस्था से
रसीली, सुन्दर हाथों से सुशोभित, भँवर की भाँति चंचल नयनों के कटाक्ष आदि से
सम्पन्न, गुच्छों के समान मनोज्ञ स्तनों को धारण करने वाली, फूलों के केसर के समान
कांचनवर्णा, मनुष्यों के विनाश के लिए तत्पर है और स्वसेवियों को मूर्छा, मृत्यु
आदि के वश में कर देती है। जैसे टुकड़े-टुकड़े करने की इच्छावाली रीछन (भालू की
स्त्री) अपनी साँस से बिल में स्थित साँप को बिल से निकाल कर खा जाती है, वैसे ही
लम्पट लोगों का धन और मन हरकर विनाश करने के लिए उत्कण्ठित स्त्री दिखावे के लिए
किये गये मिथ्याभूत सत्कार द्वारा आश्वासन देकर मनुष्य को अपने वश में कर लेती
है।।15-17।। हे मुनिश्रेष्ठ, कामरूपी व्याध ने मूढ़बुद्धि मनुष्यरूपी पक्षियों को
फँसाने के लिए स्त्रीरूपी जाल रक्खे हैं, अर्थात् जैसे व्याध दाना चरने के लिये
लालायित पक्षियों को फँसाने के लिए जाल बिछाते हैं, वैसे ही कामदेव ने मूढमति
(सांसारिक असत् विषयों को सच समझने वाले) लोगों को फँसाने के लिए स्त्रियाँ, जाल
की नाईं, इधर उधर बिखेर रक्खी हैं।।18।। स्त्रीरूपी विशाल आलान में (हाथी को
बाँधने के खूँटे में) रतिरूपी (प्रेमरूपी) जंजीर से बँधा हुआ मन रूपी मदोन्मत हाथी
गूँगे के समान चुपचाप बैठा रहता है, अर्थात् असमर्थ होने के कारण अपने छुटकारे के
लिए किसी उपाय का अवलम्बन नहीं कर सकता।।19।। दुष्ट वासनारूपी रस्सी से बँधी हुई स्त्री धनरूपी कीचड़ में विचरने
वाले संसाररूपी छोटे तालाब के मछलीरूपी पुरुषों को फँसाने के लिए बंशी में
(मछलियों का पकड़ने का काँटे में) लगी हुई आटे की गोली है। अर्थात् जैसे मछुवे की
बंसी में लगी गोली कीचड़ में इधर उधर चलने वाली छोटे बरसाती तालाब की मछलियों को
बन्धन में डालकर नष्ट कर देती है।।20।। जैसे घोड़ों के लिए अश्वशाला बन्धन है,
हाथियों के लिए आलान बन्धन है और साँपों के लिए मंत्र बन्धन है, वैसे ही पुरुषों
के लिए नारी बन्धन है।।21।। हे मुनिवर, विविध रसों से पूर्ण भोग की भूमि यह
विचित्र पृथिवी स्त्रियों के ही सहारे दृढ़ स्थिति को प्राप्त हुई है, इस संसार की
हेतु स्त्री ही है, यदि स्त्री न होती, तो संसार कभी का विलीन हो गया होता।।22।।
दुःख रूपी जंजीर से युक्त सम्पूर्ण दोषरूपी रत्नों की पेटी (सन्दूक) रूप स्त्री से
मुझे कुछ भी प्रयोजन नहीं है। स्त्री के मांसमय स्तन, नेत्र, नितम्ब (कमर का पिछला
उभरा हुआ भाग) और भौंह में मैं क्या करूँ ? वे सब अतितुच्छ हैं,
केवल मांस जैसी घृणित वस्तु से बने हैं।।24।। ब्रह्मन, स्त्री के किसी भाग में
मांस की अधिकता है, किसी भाग में खून अधिक है और कहीं पर हड्डियाँ प्रचुर मात्रा
है, ऐसे घृणित उपादानों से उसका निर्माण हुआ है, वह भी चिरकाल तक रहे सो बात नहीं
है, किन्तु थोड़े ही दिनों में वह जीर्ण-शीर्ण हो जाती है। पूज्यवर जिन्हें
अदूरदर्शी पुरुषों ने बड़े लाड़-प्यार से पाला-पोसा वे प्रियतमाएँ समय पाकर श्मशान
में छिन्न भिन्न होकर सोती हैं, अर्थात् कहीं उनका सिर पड़ा है, तो कहीं हाथ पड़े
हैं, कहीं पैर पड़े हैं और कहीं दूसरे अंग।।25,26।। ब्रह्मन्, प्रिया के जिस मुख
में प्रियतम पति ने बड़े प्रेम से कपूर, कस्तूरी, गोरोचन, केसर, चन्दन आदि से
भाँति-भाँति के तिलक आदि बनाये थे, वही मुख थोड़े दिनों में निर्जन वन में सूखता
है।।27।। उनके सिर के बार राख से घूसर होने के कारण श्मशान के वृक्षों में चँवर
जैसे मालूम पड़ते हैं और उनकी मांस और रक्त से शून्य सफेद हड्डियाँ पृथिवी में
तारों के समान चमचमाती मालूम होती है।।28।। उनके शरीर के रक्त को धूलि सुखाती है
और मांसाहारी जीव भी झुण्ड के झुण्ड उनपर टूटते हैं, उनके चाम को सियार नोच-नोचकर
खाते हैं और उनका प्राणवायु आकाश में चला जाता है।।29।। हे संसारस्थित लोगों,
स्त्री के अंगों का थोड़े ही काल में होने वाला यह परिणाम मैंने आप लोगों से कहा,
उसमें आप लोग क्यों मोह रहे हैं ? ऐसे नाशवान स्त्री
के शरीर की सुन्दरता और सत्यता का भ्रम निर्मूल है।।30।। स्त्री क्या है ? पांच भूतों के समुदाय से बना हुआ अंगों का संगठन ही स्त्री
है। तनिक भी विवेक-बुद्धिवाला पुरुष राग का वशवर्ती होकर उस पर कैसे आसक्त हो सकता
है, अर्थात् जो अज्ञानी है, वे भले ही उसे सत् या उपादेय समझें पर ज्ञानी उसको
कैसे उपादेय समझेगा ?।।31।। जैसे शाखा-प्रशाखा से जटिल बहुत
से कड़वे (कच्चे) और खट्टे (सूखे) फलों से
लदी हुई सुताला लता (एक प्रकार की जंगली लता) बड़ी ऊँचाई तक फैलती है, वैसे ही
मनुष्यों की कान्तानुसारिणी (स्त्री के कारण होने वाली) चिन्ता अनेक खट्टे (कुछ
सुख से मिश्रित ऐहिक दुःख फलों से पूर्ण होती हुई बहुत बड़े विस्तार को प्राप्त
होती है। जैसे अपने यूथ से बिछुड़ा हुआ हाथी मोह को प्राप्त होता है। (किंकर्तव्य
विमूढ़ हो जाता है), वैसे ही उक्त चिन्ता से व्याकुल अतएव उत्कट धनाभिलाषा से अन्ध
कहाँ जाऊँ, कहाँ घन मिलेगा, यों चिन्ताग्रस्त होकर मनुष्य अत्यन्त मोह को प्राप्त
होता है। जैसे हथिनी को चाहने वाला (हस्तिनी पर आसक्त) हाथी विन्ध्याचल के गड्ढे
में (हाथियों को पकड़ने के लिए बनाये गये गड्ढे में) बाँधा जाता है, वैसे ही
स्त्रीलम्पट पुरुष वध, बन्धनरूप बड़ी शोचनीय अवस्था को प्राप्त होता है।।32-34।।
जिसकी स्त्री है, उसको भोग की इच्छा होती है, जिसकी स्त्री नहीं है, उसे भोग की
संभावना ही कहाँ है, स्त्री का यदि त्याग कर दिया तो जगत का त्याग कर दिया, जगत का
त्याग करके सुखी होवे।।35।। ब्रह्मन, आपाततः (विचार के बिना) भले प्रतीत होने
वाले, भँवरे के पंखों की जड़ के समान चंचल और जिनसे मुक्त होना बड़ा कठिन है, ऐसे
भोगों की, जन्म, मरण बुढ़ापा आदि के भय से, मुझे तनिक भी इच्छा नहीं है, मैं इनसे
विरत होता हूँ और ऐसा प्रयत्न करूँगा जिससे कि मुझे परम पद प्राप्त हो जाये।।36।।
इक्कीसवाँ सर्ग समाप्त
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