प्राणिमात्र का एक ही उद्देश्य है कि हम सदा सुखी रहें, कभी दुःखी न हों। सुबह से शाम तक और जीवन से मौत तक प्राणी यही करता है – दुःख को हटाना और सुख को थामना। धन कमाते हैं तो भी सुख के लिए, धन खर्च करते हैं तो भी सुख के लिए। शादी करते हैं तो भी सुख के लिए और पत्नी को मायके भेजते हैं तो भी सुख के लिए। पत्नी के लिए हीरे जवाहरात ले आते हैं तो भी सुख के लिए और तलाक दे देते हैं तो भी सुख के लिए। प्राणिमात्र जो भी चेष्टा करता है वह सुख के लिए ही करता है, फिर भी देखा जाय तो आदमी दुःखी का दुःखी है क्योंकि जहाँ सुख है वहाँ उसने खोज नहीं की।
यदि किसी को कहें- भगवान करे दो दिन के लिए आप सुखी हो जाओ, फिर मुसीबत आये। तो वह व्यक्ति कहेगाः "अरे भैया ! ऐसा न कहिये।"
'अच्छा, दस साल के लिए आप सुखी हो जाओ, बाद में कष्ट आये।'
'नहीं, नहीं....।'
'जियो तब तक सुखी रहो, बाद में नरक मिले।'
'न-न.... नहीं चाहते। दुःख नहीं सदा सुख चाहते हैं।'
तो उद्देश्य है सदा सुख का परंतु इच्छा है नश्वर से सुख लेने की, क्षणिक सुखों के पीछे भागने की इसलिए ठोकर खाते हैं।
क्षणिक सुखों की इच्छा क्यों होती है ? क्योंकि क्षण-क्षण में बदलने वाले जगत की सत्यता खोपड़ी में घुस गयी है। नश्वर जगत की सत्यता चित्त में ऐसी मजबूती से घुस गयी है, नश्वर जगत को, नश्वर संबंधों को, नश्वर परिस्थितियों को इतना सत्य मानते हैं कि सत्य को समझने की योग्यता ही गायब कर देते हैं।
वास्तव मे हमारा उद्देश्य तो है शाश्वत सुख किंतु इच्छा होती है नश्वर सुख की, नश्वर वस्तुओं की। तो उद्देश्य और इच्छा जब तक विपरीत रहेंगे तब तक जीवन में 'सोऽहं' का संगीत न गूँज पायेगा। उद्देश्य और इच्छा में जब तक फासला होगा, तब तक दो नाव में पैर रखने वालों की हालत से हम गुजरते रहेंगे, दुःखी होते रहेंगे।
आप सुखप्राप्ति चाहते हैं, सदा सुखी रहना चाहते हैं, जो स्वाभाविक है। तुम्हारा उद्देश्य जो है न, वह स्वाभाविक है और इच्छा जो वह अज्ञान से उठती है।
जैसे ठीक जानकारी न होने से, ठीक वस्तु का बोध न होने से आदमी गलत रास्ते चला जाता है। दूरबीन से नक्षत्रों या चाँद को देखना हो और काँच साफ न हो तो ठीक से नहीं दिखता, ऐसे ही ठीक बोध न होने से, ठीक समझ न होने से ज्ञान की नजर खुलती नही। और जब तक ज्ञान की नजर खुलती नहीं तब तक सुख-दुःख सब हमारी उन्नति के लिए आते हैं, ऐसा दिखता नहीं।
ठीक देखने क लिए ठीक अंतःकरण चाहिए और ठीक अंतःकरण के लिए उच्च विवेक चाहिए।
संत तुलसी दास ने कहाः
बिन सतसंग विवेक न होई।
राम कृपा बिनु सुलभ न सोई।।
भगवान की कृपा से ही ऐसे विवेक के रास्ते मनुष्य चलता है और उसकी अनात्मा की आसक्ति धीरे-धीरे मिटती जाती है तथा आत्मा का ज्ञान, प्रीति, विश्रांति, आत्मतृप्ति, परमात्मतृप्ति की तरफ चलती रहती है।
आत्मतृप्तमानवस्य कार्यं न विद्यते।
विकारों की तरफ फिसले नहीं तो जल्दी से पूर्ण स्वभाव की प्राप्ति हो जाती है। शिवजी कहते हैं-
उमा राम सुभाउ जेहिं जाना।
ताहि भजनु तजि भाव न आना।।
श्रीरामचरित. सुं.कां.33.2
उस आत्मानंद का रस पाकर फिर वह विकारी रस में आसक्त नहीं होता यही जीवन्मुक्ति है, जीते जी मुक्ति ! दुःखों से, आकर्षणों से, प्रशंसा से, निंदा से मुक्त महापुरुष बन जाओ। अष्टावक्र जी कहते हैं- तस्य तुलना केन जायते ? ऐसे आत्मा-परमात्मा में जागे उस महापुरुष की तुलना किससे करोगे ? इंद्रदेव का सुख भी आत्मसुख के आगे तुच्छ हो जाता है।
'अष्टावक्र गीता' में आता हैः
यत्पदं प्रेप्सवो दीनाः शक्राद्याः सर्वदेवताः।
अहो तत्र स्थितो योगी न हर्षमुपगच्छति।।
जिस पद को पाये बिना इंद्रादि देवता भी दीन हो जाते है, उस आत्मपद को पाकर आत्मारामी महापुरुष न यश से फूलते हैं न अपयश में दुःखी, चिंतित, परेशान होते हैं, ऐसा ब्रह्मस्वभाव का सुख है।
तैसा अंम्रितु1 तैसी बिखु2 खाटी।
तैसा मानु तैसा अभिमानु।
हरख सोग3 जा कै नही बैरी मीत समान।
1 अमृत, 2 विष, 3 हर्ष-शोक
ऐसा सत्संग का विवेक मुक्तात्मा, महात्मा बना देता है। क्षुद्र विषय-विकारी सुख से अपने को थोड़ा बचाते जाओ और निर्विकारी, शाश्वत सुख में बढ़ते जाओ, यही मनुष्य जीवन की उपलब्धि है। सदा रहने वाला सुख सदा रहने वाले अपने क्षेत्रज्ञ स्वरूप में ही है। पंचभौतिक शरीर, मन, बुद्धि, अहंकार यह अष्टधा प्रकृति का क्षेत्र है। भगवान कहते हैं-
भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च।
अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।।
(भगवदगीताः 7.4)
भगवान कृपा करके अपना स्वभाव बता रहे हैं कि मैं इनसे भिन्न हूँ, अतः आप भी इनसे भिन्न हैं। पंचभौतिक शरीर, मन, बुद्धि और अहंकार बदलते हैं, आप अबदल हैं। आप आत्मा हो, शाश्वत हो, शरीर के मरने के बाद भी आपकी मृत्यु नहीं होती, आप अजर-अमर हो नारायण ! आप अपनी अमरता में जागो, टिको। शाश्वत सुख आपका अपना-आपा है।
सुख शांति का भण्डार है, आत्मा परम आनन्द है।
क्यों भूलता है आपको ? तुझमें न कोई द्वन्द्व है।।
भगवान हमारे परम सुहृद हैं। उन परम सुहृद के उपदेश को सुनकर अगर जीव भीतर, अपने स्वरूप में जाग जाय तो सुख और दुःख की चोटों से परे परमानन्द का अनुभव करके जीते-जी मुक्त हो जायेगा। जीव जब तक परम सुख नहीं पा लेता तब तक नश्वर सुख की चाह बनी रहती है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2010, पृष्ठ संख्या 10,11, अंक 209
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