वैराग्य प्रकरण
बारहवाँ सर्ग
भोगों की दुःखरूपता, विषय आदि की
असत्यता तथा सम्पत्ति की अनर्थहेतुता का वर्णन।
वाल्मीकि जी ने कहाः हे भरद्वाज, मुनिन्द्र विश्वामित्रजी के
यों पूछने पर रामचन्द्रजी धैर्य धारण कर उत्तम अर्थ से परिपूर्ण सुन्दर, वचन
बोले।।1।। रामजी
ने कहाः भगवन् यद्यपि मैं अज्ञानी हूँ, तथापि इस समय आपके पूछने पर मैं सब कुछ
कहूँगा, क्योंकि सत्पुरुषों के वचनों का कौन उल्लंघन कर सकता है ?।।2।।
यों अपनी विनीत वाणी से मुनि को अपने वश में करके रामचन्द्रजी
अपने वृत्तान्त के अनुवाद के बहाने से धर्मानुष्ठानजनित चित्त की शुद्धि से विवेक
और वैराग्य होने पर मुझमें विचार का उदय हुआ, ऐसा कहते हैं।
मैं यहाँ अपने पिताजी के घर में उत्पन्न हुआ, क्रम से बढ़ा और
विद्या भी प्राप्त की। उसके बाद के मुनिनायक, सत् आचरणों के अनुष्ठान में तत्पर
होकर तीर्थयात्रा के लिए समुद्रपर्यन्त पृथ्वी के चारों ओर विचरा।।3,4।। इस बीच
में संसार पर आस्था को हरने वाला यह विचार मेरे मन में उत्पन्न हुआ, जिसे मैं आपके
सामने उपस्थित करता हूँ।।5।। तीर्थयात्रा करने के अनन्तर मेरा मन उक्त विवेक से
पूर्ण हो गया। उससे सब विषय परिणाम में नीरस हैं, ऐसी बुद्धि हुई और उस बुद्धि से
मैंने विचार किया कि यह जो संसार का प्रवाह है, यह क्या सुख का हेतु हो सकता है ? अर्थात् इस विस्तृत संसार से कभी सुख
नहीं मिल सकता, क्योंकि इसमें जो जीव उत्पन्न होते हैं, वे मरने के लिए ही उत्पन्न
होते हैं और जो मरते हैं वे जन्म के लिए ही मरते हैं, उनको कुछ भी सुख नहीं
मिलता।।6,7।।
(शास्त्रकारों ने भी 'मृतिबीजं
जन्म बीजं भवेन्मृतिः' यानि मरण में जन्म कारण है और जन्म में
मरण कारण है, ऐसा कहा है।)
इस विषय में यदि शंका हो कि भले ही जन्म और मरण दुःखरूप हैं,
परन्तु उनके बीच में जीवनदशा में सुख मिलता ही है, तो इस पर कहते हैं।
चर और अचरों की चेष्टाओं से युक्त वैभवकाल में रहने वाले ये
जितने भोग के साधन पदार्थ हैं, ये सबके-सब अस्थिर यानि क्षणिक हैं, ये आपत्तियों
के ही स्वामी यानि मूल हैं और पाप के हेतु हैं पाप स्वरूप हैं।।8।।
(तात्पर्यार्थ यह है कि इस जगत में दो प्रकार के प्राणी होते
हैं एक चर यानि चलने फिरने वाले और दूसरे अचर यानि जो चल फिर नहीं सकते –
वृक्षादि। उनमें फिर चलने फिरने वालों की भोग में प्रवृत्ति ही अपनी प्रवृत्ति और
निवृत्ति से प्राप्त साधनों द्वारा प्राप्त होती है। और अचरों की भोग में
प्रवृत्ति दैव (प्रारब्ध) से प्राप्त साधनों द्वारा होती है। इस भोगवृत्तिरूप
चेष्टा से युक्त होने पर भी स्त्रक (पुष्पमाला), चन्दन, अन्न, पान आदि जितने विषय
हैं, वे सब शाश्वत सुख नहीं दे सकते, क्योंकि वे खुद ही अस्थिर हैं, अर्थात् जिस समय उनकी प्राप्ति
होगी, उस समय सुख देते हैं और जिस समय उनसे वियोग होता है, उस समय दुःख देते हैं,
इसलिए उनसे एक प्रकार के सुख की आशा ही नहीं की जा सकती, अधिक क्या कहें, ये विषय
आपत्तियों के स्वामी हैं अर्थात् राग-द्वेष आदि बड़ी-बड़ी आपत्तियाँ उन्हीं से
प्राप्त होती हैं और शास्त्रों में जो निषिद्ध विषय हैं, वे तो स्वयं पापरूप ही
हैं, अतः इन अस्थिर विषयों से सुख की अभिलाषा करना सर्वथा मूर्खता ही है।)
लोहे की शलाकाओं के समान ये विषय परस्पर एक दूसरे से मिले जुले
नहीं हैं, किन्तु केवल मन की कल्पना से उनका सम्बन्ध जबर्दस्ती माना जाता है
अर्थात् यह मेरे उपभोग का साधन है, इससे मैं यह काम करूँगा, इस प्रकार की मन की
कल्पना से उन विषयों का परस्पर क्रिया-कारणभाव से सम्बन्ध माना जाता है, इसलिए
लोगों को सुखकारकरूप से उनका जो भान होता है, वह केवल अज्ञानमूलक मन से कल्पित ही
है, इसलिए विषय दुःखरूप ही हैं, सुखरूप नहीं हैं।।9।।
केवल विषयों का सम्बन्ध ही मन के द्वारा कल्पित नहीं है,
किन्तु जीव के जन्म आदि भी मन के द्वारा ही कल्पित हैं, इसलिए दृश्यमान सम्पूर्ण
जगत मन से कल्पित ही हैं, यह कहते हैं।
कृत्रिम वेष के समान दीखने वाला यह सारा जगत् मन की
कल्पनामात्र है और वह मन भी विवेकज्ञान होने पर शून्य-सा ही प्रतीत होता है, अतः
मन से भी हम सुख की आशा नहीं कर सकते, फिर हम लोगों को इतने समय तक 'सुख होगा' इस प्रकार मोह में किसने डाल रक्खा है ?।।10।। जैसे मरीचिका को जल समझकर मुग्ध
मृग वन में बड़ी दूर तक इधर-उधर भटकते रहते हैं, फिर भी कुछ नहीं मिलता, वैसे ही
मूढ़बुद्धि हम लोग इस संसार में असत् पदार्थों को सुख के साधन समझकर इधर-उधर खूब
भटकते रहते है, पर हाथ कुछ नहीं लगता। यद्यपि हम लोग किसी के द्वारा बेचे नहीं गये
हैं, तथापि बेचे गये प्राणियों के समान परवश होकर बैठे हुए हैं, अत्यन्त खेद है कि
माया को जानते हुए भी हम मूढ़ ही हैं, क्योंकि उसकी कुछ चिन्ता नहीं करते।।11,12।।
इस संसाररूप प्रपंच में ये जो अभागे भोग हैं, वे कौन चीज हैं कि हम लोग उनके
व्यर्थ मोह से या भ्रान्ति से बद्ध होकर अवस्थित हैं ?।।13।। जैसे अरण्य में किसी गड्ढे में गिरे
हुए मूढ़ मृग बहुत काल के बाद यह जाना कि हम व्यर्थ मोह में गिरे हुए हैं।।14।।
मुझे राज्य से क्या? इन भोगों से क्या? मैं कौन हूँ और किसलिए आया हूँ? जो मिथ्या है, वह मिथ्या ही रहे,
क्योंकि उसके मिथ्या होने से किसका क्या बिगड़नेवाला है ?।।15।। हे ब्रह्मन्, जैसे यत्रतत्र
भ्रमण करने वाले पथिक की मरुभूमि से आस्था हट जाती है, वैसे ही मेरे इन सब विचारों
से सभी भोग-साधन पदार्थों से मेरा चित्त हट गया है। इसलिए भगवन्, आप यह बतलाइये कि
यह दिखने वाला जगत सर्वात्मना नष्ट अर्थात् असत् इसलिए हो जाता है कि सत् और असत्
का विरोध है ? यदि जगत् असत् है, तो फिर कभी सत् होता
है ? उसकी क्या वृद्धि होती है? क्या जरा, मरण, आपत्ति, जन्म और
सम्पत्ति ये सब आविर्भाव और तिरोभाव से पुनः पुनः बढ़ते रहते हैं ? मुनिवर ! देखिये, हम लोग उन तुच्छ भोगों से ऐसे
जर्जर हो गये हैं, जैसे की पर्वत के ऊपर के वृक्ष आँधी से जर्जर हो जाते हैं। जो
बुद्धिमान लोग हैं, वे भी कुछ नहीं कर रहे हैं, इसलिए विवेकी और अविवेकी सभी
प्राणी जैसे अचेतन बाँस की वेणु पवन के द्वारा शब्द करती है, वैसे प्राण नामक वायु
से प्रेरित होकर व्यर्थ ही शब्द करते है, उनसे कुछ भी नहीं होता। जैसे पुराना
वृक्ष अपने खोखले में रहने वाली उग्र अग्नि से जल जाता है, वैसे ही मुनिश्रेष्ठ
मेरा इस दुःख से छुटकारा कैसे होगा, ऐसी चिन्तारूप अग्नि से मैं सदा जलता रहता
हूँ।।16-21।। संसार के विविध दुःखरूप पाषाण से मेरा अन्तःकरण जर्जर हो गया है, मैं
अपने मित्रों और लोक से डरकर अश्रुपूर्ण नेत्रों से नहीं रो रहा हूँ, क्योंकि यदि मैं रोना आरम्भ
करूँ तो वे भी रोने लगेंगे।।22।। अश्रुरहित शुष्क रोदन से प्रीतिशून्य अतएव
हर्षादिशून्य मेरे मुख के कृत्रिम स्मित, अभिलाप आदि वृत्तियों को एकान्त में मेरा
अन्तःकरणस्थ विवेक ही देखता है।।23।। जैसे कोई पूर्व अवस्था में अनेक प्रकार की
सम्पत्तियों से सम्पन्न भाग्यवान पुरुष दैव से आई हुई दरिद्रावस्था में अपनी
पूर्वीय समृद्धि का स्मरण कर मुग्ध होता है। वैसे ही मैं भी प्रियतम विषयों की
विनाशप्राय अवस्था का या सब प्रकार के दुःखों के उपशमरूप परमानन्द के अज्ञान की
विकारभूत अवस्था का विचार कर इस सांसारिक चेष्टा से अत्यन्त मुग्ध हो रहा
हूँ।।24।। वंचना से भरपूर यह लक्ष्मी अन्तःकरण की वृत्तियों को मुग्ध करती है,
गुणों को नष्ट करती है और अनेक तरह के दुःखों को देती है।।25।। धनियों को चिन्तारूप
धार से खण्डशः काटने के लिए प्रवृत्त चक्ररूपी से विविध धन मुझे आनन्द नहीं देते
और स्त्री, पुत्रादि परिवार से परिपूर्ण घर उग्र आपत्तियों के घरों के समान मुझे
आनन्द नहीं दे रहे हैं।।26।। जैसे भंगुर काष्ठ आदि से आच्छादित छोटे गर्त में
गिरने के कारण प्राप्त क्षुधा, पिपासा आदि दोषों के और गिरना, बाँधा जाना आदि
दुर्दशाओं के विचार से बन्धन में पड़े हुए हाथी को सुख नहीं होता, वैसे ही देह आदि
पदार्थों के भंगुरत्वरूप हेतु से जनित अनेक प्रकार के दोषों और दुर्दशाओं का
स्मरणकर मुझे सुख नहीं होता।।27।। अज्ञानरूपी रात्रि में अविचाररूपी निविड़ कुहरे
से लोगों की ज्ञानरूपी ज्योति के नष्ट होने पर दूसरों को दुःख देने वाले बड़े चतुर
सैंकड़ों विषयरूपी चोर सदा चारों ओर विवेकरूपी मुख्य रत्न को चुराने के लिए जीजान
से लगे हुए हैं। युद्ध में उन्हें विनष्ट करने के लिए विद्वानों को
(तत्त्वज्ञानियों को) छोड़कर कौन से योद्धा समर्थ हो सकते है? तत्त्वज्ञानी ही उनका विनाश करने में
समर्थ हैं, दूसरे नहीं, क्योंकि तम (अज्ञान और अन्धकार) का विनाश हुए बिना उनका वध
होना असंभव है, यह भाव है।।28।।
बारहवाँ सर्ग समाप्त
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें