अन्य
देवी देवताओं
की पूजा के
बाद भी किसी
की पूजा करना
शेष रह जाता
है लेकिन
सच्चे
ब्रह्मनिष्ठ
सदगुरू की
पूजा के बाद
और किसी की
पूजा करना शेष
नहीं रहता।
गुरू वे हैं
जो शिष्य को सदा
के लिए शिष्य
न रखे, शिष्य
को संसार में
डूबने वाला न
रखें, शिष्य
को जन्मने और
मरने वाले न
रखें। शिष्य
को जीव में से
ब्रह्म बनाने
का मौका खोजते
हों वे गुरू
हैं, वे परम गुरू
हैं, वे
सदगुरू हैं।
सच्चे गुरू
शिष्य को शिष्यत्व
से हटाकर,
जीवत्व से
हटाकर,
ब्रह्मत्व
में आराम और
चैन दिलाने के
लिए, ब्रह्मरस
की परम तृप्ति
और परमानन्द
की प्राप्ति
कराने की ताक
में रहते हैं।
ऐसे गुरू की
आज्ञा को
स्वीकार कर जो
चल पड़े वह
सच्चा शिष्य
है।
दुनियाँ
के सब
धर्मग्रन्थ,
संप्रदाय,
मजहब रसातल
में चले जायें
फिर भी पृथ्वी
पर एक सदगुरू
और एक
सत्शिष्य हैं
तो धर्म फिर
से प्रकट होगा,
शास्त्र फिर
से बन जाएंगे,
क्योंकि
सदगुरू शिष्य
को अमृत-उपदेश
दिये बिना
नहीं रहेंगे।
और वही
अमृत-उपदेश
शास्त्र बन
जायेगा। जब तक
पृथ्वी पर एक
भी
ब्रह्मवेत्ता
सदगुरू हैं और
उनको ठीक से
स्वीकार करने
वाला सत्शिष्य
है तब तक
धर्मग्रन्थों
का प्रारंभ
फिर से हो
सकता है। मानव
जाति को जब तक
ज्ञान की पिपासा
रहेगी तब तक
ऐसे सदगुरूओं
का आदर-पूजन
बना रहेगा।
प्राचीन
काल में उन
महापुरूषों
को इतना आदर मिलता
था किः
गुरू
गोविन्द
दोनों खड़े
किसको लागूं
पाय।
बलिहारी
गुरूदेव की
गोविन्द दियो
दिखाय।।
वे लोग
अपने हृदय में
गोविन्द से भी
बढ़कर स्थान
अपने गुरू को
देते थे।
गोविन्द ने
जीव करके पैदा
किया लेकिन
गुरू ने जीव
में से ब्रह्म
करके सदा के
लिए मुक्त कर
दिया। माँ-बाप
देह में जन्म
देते हैं
लेकिन गुरू उस
देह में रहे
हुए विदेही का
साक्षात्कार
कराके
परब्रह्म
परमात्मा में
प्रतिष्ठित
कराते हैं,
अपने आत्मा की
जागृति कराते
हैं।
न्यायाधीश
न्याय की
कुर्सी पर
बैठकर, न्याय
तो कर सकता है
लेकिन
न्यायालय की
तौहीन नहीं कर
सकता, उससे
न्यायालय का
अपमान नहीं
किया जाता। उस
ऋषिपद का,
गुरूपद का
उपयोग करके हम
संसारी जाल से
निकलकर
परमात्म-प्राप्ति
कर सकते हैं।
ईश्वर अपना
अपमान सह लेते
हैं लेकिन गुरू
का अपमान नहीं
सहता ।
देवर्षि
नारद ने
वैकुण्ठ में
प्रवेश किया।
भगवान विष्णु
और लक्ष्मी जी
उनका खूब आदर
करने लगे।
आदिनारायण ने
नारदजी का हाथ
पकड़ा और आराम
करने को कहा।
एक तरफ भगवान
विष्णु नारद
जी की चम्पी
कर रहे हैं और
दूसरी तरफ
लक्ष्मी जी
पंखा हाँक रही
हैं। नारद जी
कहते हैं- "भगवान
!
अब छोड़ो। यह
लीला किस बात
की है ? नाथ ! यह
क्या राज
समझाने की
युक्ति है ? आप
मेरी चम्पी कर
रहे हैं और
माता जी पंखा
हाँक रही हैं ?"
"नारद
!
तू गुरूओं के
लोक से आया
है। यमपुरी
में पाप भोगे
जाते हैं,
वैकुण्ठ में
पुण्यों का फल
भोगा जाता है
लेकिन
मृत्युलोक
में सदगुरू की
प्राप्ति
होती है और
जीव सदा के
लिए मुक्त हो
जाता है।
मालूम होता
है, तू किसी
गुरू की शरण
ग्रहण करके
आया है।"
नारदजी
को अपनी भूल
महसूस कराने
के लिए भगवान ये
सब चेष्टाएँ
कर रहे थे।
नारद जी
ने कहाः "प्रभु
!
मैं भक्त हूँ
लेकिन निगुरा
हूँ। गुरू
क्या देते हैं
?
गुरू का
माहात्म्य
क्या होता है
यह बताने की कृपा
करो भगवान !"
"गुरू
क्या देते
हैं..... गुरु का
माहात्म्य
क्या होता है
यह जानना हो
तो गुरूओं के
पास जाओ। यह वैकुण्ठ
है, खबरदार....."
जैसे
पुलिस
अपराधियों को
पकड़ती है,
न्यायाधीश
उन्हें नहीं
पकड़ पाते,
ऐसे ही वे
गुरूलोग
हमारे दिल से
अपराधियों को,
काम-क्रोध-लोभ-मोहादि
विकारों को
निकाल निकाल
कर निर्विकार
चैतन्य
स्वरूप
परमात्मा की
प्राप्ति में
सहयोग देते
हैं और शिष्य
जब तक गुरूपद
को प्राप्त
नहीं होता है
तब तक उस पर
निगरानी रखते
रखते जीव को
ब्रह्मयात्रा
कराते रहते
हैं।
"नारद
!
जा, तू किसी
गुरू की शरण
ले। बाद में
इधर आ।"
देवर्षि
नारद गुरू की
खोज करने
मृत्युलोक में
आये। सोचा कि
मुझे
प्रभातकाल
में जो सर्वप्रथम
मिलेगा उसको
मैं गुरू
मानूँगा।
प्रातःकाल
में सरिता के
तीर पर गये।
देखा तो एक
आदमी शायद
स्नान करके आ
रहा है। हाथ
में जलती
अगरबत्ती है।
नारद जी ने मन
ही मन उसको
गुरू मान
लिया। नजदीक
पहुँचे तो पता
चला कि वह
माछीमार है,
हिंसक है।
(हालाँकि
आदिनारायण ही
वह रूप लेकर
आये थे।)
नारदजी ने
अपना संकल्प
बता दिया किः "हे
मल्लाह !
मैंने तुमको
गुरू मान लिया
है।"
मल्लाह
ने कहाः "गुरू
का मतलब क्या
होता है ? हम
नहीं जानते
गुरू क्या
होता है ?"
"गु
माने
अन्धकार। रू
माने प्रकाश।
जो अज्ञानरूपी
अन्धकार को
हटाकर
ज्ञानरूपी
प्रकाश कर दें
उन्हें गुरू
कहा जाता है।
आप मेरे
आन्तरिक जीवन
के गुरू हैं।"
नारदजी ने पैर
पकड़ लिये।
"छोड़ो
मुझे !"
मल्लाह बोला।
"आप
मुझे शिष्य के
रूप में
स्वीकार कर लो
गुरूदेव!"
मल्लाह
ने जान
छुड़ाने के
लिए कहाः "अच्छा,
स्वीकार है,
जा।"
नारदजी
आये वैकुण्ठ
में। भगवान ने
कहाः
"नारद
!
अब निगुरा तो
नहीं है ?"
"नहीं
भगवान ! मैं
गुरू करके आया
हूँ।"
"कैसे
हैं तेरे गुरू
?"
"जरा
धोखा खा गया
मैं। वह
कमबख्त
मल्लाह मिल
गया। अब क्या
करें ? आपकी
आज्ञा मानी।
उसी को गुरू
बना लिया।"
भगवान
नाराज हो गयेः
"तूने
गुरू शब्द का
अपमान किया
है।"
न्यायाधीश
न्यायालय में
कुर्सी पर तो
बैठ सकता है,
न्यायालय का
उपयोग कर सकता
है लेकिन न्यायालय
का अपमान तो न्यायाधीश
भी नहीं कर
सकता। सरकार
भी न्यायालय
का अपमान नहीं
करती।
भगवान
बोलेः "तूने
गुरूपद का
अपमान किया
है। जा, तुझे
चौरासी लाख
जन्मों तक
माता के
गर्भों में
नर्क भोगना
पड़ेगा।"
नारद
रोये,
छटपटाये।
भगवान ने कहाः
"इसका
इलाज यहाँ
नहीं है। यह
तो पुण्यों का
फल भोगने की
जगह है। नर्क
पाप का फल
भोगने की जगह
है। कर्मों से
छूटने की जगह
तो वहीं है।
तू जा उन
गुरूओं के पास
मृत्युलोक
में।"
नारद
आये। उस
मल्लाह के पैर
पकड़ेः "गुरूदेव
!
उपाय बताओ।
चौरासी के
चक्कर से
छूटने का उपाय
बताओ।"
गुरूजी
ने पूरी बात
जान ली और कुछ
संकेत दिये।
नारद फिर
वैकुण्ठ में
पहुँचे।
भगवान को कहाः
"मैं
चौरासी लाख
योनियाँ तो
भोग लूँगा
लेकिन कृपा
करके उसका
नक्शा तो बना
दो ! जरा दिखा
तो दो नाथ !
कैसी होती है
चौरासी ?
भगवान
ने नक्शा बना
दिया। नारद
उसी नक्शे में
लोटने-पोटने
लगे।
"अरे
!
यह क्या करते
हो नारद ?"
"भगवान
!
वह चौरासी भी
आपकी बनाई हुई
है और यह
चौरासी भी
आपकी ही बनायी
हुई है। मैं
इसी में चक्कर
लगाकर अपनी
चौरासी पूरी
कर रहा हूँ।"
भगवान
ने कहाः "महापुरूषों
के नुस्खे भी
लाजवाब होते
हैं। यह
युक्ति भी
तुझे उन्हीं
से मिली नारद !
महापुरूषों
के नुस्खे लेकर
जीव अपने
अतृप्त हृदय
में तृप्ति
पाता है। अशान्त
हृदय में
परमात्म
शान्ति पाता
है। अज्ञान
तिमिर से घेरे
हुए हृदय में
आत्मज्ञान का प्रकाश
पाता है।"
जिन-जिन
महापुरूषों
के जीवन
गुरूओं का
प्रसाद आ गया
है वे ऊँचे
अनुभव को,
ऊँची शान्ति
को प्राप्त
हुए हैं।
हमारी क्या
शक्ति है कि
उन
महापुरूषों
का, गुरूओं का
बयान करे ? वे
तत्त्ववेत्ता
पुरूष, वे
ज्ञानवान
पुरूष जिसके
जीवन में
निहार लेते
हैं, ज्ञानी
संत जिसके
जीवन में
जरा-सी मीठी
नजर डाल देते
हैं उसका जीवन
मधुरता के
रास्ते चल
पड़ता है।
ऐसे परम
पुरूषों की हम
क्या महिमा
गायें ?
जिन्होंने
जितना सुना,
जितना जाना,
जितना वह कह
सके उतना कहा
लेकिन उन
ज्ञानवान
पुरूषों की
महिमा का पूरा
गान कोई नहीं
कर सका। लोग
गाते थे, गा
रहे हैं और
गाते ही
रहेंगे।
श्रीकृष्ण और
श्रीरामचन्द्रजी
अपने गुरूओं
के द्वार पर
जाकर
ब्रह्मविद्या
का पान करते
थे।
व्यासपुत्र
शुकदेवजी ने
जनक से ज्ञान
पाया। जनक ने
अष्टावक्र से
पाया।.......
****} आश्रम से प्रकाशित पुस्तक "व्यास पूर्णिमा" से लिया गया सत्संग {****
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