अद्वैत भाव की चरम अवस्था में पहुँचने हेतु प्रत्यक्ष सहायरूप होने वाला एक 'मौन' ही मित्र है। मौन से जो शक्ति उत्पन्न होती है उसकी तुलना में कोई दूसरी शक्ति नहीं है। मौन के ज्ञानपूर्वक अभ्यास से और उसके अनुशीलन-परिशीलन से जीवन में तेजस्विता आती है। जीवन अधिक विशाल, शांत और समभावी बनता है।
मौन के अभ्यास से जीवन में सर्वांगीण शुचिता का संचार होने लगता है। परम तत्त्व की झलक पाने में जो तत्त्व अनिवार्य है वह मौन। परंतु मौन का अर्थ केवल वाणी का ही मौन नहीं, यह तो मौन का स्थूल अर्थ हुआ। मौन का सच्चा अर्थ है पाँचों इन्द्रियों का अपने अपने विषयों से उपराम हो जाना।
'उपवास' अर्थात् रसनेन्द्रिय का मौन, न बोलना, वाणी का मौन, अंतर के ध्यान में चक्षु, कर्ण, त्वचा आदि इन सभी को समेट लेना यह भी मौन है। अनेक के बीच रहते हुए भी एक में लीन रहना मौन है।
स्थूल देह भले ही किसी भी स्थिति में हो पर सूक्ष्म रूप से निरंतर एक (आत्मा) के ही ध्यान में रहने से, सभी इन्द्रियों की एक साथ एकाग्रता के केन्द्रीभूत बल से जीवन में अपार शक्ति एकत्र होती है। ऐसी अवस्था उत्पन्न होते ही जीवन में नवचेतना का संचार हो जाता है। नम्रता, शांति, धैर्य, गांभीर्य आदि सदगुण स्वाभाविक ही प्रकट होने लगते हैं। मन विशाल व उदात्त बनने लगता है। इन्द्रियों के अपने-अपने प्राकृत धर्म अपने-आप छूट रहे हैं – ऐसा महसूस होने लगता है।
मौन के गर्भ में अपार शक्ति है। महासागर का उपरी स्तर भले ही तूफानी दिखायी देता हो परंतु उसके अंदर परम गांभीर्य और शांति विराजमान है। इसी प्रकार मौन के ज्ञान-भक्तिपूर्वक सेवन से बड़ा भारी मनोभंजन होता है परंतु बाद में अंतरतम में अपार शांति और समता अनुभूत होती है। मौन से जीवन की सूक्ष्म प्रवृत्तियों में भी शांति आ जाती है। मौन-सेवन से मानव प्रशांत-मूर्ति बन जाता है।
मौन के सतत अनुशीलन-परिशीलन से बुद्धि में योग, विवेक और धर्म का प्राकट्य होता है। प्रतिक्षण जो अपनी संपूर्ण जीवनशक्ति को परम कल्याण की दृष्टि से ही समर्पित करता है, उसकी सारी समर्पणशक्ति का जो मूल है वह एक 'मौन' ही है। जीवन की प्रत्येक परिस्थिति में यथायोग्य व्यवहार करते हुए मौन का आश्रय लेने से परम शांति एवं धैर्य की प्राप्ति होती है।
स्रोतः लोक कल्याण सेतु, जून, जुलाई 2009
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