एक होती है कामना, जो जीवमात्र में होती है – खाने की, पीने की, भोगने की, रखने की। कुत्ते का भी जब पेट भर जाता है तब उसे कोई बढ़िया चीज मिलती है तो वह उसे उठाकर ले जाता है और गड्ढा खोदकर गाड़ देता है कि 'कल खायेंगे', यह कामना है। 'पैसे अभी हैं पर थोड़े बैंक में पड़े रहे हैं, फिर काम आयेंगे' – यह कामना है। पेड़-पौधों को भी कामना होती है परंतु उनकी कामना और होती है, मनुष्य की कामना और होती है, कुत्ते की कामना और होती है पर कामना सभी जीवों में होती है। मनुष्य में दो चीजें ऐसी होती हैं जो और जीवों में नहीं होतीं। पेड़ पौधों में कामना होती है खाद-पानी की, कीट-पतंग में कामना होती है अपने आहार की, अपने बच्चों को सुरक्षित रखने की लेकिन मनुष्य में कामना के साथ लालसा भी होती है और जिज्ञासा भी होती है। यह बहुत ऊँची चीज है। इस ऊँची चीज को महत्त्व दे और कामना को प्रारब्ध के, भगवान के हवाले छोड़ दे तो देखते-देखते मनुष्य महान आत्मा बन जायेगा, दिव्यात्मा बन जायेगा। इसीलिए कहते हैं कि मनुष्य-जीवन देवताओं के लिए भी दुर्लभ है। देवताओं में भी लालसा और जिज्ञासा तो होती है परंतु देवताओं के यहाँ इतनी सुविधा, इतना सुख-वैभव है कि कामना-कामना में वे इतने मशगूल हो जाते हैं कि इन दो चीजों का फायदा उठाने से रह जाते हैं। जब पुण्य नष्ट होते हैं तो फिर मनुष्य शरीर में आते हैं परंतु मनुष्य-जन्म में ये चीजें ज्यों-की-त्यों बरकरार रहती हैं – लालसा और जिज्ञासा।
लालसा होती है भगवान का रसपान करने की, भगवान का माधुर्य पाने की। कितना भी धन हो जाये फिर भी अंदर से धनी भी भगवान की तरफ जाते हैं, किसी-न-किसी को मानते हैं। लगभग सभी लोग भगवान को मानते हैं, कोई-कोई नहीं मानता होगा। जो नहीं मानते, समझो उनकी मनुष्यता ही खो गयी।
मनुष्य में यह लालसा रहती है कि भगवत्सुख मिले, भगवत्प्रीति मिले, भगवदरस मिले, भगवदधाम मिले। हम लोग स्वर्ग बोलते हैं, कोई बिहिश्त बोलता है, कोई पैराडाइज बोलता है, कोई कुछ बोलता है किंतु यह लालसा मनुष्य में रहती है।
जिज्ञासा होती है 'हम वास्तव में कौन हैं ?' इसे जानने की। शरीर मर जाता है फिर भी हम तो रहते हैं। अगर हम नहीं रहते तो स्वर्ग में कौन जाता है, नरक में कौन जाता है ? मरने के बाद भी हम तो हैं न ! तो हम कौन हैं और भगवान क्या हैं ? हमारे और भगवान के बीच क्या संबंध है, क्या दूरी है और वह कैसे मिटे, कैसे जानें ? यह जो जानने की भावना होती है वह जिज्ञासा है। भगवदरस पाने का जो लालच होता है उसे लालसा बोलते हैं और संसारी चीजों को पाने की इच्छा को वासना बोलते हैं।
तो मनुष्य में तीनों होती हैं – वासना, लालसा और जिज्ञासा। अगर वासना-ही-वासना है तो मनुष्य और कुत्ते में कोई ज्यादा फर्क नहीं है। दुःख आया तो मनुष्य दुःखी हो गया, घबड़ा गया... कुत्ता भी दुःख में घबड़ाता है, पूँछ दबा देता है और सुख आया तो पूँछ हिलाता है, खुशी दिखाता है, मनुष्य भी दिखाता है लेकिन कुत्ते से मनुष्य बहुत ऊँचा है। बैल, घोड़े, गधे, - सभी प्राणियों से मनुष्य ऊँचा है क्योंकि दो रत्न और भी हैं – लालसा और जिज्ञासा। मनुष्य उन रत्नों को महत्त्व दे दे तो वह देवताओं से भी आगे निकल जायेगा। देवता भगवान के बाप नहीं बने हैं परंतु मनुष्य भगवान के बाप भी बने हैं। देवता भगवान के गुरु नहीं बने हैं पर मनुष्य भगवान के गुरु भी बने हैं।
मनुष्यैः क्रियते यत्तु तन्न शक्यं सुरासुरैः।
'जो ऊँचाई मनुष्य पा सकता है, वह सुर और असुर भी नहीं पा सकते।'
(ब्रह्म पुराणः 27.70)
मनुष्य अपनी जिज्ञासा और लालसा को महत्त्व देकर इतना ऊँचा उठ सकता है, इतना ऊँचा उठ सकता है कि जहाँ ऊँचाई की हद हो जाय! यदगत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम। जहाँ जाने के बाद पतन ही नहीं होता। न तदभासयते सूर्यो न शशांको न पावकः। वहाँ सूर्य का प्रकाश, चन्द्रमा का प्रकाश या अग्नि का प्रकाश नहीं। अग्नि, चंदा और सूर्य को भी जो प्रकाशित करता है उस प्रकाशमय सत्त्व को, तत्त्व को, आत्मा को जानकर मनुष्य जीवन्मुक्त हो जाता है। बाहर से इतनी गरीबी है कि शरीर पर केवल लँगोटी है, तीन थिगली (पैवंद) लगी हैं, सब्जी में नमक डालने के पैसे नहीं हैं किंतु जिज्ञासा और लालसा बढ़ गयी तो ऐसे पद को पाता है कि इन्द्र भी उसके आगे बबलू हो जाता है।
जिज्ञासा से ब्रह्मज्ञान हो जाता है, लालसा से ब्रह्म-परमात्मा का रस पैदा होता है। मैं तो आपको सलाह देता हूँ कि आपके अंदर ये दो दिव्य शक्तियाँ हैं, उनको सहयोग करो। लालसा और जिज्ञासा को बढ़ाओ। कामना में समय बर्बाद मत करो। कामनाएँ क्षीण होती जायें तथा जिज्ञासा और लालसा सफल होती जायें तथा जिज्ञासा और लालसा सफल होती जायें, यह सच्ची सफलता है।
कामनावाले से तो वृक्ष भी डरते हैं। आप बस-स्टैंड पर खड़े हैं और कोई भिखमंगा कामना करके आता है तो आपको अच्छा नहीं लगता है। जान छुड़ाने के लिए कुछ पैसे डाल देते हो। औज जिनको कामना नहीं है ऐसे संत को हाथ जोड़कर, माथा टेककर भी पीछे-पीछे घूमते हो कि"बाबाजी ! जरा यह फल-फूल ले लो।" बाबाजी बोलते हैं- "नहीं चाहिए बेटे !" आप फिर से 'बाबा ! बाबा !!' करते हैं, मानो उन्होंने लिया तो हम पर मेहरबानी कर दी। कामना रहित पुरुष को कुछ देते हैं तो वह महापुण्य बन जाता है और कामनावाले को देते हो तो जान छुड़ाने के लिए। आप भगवान से, समाज से या प्रकृति से भिखमंगे होकर कामनापूर्ति के गुलाम मत बनो तो प्रकृति आपके पीछे-पीछे घूमेगी। मैंने अपने आश्रमों में बोर्ड लगा रखे हैं कि 'चीज-वस्तु, रूपये पैसे की कोई जरूरत नहीं है। आश्रम के नाम पर कोई रूपया-पैसा माँगता है तो मुख्यालय को खबर करो।' आज तक मैंने कोई आश्रम बनाने के लिए चंदा नहीं किया, फिर भी आपको पता है कि कितने सारे आश्रम चल रहे हैं। कितनी गौशालाएँ चल रही हैं, कितने औषधालय चल रहे हैं और गरीबों को रोजी-रोटी नहीं मिलती, काम-धंधा नहीं मिलता तो आश्रमों में, समितियों में 'भजन करो, भोजन करो, दक्षिणा पाओ' केन्द्र चल रहे हैं। मैंने कामना नहीं की आप मुझे यह चीज दो, रूपया दो। अरे, जो प्रारब्ध में होगा, आयेगा। बच्चा माँ के गर्भ से जन्म लेता है तो क्या कामना करता है कि मेरे लिए दूध बन जाय, दूध बन जाय ? प्रकृति और परमात्मा की व्यवस्था है, अपने आप दूध बन गया न ! तो प्रारब्ध-वेग से सब मिलता रहता है। क्या आप कामना करते हो कि श्वास मिल जाय, मिल जाय ? अरे, आपकी आवश्यकता है तो श्वास मिलता रहता है। इसलिए कामना करके अपनी इज्जत मत बिगाड़ो, लालसा और जिज्ञासा करके, उनको बढ़ाकर अपना खजाना पा लो बस !
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2010, पृष्ठ संख्या 20,21 अंक 212
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