मासिक साधना उपयोगी तिथियाँ

व्रत त्योहार और महत्वपूर्ण तिथियाँ

25 फरवरी - माघी पूर्णिमा
03 मार्च - रविवारी सप्तमी (शाम 06:19 से 04 मार्च सूर्योदय तक )
06 मार्च -
व्यतिपात योग (दोपहर 14:58 से 07 मार्च दिन 12:02 मिनट तक)
08 मार्च - विजया एकादशी (यह त्रि स्पृशा एकादशी है )
09 मार्च - शनि प्रदोष व्रत
10 मार्च - महा शिवरात्री (निशीथ काल मध्यरात्री 12:24 से 01:13 तक )
11 मार्च - सोमवती अमावस्या (
सूर्योदय से रात्री 1:23 तक )
11 मार्च - द्वापर युगादी तिथि
14 मार्च - षडशीति संक्रांति (पुण्यकाल शाम 4:58 से
सूर्योदय तक)
19 मार्च - होलाष्टक प्रारम्भ
20 मार्च - बुधवारी अष्टमी (
सूर्योदय से दोपहर 12:12 तक)
23 मार्च - आमलकी एकादशी
24 मार्च - प्रदोष व्रत
26 मार्च - होलिका दहन
27 मार्च - धुलेंडी , चैतन्य महाप्रभु जयंती
29 मार्च - संत तुकाराम द्वितीय
30 मार्च - छत्रपति शिवाजी जयन्ती

मंगलवार, 18 अक्तूबर 2011

अहं...


परमात्मा हृदय में ही विराजमान है। लेकिन अहंकार बर्फ की सतह की तरह आवरण बनकर खड़ा है। इस आवरण का भंग होते ही पता चलता है कि मैं और परमात्मा कभी दो न थे, कभी अलग न थे।
वेदान्त सुनकर यदि जप, तप, पाठ, पूजा, कीर्तन, ध्यान को व्यर्थ मानते हो और लोभ, क्रोध, राग, द्वेष, मोहादि विकारों को व्यर्थ मानकर निर्विकार नहीं बनते हो तो सावधान हो जाओ। तुम एक भयंकर आत्मवंचना में फँसे हो। तुम्हारे उस तथाकथित ब्रह्मज्ञान से तुम्हारा क्षुद्र अहं ही पुष्ट होकर मजबूत बनेगा।
आप किसी जीवित आत्मज्ञानी संत के पास जायें तो यह आशा मत रखना कि वे आपके अहंकार को पोषण देंगे। वे तो आपके अहंकार पर ही कुठाराघात करेंगे। क्योंकि आपके और परमात्मा के बीच यह अहंकार ही तो बाधा है।
अपने सदगुरु की कृपा से ध्यान में उतरकर अपने झूठे अहंकार को मिटा दो तो उसकी जगह पर ईश्वर आ बैठेगा। आ बैठेगा क्या, वहाँ ईश्वर था ही। तुम्हारा अहंकार मिटा तो वह प्रगट हो गया। फिर तुम्हें न मन्दिर जाने की आवश्यकता, न मस्जिद जाने की, न गुरुद्वारा जाने की और न ही चर्च जाने की आवश्यकता, क्योंकि जिसके लिए तुम वहाँ जाते थे वह तुम्हारे भीतर ही प्रकट हो गया।
निर्दोष और सरल व्यक्ति सत्य का पैगाम जल्दी सुन लेता है लेकिन अपने को चतुर मानने वाला व्यक्ति उस पैगाम को जल्दी नहीं सुनता।
मनुष्य के सब प्रयास केवल रोटी, पानी, वस्त्र, निवास के लिए ही नहीं होते, अहं के पोषण के लिए भी होते हैं। विश्व में जो नरसंहार और बड़े बड़े युद्ध हुए हैं वे दाल-रोटी के लिए नहीं हुए, केवल अहं के रक्षण के लिए हुए हैं।
जब तक दुःख होता है तब तक समझ लो कि किसी-न-किसी प्रकार की अहं की पकड़ है। प्रकृति में घटने वाली घटनाओं में यदि तुम्हारी पूर्ण सम्मति नहीं होगी तो वे घटनाएँ तुम्हें परेशान कर देंगी। ईश्वर की हाँ में हाँ नहीं मिलाओ तब तक अवश्य परेशान होगे। अहं की धारणा को चोट लगेगी। दुःख और संघर्ष आयेंगे ही।
अहं कोई मौलिक चीज नहीं है। भ्रान्ति से अहं खड़ा हो गया है। जन्मों और सदियों का अभ्यास हो गया है इसलिए अहं सच्चा लग रहा है।
अहं का पोषण भाता है। खुशामद प्यारी लगती है। जिस प्रकार ऊँट कंटीले वृक्ष के पास पहुँच जाता है, शराबी मयखाने में पहुँच जाता है, वैसे ही अहं वाहवाही के बाजार में पहुँच जाता है।
सत्ताधीश दुनियाँ को झुकाने के लिए जीवन खो देते हैं फिर भी दुनियाँ दिल से नहीं झुकती। सब से बड़ा कार्य, सब से बड़ी साधना है अपने अहं का समर्पण, अपने अहं का विसर्जन। यह सब से नहीं हो सकता। सन्त अपने सर्वस्व को लुटा देते हैं। इसीलिए दुनियाँ उनके आगे हृदयपूर्वक झुकती है।
नश्वर का अभिमान डुबोता है, शाश्वत का अभिमान पार लगाता है। एक अभिमान बन्धनों में जकड़ता है और दूसरा मुक्ति के द्वार खोलता है। शरीर से लेकर चिदावली पर्यंत जो अहंबुद्धि है वह हटकर आत्मा में अहंबुद्धि हो जाय तो काम बन गया। 'शिवोऽहम्.... शिवोऽहम्....' की धुन लग जाय तो बस.....!
मन-बुद्धि की अपनी मान्यताएँ होती हैं और अधिक चतुर लोग ऐसी मान्यताओं के अधिक गुलाम होते हैं वे कहेंगेः "जो मेरी समझ में आयेगा वही सत्य। मेरी बुद्धि का निर्णय ही मानने योग्य है और सब झूठ....।"
नाम, जाति, पद आदि के अभिमान में चूर होकर हम इस शरीर को ही "मैं" मानकर चलते हैं और इसीलिए अपने कल्पित इस अहं पर चोट लगती है तो हम चिल्लाते हैं और क्रोधाग्नि में जलते हैं।
नश्वर शरीर में रहते हुए अपने शाश्वत स्वरूप को जान लो। इसके लिए अपने अहं का त्याग जरूरी है। यह जिसको आ गया, साक्षात्कार उसके कदमों में है।
परिच्छिन्न अहंकार माने दुःख का कारखाना। अहंकार चाहे शरीर का हो, मित्र का हो, नाते-रिश्तेदारों का हो, धन-वैभव का हो, शुभकर्म का हो, दानवीरता का हो, सुधारक का हो या सज्जनता का हो, परिच्छिन्न अहंकार तुमको संसार की भट्ठी में ही ले जायगा। तुम यदि इस भट्ठी से ऊबे हो, दिल की आग बुझाना चाहते हो तो इस परिच्छिन्न अहंकार को व्यापक चैतन्य में विवेक रूपी आग से पिघला दो। उस परिच्छिन्न अहंकार के स्थान पर "मैं साक्षात् परमात्मा हूँ", इस अहंकार को जमा दो। यह कार्य एक ही रात्रि में हो जायेगा ऐसा नहीं मानना। इसके लिए निरन्तर पुरुषार्थ करोगे तो जीत तुम्हारे हाथ में है। यह पुरुषार्थ माने जप, तप, योग, भक्ति, सेवा और आत्म-विचार।
बाहर की सामग्री होम देने को बहुत लोग तैयार मिल जायेंगे लेकिन सत्य के साक्षात्कार के लिए अपनी स्थूल और सूक्ष्म सब प्रकार की मान्यताओं की होली जलाने लिए कोई कोई ही तैयार होता है।
किसी भी प्रकार का दुराग्रह सत्य को समझने में बाधा बन जाता है।
जब क्षुद्र देह में अहंता और देह के सम्बन्धों में ममता होती है तब अशांति होती है।
जब तक 'तू' और 'तेरा' जिन्दे रहेंगे तब तक परमात्मा तेरे लिये मरा हुआ है। 'तू' और 'तेरा' जब मरेंगे तब परमात्मा तेरे जीवन में सम्पूर्ण कलाओं के साथ जन्म लेंगे। यही आखिरी मंजिल है। विश्व भर में भटकने के बाद विश्रांति के लिए अपने घर ही लौटना पड़ता है। उसी प्रकार जीवन की सब भटकान के बाद इसी सत्य में जागना पड़ेगा, तभी निर्मल, शाश्वत सुख उपलब्ध होगा।
अपनी कमाई का खाने से ही परमात्मा नहीं मिलेगा। अहंकार को अलविदा देने से ही परमात्मा मिलता है। तुम्हारे और परमात्मा के बीच अहंकार ही तो दीवार के रूप में खड़ा है।
जब कर्म का भोक्ता अहंकार नहीं रहता तब कर्मयोग सिद्ध होता है। जब प्रेम का भोक्ता अहंकार नहीं रहता तब भक्तियोग में अखण्ड आनन्दानुभूति होती है। जब ज्ञान का भोक्ता अहंकार नहीं रहता तब ज्ञानयोग पूर्ण होता है।
कुछ लोग सोचते हैं- प्राणायाम-धारणा-ध्यान से या और किसी युक्ति से परमात्मा को ढूँढ निकालेंगे। ये सब अहंकार के खेल हैं, तुम्हारे मन के खेल हैं। जब तक मन से पार होने की तैयारी नहीं होगी, अपनी कल्पित मान्यताओं को छोड़ने की तैयारी नहीं होगी, अपने कल्पित पोपले व्यक्तित्व को विसर्जित करने की तैयारी नहीं होगी तब तक भटकना चालू रहेगा। यह कैसी विडम्बना है कि परमात्मा तुमसे दूर नहीं है, तुमसे पृथक नहीं है फिर भी उससे अनभिज्ञ हो और संसार में अपने को चतुर समझते हो

आश्रम से प्रकाशित पुस्तक "ऋषि प्रसाद" से लिया गया प्रसंग
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