उन्नीसवाँ
सर्ग
दृष्टान्त के
अर्थनिरूपण के सिलसिले में नित्य अपरोक्ष द्रष्टा, दृश्य आदि के साक्षी ब्रह्मरूप
प्रमाणतत्त्व का शोधन।
प्रासंगिकता
समर्थन कर उससे सम्बद्ध प्रमाणतत्त्व का निर्णय करने के इच्छुक श्रीवसिष्ठजी ने
कहा, हे श्रीरामजी, जिस अंश का विशेषरूप से प्रतिपादन करने की विविक्षा हो, उसी से
सादृश्य सब उपमानों में गृहीत होता है, उपमान और उपमेय में सर्वथा सादृश्य होने पर
उपमान और उपमेय में क्या अन्तर रहेगा ? भाव यह कि विशेष, अंश में ही सादृश्य गृहीत
होता है, अन्यथा 'गाय के समान गाय है' इत्यादि स्थान में जाति आदि से भी सादृश्य
की विवक्षा होने पर भेद न होने स उपमानमात्र का उच्छेद हो जायेगा।।1।।
दृष्टान्त
बुद्धि का फल कहते हैं।
तत् और त्वं
पदार्थ के परिशोधन के उपयोगी तत्-तत् दृष्टान्तबुद्धि होने पर अद्वितीय
ज्ञानस्वरूप आत्मतत्त्वरूप शास्त्रार्थ का (सम्पूर्ण वेदान्तों के तात्पर्य का
विषय होने से आत्मतत्त्व शास्त्रार्थ है) ज्ञान होने से अर्थात् अद्वितीय
आत्मतत्त्वविषयक अखण्डाकार वृत्ति का उदय होने से उससे अभिव्यक्त महावाक्यार्थभूत ब्रह्मस्वरूप
से ही भली भाँति सिद्ध अज्ञान और उसके कार्य का विनाशरूप निर्वाण होता है। वही
निर्वाण दृष्टान्तबुद्धि का फल कहा जाता है। इसलिए दृष्टान्त और दार्ष्टान्तिकों
के विविध विकल्पों का अर्थात् दृष्टान्त का दार्ष्टान्तिक से भेद और दृष्टान्त में
दार्ष्टान्तिक के प्रचुरधर्मवत्त्व के प्रसंजक-क्या यह दृष्टान्त सर्वांश में है,
या कुछ धर्मों के अंश में इत्यादि-विकल्पों का कोई प्रयोजन नहीं है।।2।।
तो किससे
प्रयोजन है ? इस पर कहते हैं।
जिस किसी युक्ति
से (पदार्थ, लक्ष्यार्थ और तात्पर्यार्थ के ज्ञान के अनुकूल युक्ति से)
महावाक्यार्थ का समाश्रय करना चाहिए।।3।।
यदि कोई कहे कि
सम्पूर्ण संसार की शान्ति होने पर उसके अन्तर्गत दृष्टान्त, युक्ति आदि का भी बाध
होने से उनमें अभासता होगी, ऐसी आशंका पर फलसिद्धि के पश्चात् साधन की क्षति होना
कोई दोष नहीं है, ऐसा कहते हैं।
हे श्रीरामचन्द्रजी,
आप शान्ति को परम कल्याण समझिए, उसी की प्राप्ति के लिए यत्न कीजिए। भोजनयोग्य भात
यदि पक गया, तो उसके पाक में साधनभूत दृष्टान्त आदि के मिथ्या होने से क्या क्षति
है ?।।4।।
'औषधं पिब
भ्रातुरिव से शिखा वर्धिष्ते' (औषधि पीओ, भाई के समान तुम्हारी भी शिखा बढ़
जायेगी) इस प्रकार बालक की औषधि पीने में प्रवृत्ति के कारण और शिखा की वृद्धि में
अकारण, इष्ट साधन होने से, एक अंश में सदृश उपमान और उपमेयों से बालक को औषधिपान
में इष्टसाधनताज्ञान के (औषधि पीने से मेरा हित होगा इत्याकारक ज्ञान के) लिये
जैसे लोक में उपमा दी जाती है, वैसे ही एक अंश से सदृश अपरिणामी और परिणामी उपमान
और उपमेयों से ज्ञातव्य सत् पदार्थ के बोध के लिए उपमा दी जाती है।।5।।
प्रकृत स्थल में
उपयुक्त होने के कारण अनात्मविषयक दृष्टान्त दे रहे श्रीवसिष्ठजी श्रीरामचन्द्रजी
को शान्ति आदि की प्राप्ति में प्रवृत्त
करते हैं।
विवेकशून्य
बुद्धि वाले पुरुष को इस संसार में, पत्थर की चट्टान के बीच में उत्पन्न अत्यन्त
मोटे अन्धे मेढक के समान भोगों में आसक्त नहीं होना चाहिए, किन्तु शान्ति आदि के
लाभ के लिए प्रयत्न करना चाहिए।।6।। इस प्रकार के दृष्टान्तों द्वारा बोधित, पुरुष
को प्रयत्नपूर्वक परम पद प्राप्त करना चाहिए और शान्तिप्रद शास्त्रों के अर्थ का
परिज्ञाता तथा विचारवान् होना चाहिए। सत्-शास्त्रों के उपदे, सज्जनता, बुद्धि,
शास्त्रज्ञ और आत्मज्ञानियों के समागम से पूर्व पूर्व अन्तरंग साधन क्रम से युक्त
धर्मों (♥) गुरुसेवा आदि
के उपयोगी धनों और शास्त्र के तात्पर्यविषयीभूत अर्थों के उपार्जनरूप कर्म में
तत्पर बुद्धिमान् पुरुष को तब तक विचार करना चाहिए जब तक कि पुनः नष्ट न होने वाली
चतुर्थपदनामक (♣)
(सप्तमभूमिकाप्राप्तिरूप) शान्तिमय आत्मविश्रान्ति प्राप्त नहीं हो जाती।
♥ दिने
दिने चे वेदान्तश्रवणाद् भक्तिसंयुतात्। गुरुशुश्रुषया युक्तात कृच्छ्राशीतिफलं
लभेत्।। यो यजेताऽश्वमेघेन मासि मासि शतं समाः। न यः क्रुध्येत सर्वस्य
तयोरक्रोधनो वरः।। इत्यादि स्मृति में प्रसिद्ध धर्मों का।
♣ 'शिवमद्वैतं
चतुर्थं मन्यते' इस श्रुति में चतुर्थपदनामक शान्ति सप्तमभूमिकाप्रतिष्ठा कही गई
है।
जो पुरुष
सप्तमभूमिकाप्राप्तिरूप विश्रान्तिसुख से युक्त है और संसाररूपी समुद्र के पार हो
चुका है, वह जीवित हो चाहे जीवनरहित हो, गृहस्थ हो या यति हो उसको ऐहिक फल और
पारलौकिक फल कृत या अकृत कर्म से प्राप्त नहीं होते और श्रवण-मननरूप मन के
विक्षेपों से उसका कोई प्रयोजन नहीं है, वह मन्दराचलरूप मन्थनदण्ड से रहित समुद्र
के समान स्वस्थ रहता है।।7-11।।
यह तो आप परस्पर
विरूद्ध कहते हैं 'गृहस्थस्य तथा यतेः' इससे तत्-तत् आश्रम में नियत धर्मों में
निष्ठ रहना चाहिए, ऐसा कहा, 'न कृतेऽकृतेनार्थः' इससे अनियतधर्मनिष्ठता कही और
'तत्र निर्मन्दर इवाऽर्णवः' इससे आत्यान्तिक विक्षेप की निवृत्ति का प्रतिपादक
दृष्टान्त दिया, ये सब कैसे संगत होंगे ? ऐसी शंका कर जो पहले आत्मतत्त्व के विषय
में एक अंश से साम्य ग्रहण करना चाहिए, ऐसा कहा, उसी के अभिप्राय से इसका उदाहरण
दिया गया है, ऐसा कहते हैं।
किसी एक अंश से
उपमानों के साथ बोध्य पदार्थ के लिए समता होती है। बोध्य पदार्थ के बोध के उपयोगी
होने के कारण इस बात पर अवश्य ध्यान देना चाहिए कि दूसरे के पक्ष का खण्डन करने के
लिए ही चोंच की नाईं तनिक बोध को मुँह में लगाकर न बैठ जाना चाहिए, अपितु बोध को
हृदय में प्रविष्ट करा देना चाहिए। अन्यथा स्वपुरुषार्थ का विनाश अनिवार्य हो
जायेगा।।12।। हे श्रीरामजी, आपको जिस किसी भी युक्ति से ज्ञातव्य पदार्थ का ज्ञान
अवश्य प्राप्त करना चाहिए, जो लोग बोधचंचु (अपूर्णबोध) हैं, वे परपक्ष खंडन में ही
व्याकुल रहते हैं, अतएव युक्त और अयुक्त का विचार नहीं कर सकते।।13।।
लक्षणों द्वारा
दो प्रकार के बोधचंचुओं का निर्देश करते हैं।
हृदयरूपी
संविदाकाश में विश्रान्त अनुभवस्वरूप आत्मरूप वस्तु में जो अनर्थबुद्धि करता है वह
पहला बोधचंचु है, भाव यह है कि ज्ञान के फल को जो अनर्थरूप से समझे, वह पहला
बोधचंचु है। जैसे निर्मल आकाश को मेघ मलिन कर देता है, वैसे ही अभिमानमूलक
कुतर्कों से ज्ञान और उसके साधनों को विकल्पित करता हुआ जो मूर्ख अपने आत्मभूत बोध
को अन्तःकरण में मलिन करता है, वह द्वितीय बोधचंचु है।।14,15।।
प्रासंगिक
बोधचंचु के लक्षण को कहकर प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों के तत्त्व के परीक्षणपूर्वक जीव
की अद्वितीय कूटस्थ चिन्मात्रस्वभावता के व्युत्पादन द्वारा व्यवहार में भी
जीवन्मुक्त पुरुष की मन्दराचलशून्य समुद्र के दृष्टान्त से लब्ध निष्क्रियता का
समर्थन करने के लिए कहते हैं।
जैसे सम्पूर्ण
जलों का आधार समुद्र है, वैसे ही सम्पूर्ण प्रमाणों के प्रामाण्य का आधारभूत
प्रत्यक्ष ही मुख्य तत्त्व है, इसलिए उस प्रत्यक्ष को ही तत्त्वतः आपसे कहता हूँ,
उसे सुनिये। जैसे सब प्रमाणों की सार इन्द्रियाँ हैं, वैसे ही सम्पूर्ण इन्द्रियों
का सार अपरोक्षज्ञान है, ऐसा श्रेष्ठ लोगों का कहना है, वही (अपरोक्षज्ञान) मुख्य
प्रत्यक्ष है जो 'घटमहं जानामि' इस त्रिपुटीज्ञान से सिद्ध जो अवच्छेदभूत,
आश्रयभूत और विषयभूत वस्तु है, वह भी प्रत्यक्ष गई है। व्यवहारभूमि में अनुभूति,
वेदन और प्रतिपत्तिका नामाक्षरों के अनुसार 'प्रत्यक्ष' यह नाम किया गया है, वह
साक्षी ही प्राणधारण के कारण जीव कहा जाता है। साक्षी ही वृत्तिरूप उपाधि से संवित
कहा जाता है। 'अहम्' इत्याकारक प्रतीति का विषय वही प्रमाता कहा जाता है, वही
साक्षी जिस विषयाकार की वृत्ति से (बाह्याकारवृत्ति से) आवरणभंग होने पर, आविर्भूत
होता है वह पदार्थ (विषय) कहा जाता है, इस प्रकार साक्षी ही क्रम से त्रिविधता को
प्राप्त होता है। जल जैसे तरंग आदि के रूप में प्रकाशित होता है, वैसे ही
वही-परमात्मा नामक अद्वितीय, नित्य, सर्वव्यापक, सर्वाभासक चैतन्य ही विविध भ्रमों
को करने वाले संकल्प विकल्प प्रधान अन्तःकरणों से जगत के रूप में प्रकाशित होता
है। सृष्टि के पूर्व में वह साक्षी एक और अकारणरूप से विराजमान था, तदुपरान्त
सृष्टि आरम्भ में सृष्टिलीलावश सृष्टिभाव को प्राप्त हुए उसने अपने स्वयं ही
कारणभाव का आविर्भाव किया अर्थात् आप ही अपना कारण हुआ।।16-29।। यद्यपि एक ही में
वास्तविकरूप से कार्यत्व और कारणत्व नहीं बन सकते तथापि साक्षी चेतन में कारणता
अविचार (अज्ञान) जनित होने से सत् नहीं है, फिर भी जीव को सत् सी प्रतीत होती है। इस अज्ञानसंवलित आत्मरूप प्रकृति में जगत्
अभिव्यक्त (प्रकट) हुआ है, इस प्रकार यह जगत् आरोपित है, यह भाव है।।22।। विचार
(विचार से उत्पन्न आत्मसाक्षात्कार) भी अपने से उत्पन्न और परमार्थरूप से अपने से
अभिन्न ही जगदरूप शरीर को अज्ञान के विनाश द्वारा विनष्ट कर तत्त्वज्ञ पुरुषों को
आत्मभूत अनावृत्त अपरिच्छिन्न परम पुरुषार्थ को प्राप्त कराता है।।23।।
तब तो उक्त
विचार या अन्तिम साक्षात्कारवृत्ति मोक्ष में भी अवशिष्ट रहेगी, उसका अन्य से नाश
मानने मे अनवस्था होगी, इस पर कहते हैं।
जब विचारवान्
पुरुष आत्माकार हो जाता है तब विचार से भी निवृत्त हो जाता है, तब निरुल्लेख (शब्द
आदि का अविषय) एकमात्र ब्रह्म ही अवशिष्ट रह जाता है। इस प्रकार प्रपंच के बाधित
होने पर अपने बुद्धि, इन्द्रिय आदि के साथ इच्छा आदि से रहित मन के शान्त
(वृत्तिशून्य) होने पर कार्य, अकार्य, इच्छा आदिका कुछ भी प्रयोजन नहीं रहता,
क्योंकि बाधित का सत्यरूप से भान न होने के कारण प्रारब्धजनित क्रियाभास से क्रिया
और उसके फल का भोग नहीं होता, यह भाव है।।24-25।। इच्छादिरहित मन के शान्त होने पर
कर्मेन्द्रियों के और उनकी प्रवृत्ति के निमित्त विषयस्फूर्ति के न होने से जीव
में चलन क्रिया का अभाव है, इस अभिप्राय से 'निर्मन्दर इवाम्षोधिः' (मन्थनदण्डरूप
मन्दराचल से शून्य समुद्र के समान) यह दृष्टान्त दिया है। भाव यह कि अज्ञानियों की
दृष्टि से चलनक्रिया का भान होने पर भी जीवन्मुक्तों की चलनक्रिया सिद्ध नहीं हो
सकती।।26।। जैसे काठ की नाली के भीतर लकड़ी के बने हुए दो भेड़ों को परस्पर
भिड़ाने में भीतर रक्खी हुई और भीतर से खींची जाती हुई रस्सी कारण है वैसे ही
मनरूपी यन्त्र के चलने में विषयों की स्फूर्ति कारण है।।27।।
मन के चलने में
निर्विषय संवेदन हेतु नहीं हो सकता अतएव सविषय वेदन को मन के चलन का हेतु में कहना
होगा। ऐसी अवस्था में मनःस्पन्दन के पहले भी विषयसिद्धि से पहले मन की सिद्धि कहनी
होगी, यों अन्योन्याश्रय दोष होगा, ऐसी शंका कर सबके संस्काररूप से मायाशबल चैतन्य
के भीतर अधिष्ठान की सत्ता से स्थित होने के कारण सत् ही आविर्भूत होता है, ऐसा
कहते हैं।
जैसे स्पन्दन
(चलन) वायु के ही अन्तर्गत है, वैसे ही रूप अवलोक, मनस्कार तथा पदार्थ या विषय
इनसे परिपूर्ण जगत् वेदन के (विषयस्फूर्ति के) अन्तर्गत है। (बाह्य इन्द्रियों के
द्वारा विषयग्रहण रूप अवलोक है एवं मन के द्वारा विषयानुसन्धान मनस्कार है) इन
दोनों के लिए जैसे आविर्भूत होता है, उन्हीं का रूप धारणकर उत्पन्न हुआ-सा विस्तृत
देश, काल, बाह्य और आभ्यान्तर पदार्थों के स्वरूप से शोभित होता है। सर्वात्मरूप
विचार देह आदि है। अपना रूप जहाँ, जैसे और जिस प्रकार का प्रतीत होता है वैसा ही
वह हो जाता है। वह सर्वात्मा जहाँ जैसे उल्लास को प्राप्त होता है वहाँ शीघ्र वैसे
ही स्थित होता है और तद्रूप जैसा शोभित होता है। हे श्रीरामचन्द्रजी, जैसे भ्रमवश
रज्जु में सर्पज्ञान होता है वैसे ही जगत और वह सर्वात्मा द्रष्टा मिथ्या दृश्य
होकर प्रकाशित होते हैं, परन्तु जब विचार होने पर भ्रम निवृत्त हो जाता है तब
सम्पूर्ण दृश्य यथार्थ है, ऐसा बोध नहीं होता। चूँकि चिद्रूपी द्रष्टा सर्वात्मक
है अतएव उसके दृश्य के तुल्य होना अयुक्त नहीं है प्रत्युक्त युक्तिसिद्ध ही है।
द्रष्टा के स्वरूप में ही दृश्यभाव का भान होता है, अतएव दृश्यभाव वास्तविक नहीं
है। इसलिए यह स्थित प्रत्यक्ष ही अकारण अद्वितीय ब्रह्म सिद्ध हुआ अनुमान आदि
प्रत्यक्षपूर्वक होने से उसके अंश हैं। भाव यह कि सम्पूर्ण प्रमाणों का तत्त्व
आत्मा ही है। सिंहावलोकन न्याय से दैव के निरास का कारण कराते हुए पौरूष का ही यह
फल है। हे सज्जनशिरोमणि श्रीरामजी, परमार्थतः जो केवल अपने पूर्वजन्म का कर्म है,
उसे दैव मानकर मैं उसके आधीन हूँ, जैसा वह मुझसे करायेगा वैसा करूँगा' यो उसकी
उपासना में तत्पर जो पुरुष हैं उससे कल्पितदैव को दूर भगाकर इन्द्रिय आदि की विजय
में शूर अधिकारी पुरुष अपने पौरुष से ही उस परम पद को अपने हृदय में ही प्राप्त
करता है। हे श्रीरामचन्द्रजी जब तक आप स्वयं ही बुद्धि से उस अनन्तरूप, विशुद्ध
परब्रह्म का साक्षात्कार नहीं करते तब तक आचार्यपरम्परा के परमार्थनिष्ठ और
प्रमाणशुद्ध मत से विचार कीजिए।।28-35।।
उन्नीसवाँ सर्ग
समाप्त
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